दीवार के कैनवास पर संजा रानी

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हमारे देश में बालिकाओं को बचपन से ही इस तरह संस्कारित किया जाता है कि दिन का प्रारंभ रंगोली से होता है, तो हर तिथि-त्योहार पर मेहँदी, महावर और घर-आँगन में मांडने मांडे जाते हैं। खेल-खेल में ही वे अपनी सांस्कृतिक धरोहर को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी और एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक पहुँचाकर राष्ट्रीय एकता को बहुरंगी सांस्कृतिक धागों से गुँथकर देश को एकसूत्रता में बाँधती हैं।

मध्यप्रदेश के मालवा व निमाड़ तथा राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र आदि क्षेत्रों में कई खेलोत्सव प्रचलित हैं। यहाँ प्रमुख त्योहारों के अतिरिक्त गणगौर, नरवत, भुलाबाई, संजा आदि खेल उत्सव भी मनाए जाते हैं। संजा कुँवार मास की कृष्ण प्रतिपदा से पितृमोक्ष अमावस्या तक श्राद्ध पक्ष में कुँआरी कन्याओं द्वारा मनाया जाने वाला ऐसा ही खेलोत्सव है।

इसमें बालिकाएँ घर-आँगन की बाहरी दीवार या ऐसी ही किसी सपाट सतह पर गोबर से चाँद, सूरज, स्वस्तिक, गणेश, पंखा छाबड़ी, हाथी, कौआ, पालकी, संजा माता, खेलते-खाते हुए भाई-बहन, रसोई, घर, छाँछ, बिलोनी, खाना बनाती स्त्रियाँ और विभिन्न फूल आकृतियाँ आदि बनाती हैं। फिर इन आकृतियों को फूल-पत्तियों तथा कागज और पन्नियों से सजाती हैं।

संजा में चाँद-सूरज हर दिन बनाते हैं, अन्य आकृतियों को क्रमानुसार बदलते हुए बनाते हैं। एक दिन पूर्व की आकृति को निकाल दिया जाता है। अंतिम दिन बनाए जाने वाले 'किला कोट' में पंद्रह दिनों की समस्त आकृतियाँ बनाई जाती हैं। श्राद्ध पक्ष के इन सोलह दिनों में साँझ होते ही दीपक प्रज्वलित कर लड़कियाँ संजा का स्वागत गीत-नृत्य, पूजा-आरती से करती हैं और प्रसाद बाँटती हैं।

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संजा विसर्जन के लिए बालिकाएँ गाते-बजाते हुए नदी या तालाब पर जाती हैं। इस समारोह में लड़कियों में से ही वर-वधू के रूप में बालिकाओं को सजाया जाता है। हास-परिहास, उल्लास सहित यह समूह घर-घर जाकर नेग, भेंट पैसे लेता है और विसर्जन के अगले दिन उससे गोट यानी सहभोज का आयोजन होता है। इससे बालिकाओं में नम्रता, सहकार भाव, भोजन बनाने और परोसने, व्यवस्था संभालने, संचालन, नेतृत्व, आत्मविश्वास, सामाजिकता, एकता व सहनशीलता के गुणों का विकास होता है।

इस खेल व्रत से लड़कियों को अपनी कोमल भावनाओं, कल्पनाओं और सौंदर्य अनुभूति की अभिव्यक्ति के भी अवसर मिलते हैं। संजा गीतों में बाल-सुलभ कोमलता, सरलता, मधुरता और अल्हड़ता होती है, साथ ही जीवन-आदर्श, मर्यादा व सामाजिक रीति-रिवाजों, मान्यताओं, नैतिकता, जीवन यथार्थ और प्रकृति के प्रति आदर, श्रद्धा की शिक्षा भी लड़कियों को मिलती है।

प्रकृति के सहज उपलब्ध साधनों से ही संजा बनाई और पूजी जाती है। पूजा और नैवेद्य के बाद आरती की जाती है। किसके घर प्रसाद हेतु क्या बना? यह पूछते हुए बालिकाएँ गाती हैं-

'आज किनका घर को न्यूतो रेऽ कागेला
आज सौम्या घर को न्यूतो रेऽ कागेला
खीर-खांड को भोजन रेऽ कागेला।..'

प्रसाद वितरण के पूर्व सखियों को उसे 'ताड़ना' या पहचानना आवश्यक है तभी प्रसाद वितरण होता है। समवयस्क भाई जो लड़कियों के साथ खेल नहीं पाते, वे शरारतपूर्वक प्रसाद को उजागर करने की कोशिश करते हैं जिससे बहनें चिढ़ती हैं और भाई उसका मजा ले लेते हैं। अतः बहनों को भी इन दिनों भाइयों से मेल देकर रहना और समझौता करना पड़ता है। भाई-बहनों की यह तकरार भी पुलकित करती है तथा बचपन की अमिट, मधुर यादों के रूप में स्मृति में संचित रहती हैं।

'संजा तू जीमा लऽ चूठी लऽ, जीमोसारी रात
चकमक चांदणी-सी रात, फूलड़, भरी रे परात...'

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