वोट ध्रुवीकरण की खातिर भडकाऊ भाषण...

बुधवार, 13 मई 2009 (00:12 IST)
प्रसिद्ध लेखक राजेन्द्र यादव का कहना है कि स्वस्थ लोकतंत्र और साफ-सुथरी चुनावी प्रक्रिया केलिए घृणा फैलाने वाली राजनीतिक पार्टियों पर प्रतिबंध लगना चाहिए साथ ही उन्होंने कहा कि चुनावों में भडकाऊ भाषण एक सोची समझी साजिश के तहत ही दिए जा रहे हैं ताकि वोटों का ध्रुवीकरण कर सत्ता पर काबिज हुआ जा सके।

चुनाव प्रचार के दौरान राजनीतिक दलों द्वारा घृणा और उन्माद पैदा करने वाले भाषणों से जुड़े सवाल पर 'हंस' पत्रिका के संपादक ने कहा कि स्वस्थ लोकतंत्र तथा समाज में समरसता और सहिष्णुता बरकरार रखने के लिए उन पार्टियों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए, जिनका गठन ही नफरत के आधार पर हुआ है।

यादव ने कहा कि वरूण गाँधी जैसे नेता आवेश में आकर या भावनाओं में बहकर भडकाऊ भाषण नहीं देते बल्कि इसके लिए उन्हें बाकायदा प्रशिक्षण दिया जाता है। इस तरह की पार्टियाँ सत्ता में काबिज होने के लिए सोची-समझी रणनीति के तहत भडकाऊ भाषण के जरिये वोटों के ध्रुवीकरण का प्रयास करती हैं।

उन्होंने कहा कि चुनाव-प्रचार के दौरान असंसदीय भाषा के इस्तेमाल तथा विद्वेष पैदा करने वाले भाषणों की कदापि अनुमति नहीं होनी चाहिए लेकिन इसे सख्ती से लागू करने के लिए प्रशासनिक तंत्र मजबूत होना चाहिए।

मध्यावधि चुनाव का विकल्प हटने के प्रस्ताव का समर्थन करते हुए यादव ने कहा कि बार.बार के चुनाव से देश पर आर्थिक बोझ पडता है। चुनाव की आदर्श आचार संहिता लागू होने के बाद सारा सरकारी कामकाज ठप पड जाता है जिससे हजारों करोड रूपये का नुकसान होता है। हालांकि. उन्होंने यह भी कहा कि सैद्धांतिक रूप से तो यह प्रस्ताव ठीक है लेकिन व्यवहार में इसे अमल में लाना मुश्किल है ।

लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराये जाने सम्बन्धी प्रस्ताव पर उन्होंने कहा यह सुझाव तो अच्छा है लेकिन सवाल यह है कि क्या हमारे मतदाता खासकर ग्रामीण मतदाता इतने जागरूक और शिक्षित है कि वे राष्ट्रीय और प्रांतीय दो अलग-अलग मुद्दों को ध्यान में रखकर भिन्न-भिन्न बटन दबा सकेंगे। इसके लिए पहले मतदाताओं को शिक्षित, प्रबुद्ध, निडर और जागरूक बनाना होगा ।

यादव ने कहा कि मौजूदा परिस्थितियों में अच्छे उम्मीदवारों का चुनाव मैदान में उतरना मुश्किल है। खासकर लेखकों और पत्रकारों का चुनावी राजनीति में आना सबसे मुश्किल है।

यादव ने कहा कि यदि राजनीतिक पार्टियाँ या जनवादी लेखक संघ तथा प्रगतिशील लेखक संघ जैसे संगठन इस बिरादरी को चुनाव मैदान में उतारें तो कुछ बात बन सकती है। लेखकों को नामांकन के जरिये संसद में लाया जा सकता है, लेकिन समस्या यह है कि लेखकों में एकजुटता नहीं है और हमारा मौजूदा राजनीतिक नेतृत्व कुल मिलाकर इतना सुसंस्कृत ही नहीं है और उसे कला और लेखन की समझ ही नहीं है।

एक समय था जब पाँच-पाँच लेखक सांसद थे लेकिन आज एक भी लेखक सांसद नहीं है। समस्या यह भी है कि नेताओं को स्वतंत्र विचारों वाले विचारक बर्दाश्त नहीं होंगे। इन्हें तो 'लालू चालीसा' लिखने जैसे तथाकथित लेखक चाहिए।

जनता की आकांक्षाओं पर खरे न उतरने वाले निर्वाचित प्रतिनिधियों को बीच में ही वापस बुलाने के अधिकार पर उन्होंने कहा कि यदि सभी लोग मिल-बैठकर खामी रहित नियम, कानून या तौर-तरीका बनाते हैं तो यह अधिकार जनता को अवश्य मिलना चाहिए क्योंकि तब जनप्रतिनिधियों को भी डर होगा कि वे जबावदेह हैं। अभी तो वे पूरी तरह निश्चिंत होते हैं कि पाँच वर्ष तक उनका कोई कुछ नहीं बिगाड सकता, लेकिन इस बात की क्या गारंटी होगी कि सही काम करने वालों के खिलाफ इस अधिकार का दुरूपयोग नहीं किया जाएगा।

मतदान अनिवार्य किए जाने से जुड़े सवाल पर उन्होंने कहा कि एक तरह से यह अनिवार्य तो अब भी है। शहरी और मध्यमवर्गीय मतदाताओं की उदासीनता पर कटाक्ष करते हुए यादव ने कहा कि सुविधा पसंद यह वर्ग हर चीज की आलोचना करने में तो सबसे आगे है लेकिन मतदान वाले दिन अपना फर्ज न निभाकर मौज-मस्ती करता है।

चुनाव में धनबल और बाहुबल के बढ़ते प्रभाव पर यादव ने जातिबल को भी शामिल करते हुए कहा कि जब तक इन पर अंकुश नहीं लगेगा, चुनाव बेमानी हैं लेकिन विडंबना यह है कि हमारी व्यवस्था में सबसे बड़ा अपराधी ही शरणदाता है। आपराधिक रिकॉर्ड वाले लोगों के साथ सख्ती से निपटा जाना चाहिए लेकिन ऐसे लोग प्रशासन से मिलकर चीजों को मैनेज कर लेते हैं।

प्रधानमंत्री का चुनाव सीधे कराए जाने से असहमति जताते हुए उन्होंने कहा कि जब विधानसभा और लोकसभा के चुनाव ठीक से नहीं करा पाते, ऐसे में प्रधानमंत्री का सीधे चुनाव की बात व्यावहारिक नहीं है।

महिलाओं को टिकट न दिए जाने पर उन्होंने कहा कि राजनीति में महिलाओं के प्रवाह को कोई रोक नहीं सकता। हालाँकि उनके ऊपर घर-परिवार की जिम्मेदारी होती है। इसके अलावा वे भी पुरुषवादी व्यवस्था का अंग होती हैं, लेकिन उनमें साफ-सुथरा, ईमानदार और संवेदनशील प्रशासन देने की आंकाक्षा होती है। यदि मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था में कहीं से उम्मीद की किरण दिखाई दे रही है तो वह महिलाओं और दलितों से ही है क्योंकि वे पीड़ितों और वंचितों की पीड़ा को समझती हैं।

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