अब तो तारीफ कर भी दो यार

- विनती गुप्ता

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श्रीमती वर्मा आज किटी पार्टी में अनमनी-सी बैठी थीं। उनकी प्रिय सहेली श्रीमती शर्मा से रहा नहीं गया। उन्होंने, उन्हें अलग से जाकर आखिर पूछ ही लिया- क्यों इतनी गुमसुम हो, आखिर क्या परेशानी है? सांत्वना के दो बोल सुनकर तो श्रीमती वर्मा की आँखें भर आईं, परंतु कहीं कोई देख न ले अन्यथा जितने मुँह उतनी बातें सोचकर आँसुओं को पीने की भरसक कोशिश की व कहने लगीं- तुम्हें तो पता ही है मेरी सास आई हुई है।

- हाँ पता है, तो क्या कुछ झगड़ा हो गया।
- अरे नहीं झगड़ा-वगड़ा नहीं।
- फिर क्या, उन्होंने कुछ कह दिया।
- अरे नहीं।
- तो फिर क्या बात है, मियाजी से खटपट हो गई।
- अरे नहीं।

  कई महिलाओं की आदत है कि वे किसी के अच्छे काम की तारीफ नहीं करतीं। जबकि मन ही मन जानती हैं कि फलाँ अच्छा खाना पकाती है या उसके रहने का तरीका बहुत अच्छा है या उसकी बातचीत की कला लोगों को मोहती है या वह देखने में सुंदर है।      
- नहीं तो फिर रोनी सूरत क्यों बना रखी है? आखिर कोई तो परेशानी है जो तुम्हें खाए जा रही है, चैन नहीं लेने दे रही है। -अरे क्या बताऊँ, जबसे मेरी सास आई है मेरे पतिदेव तो उनके ही चक्कर लगा रहे हैं। -तो क्या हुआ, माँ के ही तो चक्कर लगा रहे हैं।

- अरे, यह बात नहीं है जब से माँ आई है। माँ-मूँग की दाल का हलवा बनाओ ना, माँ तुम्हारे हाथ की आज भरवा बैंगन की सब्जी खाने का मन है, माँ मैथी के पराठे बनाओ ना, बड़े नरम बनते हैं तुम्हारे हाथ के और साथ में कढ़ी, ऐसी कढ़ी खाए तो बरसों बीत गए। इस पर सास कहती है बहू सब कुछ तो बनाती है क्यों झूठ-मूठ मुझे बना रहा है।

पर ये हैं कि माँ का पीछा ही नहीं छोड़ते, मुझे इतनी शरम आती है कि पूछो मत। सास क्या सोचेगी कि मैं कुछ करती ही नहीं। तुम्हें तो पता है, मुझे खाना पकाने का शुरू से ही शौक रहा है। इनकी माँ जो इन्हें खिलाती थी वह भी मैं बनाती हूँ।

पता है ना तुझे, अभी पिछले हफ्ते ही तो मैंने कितनी मेहनत से मूँग का हलवा बनाया था। सब किटी की सहेलियों ने हँसी उड़ाई थी कि जब देखो किचन में घुसी रहती है। मैं सब कुछ करती हूँ परंतु इनसे इनकी माँ की बनी चीजें नहीं भूलती। एक साँस में ही सब कुछ कह गई वह।

श्रीमती शर्मा हँस पड़ी और कहने लगीं- बेकार ही तुम छोटी-सी बात को दिल से लगाए बैठी हो। तुम चाहती तो स्वयं भी सास के आने पर आनंद ले सकती थीं। कह सकती थीं, माँ आपने अपने बेटे को तो अपने हाथ का बनाया बहुत खिलाया है हमें भी खिलाओ ना क्या मैं आपकी बेटी नहीं? या फिर यह भी कह सकती थीं कि माँ फलाँ चीज आप बनाओ ना।

मैं तो कितनी ही कोशिश करती हूँ पर आपके जैसा स्वाद नहीं ला पाती हूँ। आप बनाओ, मैं आपकी मदद करूँगी और देखूँगी मुझसे कहाँ चूक होती है।

यदि यह तुम अपनी सास से कहतीं तो न तो तुम दुःखी होती, न ही घर का वातावरण असहज होता। यह सुनकर श्रीमती वर्मा सोचने पर विवश हो गईं कि बेकार ही वे इतना परेशान हुईं। काश, उनकी भी बुद्धि इस तरफ चल जाती तो यह दिन न आता।

यह समस्या श्रीमती वर्मा की ही नहीं, कई महिलाओं की आदत है कि वे किसी के अच्छे काम की तारीफ नहीं करतीं। जबकि मन ही मन जानती हैं कि फलाँ अच्छा खाना पकाती है या उसके रहने का तरीका बहुत अच्छा है या उसकी बातचीत की कला लोगों को मोहती है या वह देखने में सुंदर है।

परंतु वे अपनी जबान से तारीफ करने में हिचकिचाती हैं कि कहीं कोई उसे कम न समझ ले। जबकि इस सत्य को कोई नहीं झुठला सकता है कि प्रत्येक इंसान में कोई न कोई गुण होता है, परंतु सभी गुण एक ही इंसान में हो ऐसा नहीं है। फिर क्यों जिसमें जो गुण है उसकी प्रशंसा करने से वंचित रहा जाए?