अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में हिन्दू का पढ़ना कितना मुश्किल?
गुरुवार, 29 जून 2017 (11:29 IST)
रजनीश कुमार
''मुसलमानों के लिए रमज़ान का महीना काफ़ी पवित्र होता है लेकिन मेरे लिए अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में ये महीना मुश्किल भरा रहा। इस बार 28 मई से यह 25 जून तक चला और मैं इंतज़ार करती रही कि कब ख़त्म होगा।''
एएमयू से पीएचडी कर रहीं वंदिता यादव (बदला हुआ नाम) के लिए कैंपस के भीतर रमज़ान का यह पहला अनुभव था। वंदिता ने कहा कि रमज़ान शुरू होते ही अचानक से कैंपस के भीतर सारी कैंटीन बंद हो गई थीं। उन्होंने कहा कि ये शाम में इफ़्तार के वक़्त ही खुलती थीं, होस्टल में भी यही स्थिति रहती है।
वंदिता ने कहा, ''रमज़ान में कैंपस के भीतर इस कदर धार्मिक माहौल रहता है कि मन में एक किस्म का डर बना रहता है। अगर कोई मुस्लिम साथी रोज़ेदार हो तो उसके सामने कुछ खाने में या फिर पानी पीने में भी अजीब लगता है। ऐसा लगता है कि कोई आपत्ति न जता दे।''
मज़हबी तौर-तरीक़ों को अपनाना मजबूरी
वंदिता को कैंपस के भीतर हॉस्टल नहीं मिला है। वह अलीगढ़ के अहमद नगर में रहती हैं, अक्सर घर से बिना खाए निकलती थीं और कैंपस में जाकर खाती थीं। उन्होंने कहा कि कैंपस के बाहर भी रमज़ान के महीने में शाम से पहले खाने-पीने के लेकर काफ़ी दिक़्क़त होती है।
उन्हें कई बार ऐसा लगता है कि वह किसी मज़हबी यूनिवर्सिटी में पढ़ती हैं जहां एक ख़ास मजहब के तौर-तरीक़ों को अपनाना मजबूरी है। वंदिता कहती हैं कि वॉशरूम में केतलीनुमा लोटा होता है जिसकी कभी आदत नहीं रही।
हालांकि यहां मास कम्युनिकेशन से पीएचडी कर रहे असद फ़ैसल फारूक़ी वंदिता से सहमत नहीं हैं। फ़ैसल कहते हैं, ''यहां जो भी चीज़ें हैं वह यहां की परंपरा का हिस्सा है। लोग इसे ख़ुशी से स्वीकार करते हैं न किसी पर दबाव बनाया जाता है।''
उन्होंने कहा, ''रमज़ान के महीने में जिन्हें खाना होता है उनके लिए डाइनिंग हॉल में अलग से खाने की व्यवस्था होती है। लोगों को यह बात समझनी चाहिए कि इस यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक यूनिवर्सिटी का दर्जा मिला हुआ है। हम दर्जे को बनाए रखने के लिए सुप्रीम कोर्ट में लड़ाई भी लड़ रहे हैं।''
सिर्फ़ हिंदू नहीं मुसलमानों को भी परेशानी
2000 से 2006 तक अलीगढ़ में जबी अफाक़ ने कॉमर्स की पढ़ाई की। अभी वह हिन्दुस्तान टाइम्स में पत्रकार हैं। उन्होंने कहा, ''कैंपस में एक मज़हब का बोलबाला रहता है। रमज़ान के महीने में केवल हिन्दुओं को ही नहीं बल्कि उन मुस्लिमों को भी दिक़्क़त होती है जो रोज़ा नहीं रखते हैं। आपको इस दौरान कुछ खाना है तो छुपकर खाना होगा। कैंपस की सारी कैंटीन बंद हो जाती हैं। कैंपस के बाहर भी ढाबों में पर्दे लगा दिए जाते हैं। ऐसे में किसी लड़की को खाने में काफ़ी दिक़्क़त होती है।''
जबी बताते हैं कि उनका अलीगढ़ में घर है इसलिए दिक़्क़त नहीं होती थी लेकिन जो बाहर के लोग हैं उनके लिए रमज़ान का महीना आसान नहीं है। जबी ने कहा कि जो अपने घर से भी खाना लेकर आते हैं उनके लिए रमज़ान के महीने में खाना सहज नहीं है।''
