गुदा के मुख में छोटे-छोटे अंकुर (मस्से) होते हैं, इनमें से एक, दो या अनेक मस्से फूलकर बड़े हो जाएँ तो इस स्थिति को आयुर्वेद ने 'अर्श' कहा है।
ये मस्से पहले कठोर होना शुरू होते हैं, जिससे गुदा में कोचन और चुभन-सी होने लगती है। ऐसी स्थिति होते ही व्यक्ति को सतर्क हो जाना चाहिए।
इस स्थिति में ध्यान न दिया जाए तो मस्से फूल जाते हैं और एक-एक मस्से का आकार मटर के दाने या चने बराबर हो जाता है। ऐसी स्थिति में मल विसर्जन करते समय तो भारी पीड़ा होती है लिहाजा अर्श का रोगी सीधा बैठ नहीं पाता।
रोगी को न बैठे चैन मिलता है और न लेटे हुए। यह बादी बवासीर होती है, बवासीर रोग में यदि खून भी गिरे तो इसे खूनी बवासीर (रक्तार्श) कहते हैं। यह बहुत भयानक रोग है, क्योंकि इसमें पीड़ा तो होती ही है साथ में शरीर का खून भी व्यर्थ नष्ट होता है।
कारण : बवासीर होने का प्रमुख कारण है लम्बे समय तक कठोर कब्ज बना रहना। सुबह-शाम शौच न जाने या शौच जाने पर ठीक से पेट साफ न होने और काफी देर तक शौचालय में बैठने के बाद मल निकलने या जोर लगाने पर मल निकलने या जुलाब लेने पर मल की स्थिति को कब्ज होना कहते हैं।
चिकित्सा : सबसे पहली चिकित्सा तो यह करना चाहिए कि सुबह-शाम शौच जाएं। पेट में कब्ज न रहने दें, शौच के बाद स्वमूत्र से गुदा को धोना चाहिए। एक शीशी या डिब्बे में अपना मूत्र लेकर रख लेना चाहिए। इसके बाद गुदा को पुनः पानी से नहीं धोना है सिर्फ हाथ धो लेना है। गुदा में लगा मूत्र थोड़ी ही देर में सूख जाता है।
यह प्रयोग बहुत कारगर है, बवासीर की प्रारंभिक अवस्था में यह प्रयोग करने से बवासीर से छुटकारा मिल जाता है।
दूसरे उपाय में सुबह, शाम व सोते समय रूई के फाहे को 'कासीसादि तेल' में डुबोकर गुदा के मस्सों पर 3-4 माह तक या पूरा आराम होने तक प्रतिदिन लगाएं।
यदि खूनी बवासीर हो तो रात को कासीसादि तेल न लगाकर 'दूर्वादिघृत' का फाहा लगाना चाहिए या दिन में लगाना जरूरी हो तो लगा सकते हैं। अलग-अलग वक्त में 'कासीसादि तेल' और 'दूर्वादिघृत' दोनों का प्रयोग कर सकते हैं।
सिर्फ यह खयाल रखें कि दूर्वादिघृत का प्रयोग सिर्फ खूनी बवासीर में खून गिरना रोकने के लिए किया जाता है।