#70yearsofpartition भारत-पाकिस्तान बंटवारा: 'सेब और संतरों की तरह औरतों की अदला-बदली'

शुक्रवार, 11 अगस्त 2017 (11:48 IST)
- दिव्या आर्य (दिल्ली)
ये बंटवारे के बीच मोहब्बत की सच्ची कहानी है। अपना प्यार पाने के लिए धर्म बदलने और देश बदलने की जद्दोजहद के बाद भी सरकारों से झगड़ते प्रेमियों की कहानी।
 
साल 1947। रावलपिंडी के पठान ख़ानदान की इस्मत तब सिर्फ़ 15 साल की थी। और अमृतसर के लालाजी के परिवार का जीतू 17 साल का। दोनों परिवार पिछले सालों में श्रीनगर में छुट्टियां मनाते हुए कई बार मिल चुके थे। इस्मत और जीतू की दोस्ती मोहब्बत में बदल चुकी थी।
पर बँटवारे के तूफ़ान ने उन्हें सरहदों के पार कर दिया था। इस्मत समझ गई थी कि जीतू को पाना अब बहुत मुश्किल होगा। प्यार में डूबी इस्मत घर से भागकर हिंदुओं के रिफ़्यूजी कैंप पहुंच गई। वहाँ बोली, "मैं एक हिंदू लड़की हूं। अपने मां-बाप से बिछड़ गई हूं। क्या मेहरबानी करके आप मुझे भारत भेज देंगे?"
 
बँटवारे के बाद के महीनों में दोनों देशों की हज़ारों औरतों का अपहरण हुआ था और कई की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ उनका मज़हब बदला गया, शादियां हुईं। इसीलिए भारत और पाकिस्तान की सरकारों ने अगवा हुई औरतों को ढूंढकर वापस उनके परिवारों तक भेजने के लिए 'ऑपरेशन रिकवरी' शुरू किया।
समाजसेवी कमला पटेल भारत और पाकिस्तान के रिफ़्यूजी कैंपों में ऐसी औरतों की अदला-बदली करवाने की इंचार्ज बनाई गईं। इस्मत उन्हीं के पास आई। बंटवारे के फ़ौरन बाद का वो व़क्त ऐसा था कि पंजाब के हिंदू और मुसलमानों का पहनावा और बोली एक जैसी थी। उन्होंने उसकी बात पर यक़ीन करते हुए उसे हिंदू माना और बाक़ी शरणार्थियों के साथ रावलपिंडी से अमृतसर पहुंचा दिया।
 
अमृतसर में इस्मत ने जीतू के घर का पता लगाकर संदेश भिजवाया। जीतू फ़ौरन कैम्प पहुंच गया। जीतू के मां-बाप की रज़ामंदी से, नाबालिग़ होने के बावजूद अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में उनकी शादी हो गई। पर सरहदों को पार करती इस प्रेम कहानी में जल्द ही एक मुश्किल मोड़ आ गया।
इस्मत के परिवार ने कहा कि उनकी बेटी का अपहरण हुआ है और पाकिस्तान सरकार उसे ढूंढकर वापस लाए। अगवा हुई औरतों को वापस उनके परिवारों तक लाने का दोनों देशों का क़रार, इस्मत और जीतू के प्यार के आड़े आ गया।
 
इस्मत का झूठ पकड़ा गया, उसे अब पाकिस्तान वापस जाना ही था। घबराया हुआ जीतू कमला पटेल के पास आया और बोला, "ये अपहरण का मामला नहीं है, इस्मत मुझसे प्यार करती है और अपनी मर्ज़ी से मेरे पास आई, आपको मेरी मदद करनी ही होगी।"
एक नाबालिग लड़की के मां-बाप कैसे मान लें कि उसका अपहरण नहीं किया गया? इस एक मामले में रियायत पूरा ऑपरेशन बिगाड़ सकती थी। कमला पटेल इस्मत या उसके जैसी और औरतों को ज़बर्दस्ती वापस भेजने के ख़िलाफ़ थीं। इस मुद्दे पर बहस 'कॉन्स्टिटूअंट असेम्बली' तक पहुंची। कई औरतों ने इसका विरोध किया। पर करार जारी रहा।
 