यूनिवर्सिटी नहीं कोई धार्मिक संस्थान
संजीव जायसवाल (बदला हुआ नाम) ने अलीगढ़ से ही ग्रैजुएशन, मास्टर और एमफ़िल किया है। अभी वह यहां से पीएचडी कर रहे हैं। संजीव ने बताया, ''शुक्रवार को हाफ़ टाइम के बाद जुम्मे की नमाज़ के लिए छुट्टी दे दी जाती है। इस दौरान भी सारी कैंटीन बंद हो जाती हैं।''
संजीव ने कहा, ''दूसरे कैंपस में आप धर्म की आलोचना कर सकते हैं। उसे कटघरे में खड़ा कर सकते हैं लेकिन अलीगढ़ में आप ऐसा करने से पहले 10 बार सोचेंगे। ऐसा लगता है कि हम किसी यूनिवर्सिटी में नहीं बल्कि किसी धार्मिक संस्थान में पढ़ाई कर रहे हैं। लोग यहां लाइब्रेरी में भी नमाज़ अदा करते हैं। अगर कोई नमाज़ अदा कर रहा है और आप वहां हैं तो ज़्यादा सतर्क होना पड़ता है। आप उतना सहज नहीं रह सकते।''
वंदिता ने इसी साल मई का एक वाकया बताया, ''यूनिवर्सिटी के केनेडी हॉल में अभिनेता नसीरुद्दीन शाह आए थे। केनेडी हॉल में लड़कियों को स्कार्फ़ और पुरुषों के लिए टोपी पहनने की परंपरा है। जब नसीरुद्दीन ने बोलना शुरू किया तो लोगों ने टोपी-टोपी की आवाज़ लगाई। नसीर कुछ देर तक चुप रहे। जब आवाज़ ख़त्म हुई तो नसीर ने पूछा - हो गया न? उन्होंने टोपी नहीं पहनी और बोलना शुरू किया।''
वंदिता ने बताया कि नसीर ने ऐसा किया तो उन्हें अच्छा लगा कि कोई तो है जो ना भी कह सकता है। वंदिता का मानना है कि केनेडी हॉल में नसीर का इनकार करना आसान है पर उनके लिए जोखिम से भरा है।
आरोपों से इंकार
हालांकि अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के पीआरओ उमर ख़लील पीरज़ादा इन आरोपों को सिरे से ख़ारिज करते हैं। उन्होंने कहा कि इस यूनिवर्सिटी में 25 फ़ीसदी से ज़्यादा ग़ैर-मुसलमान स्टूडेंट पढ़ते हैं और उनके साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाता है।
उन्होंने कहा, ''रमज़ान के महीने में होस्टल में रहने वाले उन छात्रों से आवेदन मांगा जाता है जो खाना चाहते हैं। इसमें वे मुस्लिम भी होते हैं जो रोज़ा नहीं रखते हैं और ग़ैर-मुस्लिम भी। इनके लिए खाने की अलग से व्यवस्था की जाती है। जो कैंटीन चलाते हैं वो भी रोज़ा रखते हैं ऐसे में ज़्यादातार लोग कैंटीन दिन में बंद कर देते हैं। फास्टिंग में वे काम नहीं कर सकते। लेकिन कैंपस में खाने की कोई दिक़्क़त नहीं होती है क्योंकि हम अलग से व्यवस्था करते हैं। डॉक्टरों का रेजिडेंट मेस भी खुला रहता है।''
पीरज़ादा ने कहा कि कैंपस का माहौल भारत की साझी संस्कृति का हिस्सा है और उसी के अनुरूप है। उन्होंने कहा कि यहां किसी पर किसी भी तरह का दबाव नहीं डाला जाता है।
हालांकि वंदिता ने कहा कि यहां के कैंपस में लड़कियां काफ़ी सुरक्षित हैं। उन्होंने कहा कि कोई फ़ब्तियां नहीं कसता है और न ही बदतमीजी करता है। एक सेक्युलर स्टेट की यूनिवर्सिटी में धार्मिक गतिविधियों के लिए कितनी जगह होनी चाहिए? इस पर फ़ैसल फ़ारूक़ी ने कहा कि यह अल्पसंख्यक यूनिवर्सिटी है और इस बात की आप उपेक्षा नहीं कर सकते हैं।