हमारे सनातन धर्म में दान का विशेष महत्त्व बताया गया है। शास्त्रों में तो स्पष्ट निर्देश है कि व्यक्ति को अपने कमाई का दशांश (दस फीसदी) अवश्य ही दान करना चाहिए, तभी उसका अपनी कमाई पर अधिकार सिद्ध होता है। अपनी कमाई का दशांश दान नहीं करने वाले व्यक्ति को चोर की संज्ञा दी गई है।
अब प्रश्न यह उठता है कि दान की सही विधि क्या हो? हमारे शास्त्रों ने दान देने की सही विधि के बारे में भी स्पष्ट निर्देश दिया है। अधार्मिक रीति से दिया गया दान निष्फल व नष्ट हो जाता है। आइए जानते हैं कि दान देने हेतु शास्त्रोक्त नियम क्या हैं-
1. प्रत्येक व्यक्ति को न्यूनतम रूप से अपनी कमाई का दशांश (दस प्रतिशत) अवश्य ही दान करना चाहिए।
2. दान सदैव सत्पात्र अर्थात् दान लेने हेतु योग्य व्यक्ति को ही दिया जाना चाहिए।
3. दान सदैव धार्मिक रीति से उपार्जित धन, संपत्ति अथवा द्रव्य का ही दिया जाना चाहिए।
4. किसी की धरोहर या अमानत में रखे धन अथवा संपत्ति या द्रव्य का दान नहीं दिया जाना चाहिए।
5. ऋण लेकर कभी भी दान नहीं दिया जाना चाहिए।
6. अपने संकट काल के लिए संरक्षित धन (सुरक्षित निधि) का कभी भी दान नहीं दिया जाना चाहिए।
7. दान सदैव प्रसन्नचित्त एवं निस्वार्थ भाव अर्थात् अपेक्षा रहित होकर दिया जाना चाहिए।
इस रीति से दिए गए दान होते हैं नष्ट : -
1. ऐसा दान जिसके दिए जाने के उपरांत दान दाता के मन में पश्चाताप हो वह नष्ट हो जाता है।
2. ऐसा दान जो अश्रद्धापूर्वक दिया जाता है वह नष्ट हो जाता है।
3. ऐसा दान जो मन में द्वेष या क्रोध भावना का संचार करे वह नष्ट हो जाता है।
4. ऐसा दान जो भयपूर्वक दिया जाता है वह नष्ट हो जाता है।
5. ऐसा दान जो स्वार्थपूर्वक अर्थात् दान देने वाले से बदले में कुछ अपेक्षा रखकर दिया जाता है वह नष्ट हो जाता है।
सत्पात्र व कुपात्र के बारे में दान का विशेष नियम :-
शास्त्रों ने सदैव ही सत्पात्र को दान दिए जाने का आग्रह किया है। इस संबंध में शास्त्र का स्पष्ट निर्देश है कि सत्पात्रों को दिए गए दान का पुण्यफल अक्षय होता है व मृत्युपर्यंत (परलोक) भी प्राप्त होता है, वहीं कुपात्र व अयोग्य व्यक्ति को दिए गए दान का फल वर्तमान काल में भोग के उपरांत ही समाप्त हो जाता है।
ये हैं महादान :-
शास्त्रों में दस वस्तुओं के दान को महादान बताया गया है, वे निम्न हैं :-