पुलिस से बचने के लिए इस्मत और जीतू अमृतसर से भागकर कोलकाता चले गए। कमला पटेल की टीम पर दबाव बढ़ता रहा। अपनी किताब 'टॉर्न फ्रोम द रूट्स: अ पार्टिशन मेमॉयर' में कमला पटेल ने इस ऑपरेशन को 'सेब और संतरों की तरह औरतों की अदला-बदली' बताया है।
किताब छापने वाली रितु मेनन ने मुझे बताया, "कई बार कमला पटेल ने अगवा की गई औरतों को रिफ्यूजी कैंप वापस लाने के बाद भागने में मदद की ताकि वो फिर अगवा करने वाले परिवार के पास चली जाएं।" वो व़क्त ही ऐसा था। औरतों की मर्ज़ी समझना ज़रूरी था। रिश्ते अजीब हालात में बन रहे थे और कई बार उनमें बने रहना उन्हें तोड़ने से बेहतर था।
 
इस्मत और जीतू का मामला भी कुछ ऐसा ही था। पर सरकारी क़ायदा ये बारीकी नहीं समझना चाहता था। आख़िरकार इस्मत और जीतू को वापस लाने के लिए अफ़वाह उड़ाई गई कि पाकिस्तान सरकार ने ये केस बंद कर दिया है। अफ़वाह को सच मानकर इस्मत और जीतू वापस अमृतसर आ भी गए। 
फिर कमला पटेल ने इस्मत को मनाया कि वो एक हफ़्ते के लिए लाहौर जाए। वहां के पुलिस कमिश्नर के पास रहकर अपने माँ-बाप से मिल ले और फिर अपना आख़िरी फ़ैसला सुनाए। कमला पटेल के लिए अपने मन के ख़िलाफ़ ये सब करना आसान नहीं था।
 
उनकी कज़िन नयना पटेल ने मुझे बताया, "उन पर बहुत दबाव था, लोगों की ज़िंदगी के फ़ैसले करने का दबाव, पांच साल तक इस ऑपरेशन में रिफ़्यूजी कैंपों में रहते-रहते उनका खाना-पीना तक छूट गया।" 
 
ऑपरेशन रिकवरी के तहत 30,000 औरतों को ढूंढकर वापस उनके परिवारों तक पहुंचाया गया। इनमें इस्मत और जीतू जैसे सैंकड़ों मामले थे जिनका कोई आधिकारिक रिकॉर्ड नहीं है। कमला पटेल जैसी समाजसेवियों की किताबें इनका इकलौता लेखा-जोखा है। उनकी किताब के मुताबिक जीतू इस्मत को लाहौर में छोड़कर वापस अमृतसर आ गया। दिन गिनने लगा।
पर चौथे ही दिन कमला पटेल हैरान रह गईं जब पता चला कि इस्मत के मां-बाप उसे अपने घर ले गए हैं। वो जल्द से जल्द उससे मिलने वहां पहुंची। पर वहां कहानी बिल्कुल बदल गई थी, इस्मत का पहनावा और हावभाव भी बदला हुआ था। अंगुली उठाकर इस्मत बोली, "इन्हीं औरतों ने मुझे पाकिस्तान नहीं आने दिया, मेरे बार-बार कहने पर भी नहीं।"
 
जीतू का नाम सुनते ही वो आग-बबूला हो गई, "मैं उस काफ़िर का मुंह नहीं देखना चाहती, मेरा बस चले तो मैं उसके टुकड़े-टुकड़े कर कुत्तों को खिला दूं।" जीतू तक ख़बर पहुंची तो वो भागा-भागा लाहौर गया, "इस्मत पर मां-बाप का चाहे जितना दबाव हो, मैं होता तो वो ऐसा बिल्कुल नहीं कहती।" पर इस्मत का परिवार वहां से लापता हो चुका था।
 
लाहौर में जान के ख़तरे के बावजूद जीतू इस्मत को खोजने की कोशिशें करता रहा। कमला पटेल ने उसे समझाने की बहुत कोशिश की। बंटवारे की हिंसा थमी नहीं थी। पर जीतू ने कहा, "मैं बर्बाद तो हो ही गया हूं, अब मर भी जाऊं तो क्या?" बहुत पैसे ख़र्च हुए, जीतू को टीबी हो गई। पांच साल बाद जब कमला पटेल ने उसे आख़िरी बार देखा तो वो बहुत कमज़ोर हो गया था। चेहरा पीला पड़ चुका था, वो अकेला ही था।

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