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अतीक़ अहमद अतीक़ की ग़ज़लें
मंगलवार, 22 जुलाई 2008 (14:41 IST)
1.
दिल-ओ-निगाह की सारी लताफ़तें भी गईं
बसीरतों की तलब में बसारतें भी गईं
गए दिनों की जहाँ तक अमानतें भी गईं
नई रुतों की महकती बशारतें भी गईं
हरा भरा मुझे रखती थीं जो हरैक रुत में
वो शाख़सार-ए-बदन की हरारतें भी गईं
समाअतों की फ़सीलें तो फांद आई सदा
कभी हिसार-ए-सदा तक समाअतें भी गईं
मेरी कथा जो गई, ता दयार-ए-शीशा-ओ-संग
लहूलोहान दिलों की हिकायतें भी गईं
ग़ज़ल का सदियों पुराना लिबास यूँ बदला
कि फ़िक्र-ओ-फ़न की मोहज़्ज़िब रिवायतें भी गईं
बनाम दर्द मेरे दिल को जो मोयस्सर थीं
'
अतीक़' अब तो वो बेनाम राहतें भी गईं
2.
ख़ुद अपना ख़ौफ़ रहा दिल में यूँ समाया सा
कि जैसे पास कोई सांप सर-सराया सा
तुम्हारे नाम का पड़ने लगा जो साया सा
तो अपना नाम भी लगने लगा पराया सा
चिराग़-ए-देह्र बला से हो टिम-टिमाया सा
तेरे ख़्याल का सूरज हो जगमगाया सा
ये कौन मुझमें दर आया है अक्स अन्दर अक्स
तमाम शीशा-ए-हस्ती है कसमसाया सा
मैं आसमान से क्यों राबते का दम भरता
मेरा ज़मीन से रिश्ता न था पराया सा
भरा-पुरा है तेरे रूप का समन्दर भी
है चाहतों का जज़ीरा भी लहलहाया सा
खुले हुए हैं जो बाज़ू उन्हें समेट के रख
अभी हवाओं का जंगल है सनसनाया हुआ
वोप बेनियाज़ सही फिर भी कोई है तो 'अतीक़'
मेरे वजूद मेरी शख़्सियत पे छाया सा
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