फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के मुनफ़रीद अशआर

बुधवार, 21 मई 2008 (16:30 IST)
Aziz AnsariWD
अब अपना इख्तियार है चाहे जहाँ चलें
रेहबर से अपनी राह जुदा कर चुके हैं हम

दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के
वो जा रहा है कोई शबेग़म गुज़ार के

वीराँ है मैकदा, खुम ओ साग़र उदास हैं
तिम क्या गए कि रूठ गए दिन बहार के

इक फ़ुरसत-ए-गुनाह मिली वो भी चार दिन
देखे हैं हमने हौसले परवरदिगार के

दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुझसे भी दिलफ़रेब हैं ग़म रोज़गार के

भूले से मुस्कुरा तो दिए थे वो आज फ़ैज़
मत पूछ वलवले दिले नाकरदाकार के

शेख साहब से रस्मोराह न की
शुक्र है ज़िन्दगी तबाह न की

कौन क़ातिल बचा है शहर में फ़ैज़
जिससे यारों ने रस्मोराह न की

गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौबहार चले
चले भी आओ कि दुनिया का कारोबार चले

मक़ाम फ़ैज़ कोई राह में जचा ही नहीं
जो कूए यार से निकले तो कूए दार चले

आए कुछ अब्र, कुछ शराब आए
उसके बाद आए जो अज़ाब आए

कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब
आज तुम याद बेहिसाब आए

तुम्हारी याद के जब ज़ख्म भरने लगते हैं
किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं

सबा से करते हैं ग़ुरबत नसीब ज़िक्रे चमन
तो चश्मे सुबहा में आँसू उभरने लगते हैं

तुम आए हो न शबे इंतिज़ार गुज़री है
तलाश में है सेहर बार-बार गुज़री है

वो बात सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था
वो बात उनको बहुत नागवार गुज़री है

न गुल खिले हैं, न उनसे मिले, न मै पी है
अजीब रंग में अब के बहार गुज़री है

और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरी मेहबूब न माँग

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