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अशआर : (मजरूह सुलतानपुरी)
जला के मिशअले-जाँ हम जुनूँ सिफ़ात चले
जो घर को आग लगाए हमारे साथ चले
सुतून-ए-दार पे रखते चलो सरों के चिराग़
जहाँ तलक ये सितम की सियाह रात चले
देख ज़िन्दाँ से परे रंग-ए-चमन, जोश-ए-बहार
रक़्स करना है तो फिर पाँव की ज़ंजीर न देख
एहले-तूफ़ाँ आओ दिल वालों का अफ़साना कहें
मौज को गेसू, भँवर को चश्मे-जानानाँ कहें
रोक सकता हमें ज़िन्दाँने-बला क्या मजरूह
हम तो आवाज़ हैं दीवारों से छन जाते हैं
सर पर हवा-ए-ज़ुल्म चले सौ जतन के साथ
अपनी कुलाह कज है उसी बाँकपन के साथ
मुनतज़िर हैं फिर मेरे, हादिसे ज़माने के
फिर मेरा जुनूँ तेरी बज़्म में ग़ज़ल ख़्वाँ है
मुझे नहीं किसी असलूब-ए-शायरी की तलाश
तेरी निगाह का जादू मेरे सुख़न में रहे
बचा लिया मुझे तूफ़ाँ की मौज ने वरना
किनारे वाले सफ़ीना मेरा डुबो देते
तुझे न माने कोई इससे तुझको क्या मजरूह
चल अपनी राह भटकने दे नुकता चीनों को
मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया
देह्र में मजरूह कोई जावेदाँ मज़मूँ कहाँ
मैं जिसे छूता गया वो जावेदाँ बनता गया
मेरी निगाह में है अरज़े-मासको मजरूह
वो सरज़मीं के सितारे जिसे सलाम करें
मैं के एक महनत कश, मैं के तीरगी दुश्मन
सुबहे-नौ इबारत है मेरे मुस्कराने से।
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