कालीघाट में होती हैं अघोर तांत्रिक सिद्धियाँ

- दीपक रस्तोगी
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तंत्र-साधना के बल पर आदमी अलौकिक और चामत्कारिक शक्तियों का स्वामी बन सकता है? इस सवाल का हाँ या ना में जवाब देने के बजाय यह कहा जा सकता है कि आज भी तंत्र-साधना की शक्तिपीठों के प्रति लोगों में गहरी दिलचस्पी बनी हुई है। कोलकाता की कालीघाट, वीरभूम की तारापीठ, कामरूप की कामख्या, रजरप्पा की छिन्नमस्ता जैसे तमाम सिद्धपीठों को तांत्रिकों की सिद्धभूमि माना जाता है। ये पीठ आम श्रद्धालुओं के आकर्षण केंद्र भी हैं।

आइए, इनमें से पश्चिम बंगाल स्थित दो सिद्धपीठों - कोलकाता का कालीघाट और वीरभूम की तारापीठ की यात्रा के अनुभव के आधार पर तय करें कि तंत्र-साधना में कितनी सच्चाई है और कितना फसाना।

तंत्र साधना के लिए जानी-मानी जगह है तारापीठ, जहाँ की आराधना पीठ के निकट स्थित श्मशान में हवन किए बगैर पूरी नहीं मानी जाती।

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रात के घुप्प अंधेरे में मानव खोपड़ी से खेलते तांत्रिकों को अगर आप देखना चाहें तो तारापीठ से बेहतर जगह शायद ही आपको कहीं और मिले। कहा जाता है कि यहाँ सती की दाहिनी आंख की पुतली गिरी थी इसलिए इस जगह का नाम तारापीठ पड़ा। पुराणों के अनुसार यह मुनि वसिष्ठ की साधना-स्थली और कलयुग में तांत्रिक साधक वामाखेपा की साधना स्थली भी है। कहा जाता है कि यहाँ मुनि वसिष्ठ ने देवी का मंदिर बनवाया था जो नष्ट हो गया। आधुनिक युग में जयव्रत नाम के एक सौदागर ने स्वप्नादेश के आधार पर मंदिर बनवाया था।

कोलकाता से 180 किलोमीटर दूर स्थित तारापीठ धाम की खासियत यहाँ का महाश्मशान है। यह स्थान मंदिर से थोड़ा हटकर बिलकांदी गाँव में ब्रह्माक्षी नदी के किनारे पड़ता है। यहाँ के महाश्मशान में वामा खेपा और उनके शिष्य तारा खेपा नाम के दो कापालिकों की साधनाभूमि होने के चलते तारापीठ को सिद्धपीठ के तौर पर प्रसिद्धि मिली। कहते हैं कि वामा खेपा यहाँ माँ तारा को अपने हाथों से भोग खिलाते थे।

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मान्यता है कि यहाँ के श्मशान में जिस दिन मुर्दे नहीं जलते, उस दिन माँ तारा को कोई भोग नहीं चढ़ता और न ही तांत्रिक कुछ खाते-पीते हैं। स्थानीय तांत्रिक इसे माँ तारा का 'आदिनियम'बताते हैं। विज्ञान के इस युग में यहाँ सक्रिय तांत्रिकों की शक्ति, भक्ति और नीयत को तर्क का विषय बनाया जा सकता है लेकिन सामान्य रात्रि सहित शनिवार और खासकर दीपावली की अमावस्या की रात को यहाँ के दो बीघे में फैले महाश्मशान में सौ-डेढ़ सौ तांत्रिकों की जबर्दस्त सक्रियता देखने को मिलती है।

श्मशान में 20-20 हाथ की दूरी पर बने तांत्रिकों के झोंपड़ों में सिंदूर से लिपी-पुती मानव खोपड़ियाँ और हड्डियाँ रहस्यमय वातावरण का निर्माण करती हैं। लेकिन ऐसा कर उन्हें मिलता क्या है ? किसका कल्याण होता है ? यह पूछने के लिए आप जिस किसी तांत्रिक को पकड़ें वह दो-तीन सामान्य बातें जरूर कहेगा। मसलन, बेटा, पहले 50 रुपए निकालो... या फिर यह श्मशान की भभूति ले जाओ सारे दुख दूर होंगे या फिर आओ माँ तारा की सिद्धि कर लो...। ऐसे में अंधविश्वास का कारोबार ज्यादा हावी लगने लगता है।

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पिछले साल यहीं के महाश्मशान में एक महिला तांत्रिक ने रांगा नाम की युवती को 'माँ काली' बनाकर तंत्र सिद्धि का ढोंग किया और श्रद्धालुओं को खूब ठगा। बाद में रांगा जब अपने सांसारिक जीवन में लौटने लगी तो तंत्र सिद्धि का लालच देकर महिला तांत्रिक ने रांगा के साथ मिलकर उसके पति की हत्या करवा दी। इस घटना के चलते सिद्धपीठों में चल रही तंत्र-साधना के प्रति लोगों में अविश्वास का भाव बना।

कोलकाता के कालीघाट में कुछ अघोरपंथियों के प्रति स्थानीय श्रद्धालुओं में श्रद्धा-भक्ति दिखती है। हालांकि, उनकी गतिविधियां ज्योतिष को लेकर ज्यादा दिखती है। साथ ही, 'हीलिंग टच' चिकित्सा की भी ख्याति है। कालीघाट के पास स्थित केवड़तला श्मशान घाट को किसी जमाने में शव साधना का केंद्र माना जाता था। यहाँ 1862 में श्मशान का निर्माण किया गया। उस दौरान कालीघाट में महिला तांत्रिकों की संख्या भी अच्छी-खासी थी। 1960 में माँ योगिनी नामक एक महिला तांत्रिक ने अपनी आध्यात्मिक क्षमताओं से असाध्य रोगों का इलाज करने का दावा किया था। उस महिला तांत्रिक के शिष्यों की संख्या आज भी कालीघाट इलाके में काफी है।

ऐसे ही एक तांत्रिक हैं बाबा मिहिर भट्टाचार्य। 75 पार के भट्टाचार्य अपनी 'दिव्य'ऊँगलियों के स्पर्श से समास्याओं के समाधान के लिए चर्चित हैं। पत्रकार जानकर बातचीत से पीछा छुड़ाते हैं लेकिन कालीघाट में उनके चेलों की अच्छी तादाद है, जिनके पास उनके द्वारा किए गए चमत्कारों का पिटारा है।

कालीघाट में एक और अघोरपंथी तांत्रिक हैं - स्वामी शंकरानंद। भविष्यवाणी करने के लिए उनकी 'ख्याति' है। उनका दावा है कि मंत्रों की सिद्धि करने के लिए उन्होंने कई रातें श्मशान में गुजारी हैं। वे तंत्र विद्या की प्राचीनता पर खुलकर बात करते हैं। आधुनिक दौर में तंत्र-साधना पर विश्वास करने वालों की संख्या भले ही कम हुई हो लेकिन ऐसे लोगों की भी कमी नहीं जो तांत्रिकों तथा उनकी साधनाओं के प्रति श्रद्धा भाव रखते हैं।

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