व्रत पालन से होती है आत्मज्ञान की प्राप्ति

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मनुष्य जीवन में आत्मरक्षावृत्ति से लेकर समाजवृत्ति तक जो मर्यादाएं निश्चित हैं, उन्हीं के भीतर रहकर ही आत्मविकास करने में सुगमता होती है। व्यक्ति का निजी स्वार्थ भी इसी में सुरक्षित है कि सबके लिए समानव्रत का पालन करे। दूसरों को धोखे में डालकर आत्मकल्याण का मार्ग प्राप्त नहीं किया जा सकता।

आत्म ज्ञान के बिना व्यक्ति मुक्ति को प्राप्त नहीं हो सकता। इसीलिए ऋषि मुनियों ने व्रत और तपचर्या का संबंध आत्मज्ञान से जोड़ा है। वस्तुतः निजी स्वार्थ के लिए सत्य की उपेक्षा कर देने का तात्पर्य यह हुआ कि उस आचरण में पूर्व निष्ठा नहीं है। इसे ही हम कह सकते हैं कि आप सत्यव्रती नहीं है।

बात अपने हित की हो अथवा दूसरे के हित की, जो शुद्ध और न्यायसंगत हो उसका निष्ठापूर्वक पालन करना व्रत कहलाता है। इस प्रकार आचारण युद्धता को कठिन परिस्थितियों में भी न छोड़ना व्रत है। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी प्रसन्न रहकर जीवन व्यतीत करने का अभ्यास भी व्रत है। इससे मनुष्य में श्रेष्ठकर्मों के सम्पादन की योग्यता आती है, कठिनाइयों में आगे बढ़ने की शक्ति प्राप्त होती है, आत्मविश्वास दृढ़ होता है और अनुशासन की भावना विकसित होती है।

आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए बिखरी हुई शक्तियों को एकत्र करना और उन्हें मनोयोगपूर्वक कल्याण के कार्यों में लगाना ही व्रत है। नियमितता व्यवस्थित जीवन की आधारशिला है। आत्मशोधन की प्रक्रिया इसी से पूर्ण होती है।

आत्मवादी पुरुष का कथन है कि मैं जीवन में उत्तरोत्तर उत्कर्ष प्राप्त करने की प्रबल आकांक्षा रखता हूं। यह कार्य पवित्र आचरण करने से ही पूरा हो सकता है इसीलिए मैं व्रताचरण की प्रतिज्ञा करता हूं। व्रतपालन से आत्मविश्वास के साथ संयम की वृत्ति उत्पन्न होती है। व्रत पालन की नियमितता आत्मज्ञान प्राप्त करने का सरल मार्ग है।

उपेन्द्रनाथ मिश्र के चिंतन के अनुसार मनुष्य जीवन में आत्मरक्षावृत्ति से लेकर समाजवृत्ति तक जो मर्यादाएं निश्चित हैं, उन्हीं के भीतर रहकर ही आत्मविकास करने में सुगमता होती है। व्यक्ति का निजी स्वार्थ भी इसी में सुरक्षित है कि सबके लिए समानव्रत का पालन करे।

दूसरों का धोखे में डालकर आत्मकल्याण का मार्ग प्राप्त नहीं किया जा सकता। साथ-साथ चलकर लक्ष्य तक पहुंचने में जो सुगमता और आनंद है, वह अकेले चलने में नहीं। अनुशासन और नियमपूर्वक चलते रहने से समाज में व्यक्ति के हितों की रक्षा हो जाती है एवं दूसरों की उन्नति का मार्ग अवरूद्ध भी नहीं होता।

सृष्टि का संचालन नियमपूर्वक चल रहा है। सूर्य अपने निर्धारित नियम के अनुसार चलते रहते हैं। चन्द्रमा की कलाओं का घटना बढ़ना सदैव क्रम से होता रहता है। सारे के सारे ग्रह नक्षत्र अपने निर्धारित पथ पर ही चलते रहते हैं। इसी से सारी दुनिया ठीक से चल रही है।

अग्नि, वायु, समुद्र, पृथ्वी आदि अपने-अपने व्रत के पालन में तत्पर हैं। कदाचित नियमों की अवज्ञा करना उन्होंने शुरू कर दिया होता तो सृष्टि संचालन कार्य कभी का रुक गया होता। अपने कर्तव्य का अविचल भाव से पालन करने के कारा ही देवशक्तियां अमृतभोजी कहलाती हैं। इसी प्रकार व्रत नियमों का पालन करते हुए मानव भी अपना लौकिक और पारलौकिक जीवन सुखी एवं समुन्नता बना सकता है।

ऊंचे उठने की आकांक्षा मनुष्य की आध्यात्मिक प्रक्रिया है। पूर्णता प्राप्त करने की कामना मनुष्य का प्राकृतिक गुण है, किंतु हम जीवन को अस्त व्यस्त बनाकर लक्ष्य विमुख हो जाते हैं।

प्रत्येक कार्य का आरंभ छोटे स्तर से होता है, जिस प्रकार विद्यार्थी छोटी कक्षा से उत्तरोत्तर बड़ी कक्षा में प्रवष्टि होते हैं और लघुता से श्रेष्ठता की ओर अग्रसर होते हैं। ठीक उसी प्रकार आत्मज्ञान के महान लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रारंभिक कक्षा व्रत वालन ही है। व्रताचरण से हम अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं।

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