अशोक गहलोत, सरदारपुरा का सियासी सरदार, कितना असरदार?

BBC Hindi

शुक्रवार, 24 नवंबर 2023 (07:57 IST)
त्रिभुवन, वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी के लिए
आज से 50 साल पहले जोधपुर से साठ किलोमीटर दूर छोटे से कस्बे पीपाड़ का दृश्य, 20-22 साल का एक युवक छोटी-सी दुकान पर खाद और बीज बेचने का काम शुरू करता है। अतिरिक्त विनम्रता में डूबा लड़का साइकिल पर सब्ज़ियों से भरा थैला लादे घंटी बजाता चलता है।
 
हरित-क्रांति के उस प्रारंभिक दौर में खाद-बीज की दुकानों के खुलने का सिलसिला मारवाड़ में भी शुरू हो गया था, इस युवक ने भी ऐसा ही किया, ग्राहकों के इंतज़ार में बैठा युवक दोनों कुहनियों के बल पर हथेलियों में चेहरा रखे अक्सर सोच में डूबा रहता।
 
लेकिन तब किसी ने सोचा भी नहीं था कि एक दिन यही युवक राजस्थान की राजनीति का अग्रणी चेहरा बनकर उभरेगा।
 
पीपाड़, बूचकला, जाटियाबास, बंकालिया, सिंधीपुरा जैसे इलाकों के 80 पार वाले बूढ़े-बुज़ुर्ग राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के इस तरह के कई क़िस्से सुनाते हैं।
 
गहलोत ख़ुद दो दिन पहले इसी शहर में थे और कह रहे थे, "पीपाड़ शहर में 50 साल पहले मैंने खाद-बीज की एक दुकान खोलकर काम करना शुरू किया था और जनता के आशीर्वाद से यहां तक का मुकाम हासिल किया है। आज उसी पीपाड़ शहर में वापस लौटने पर फिर से वही प्यार एवं आशीर्वाद मिला है, यही मेरे जीवन की कमाई है।"
 
लेकिन उनकी कमाई इतनी भर नहीं है, आप अगर जयपुर से हर मामले में डाह रखने वाले दूसरे सबसे बड़े शहर जोधपुर के सरदारपुरा इलाके़ में जाएंगे तो साफ़ महसूस करेंगे कि भाजपा के भी कुछ लोग गहलोत को जीतता हुआ देखना चाहते हैं।
 
वजह? वे मुख्यमंत्री हैं और वे जोधपुर के लिए क्या नहीं कर सकते? प्रदेश की राजनीति में पूरब और पश्चिम को सहजता से जोड़ने वाला यह नेता 'जादूगर' कहलाता है।
 
सांसद से बने मुख्यमंत्री
मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्हें विधानसभा का उप-चुनाव लड़ना पड़ा तो उनके उन्हें अपने लिए सबसे बेहतर सीट सरदारपुरा लगी।
 
उन्होंने इसके लिए इसी क्षेत्र से तीन बार के विधायक मानसिंह देवड़ा को इस्तीफा देने के लिए मनाया या देवड़ा ने इस्तीफा देकर उनके लिए राहें आसान कर दीं, चुनाव जीतने के बाद देवड़ा को राजस्थान हाउसिंग बोर्ड का चेयरमैन बनाया गया और कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया गया।
 
जोधपुर शहर से पांच बार सांसद रहे गहलोत सरदारपुरा से पांच बार लगातार विधायक चुने गए और अब छठी बार फिर जीत की उमंगों में हैं।
 
इस सीट पर उनकी जीत की वजह?
राजनीति के एक युवा विश्लेषक जवाब देते हैं, "माली-मुसलमान की सोशल इंजीनियरिंग, छत्तीस कौमों को साधने का पुराना अभ्यास, पक्का बूथ और वोटर मैनेजमेंट, विकास के काम और निरंतर सक्रियता, इन सबका एक मिला-जुला असर है।"
 
भाजपा उनके सामने कई बार हौसले हार चुकी है लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव में पहला मौका था जब भाजपा के गजेंद्रसिंह शेखावत ने उनके बेटे वैभव गहलोत को हराकर दिखाया कि उन्हें चुनौती दी जा सकती है।
 
इस बार गहलोत के ख़िलाफ़ भाजपा ने जोधपुर विकास प्राधिकरण के पूर्व चेयरमैन और विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर महेंद्रसिंह राठौड़ को उतारा है, जो तुलनात्मक रूप से कमज़ोर प्रत्याशी माने जा रहे हैं।
 
इस सीट पर इस बार भी गहलोत की जीत को लगभग तय माना जा रहा है। लेकिन उनकी राजनीति को लेकर पहली बार कई सवाल भी उठ रहे हैं।
 
गहलोत के खिलाफ बगावत
उनके क़रीबी और हमशक्ल होने के कारण चर्चित रहे रामेश्वर दाधीच उनका साथ छोड़कर पहले सूरसागर सीट से बागी हुए और बाद में भाजपा उम्मीदवार के पक्ष में चुनाव मैदान से हट गए, गहलोत के नजदीकी सुनील परिहार भी विद्रोही हो गए हैं और वे शिवाना से चुनाव लड़ रहे हैं।
 
जोधपुर में रहने वाले नामी साहित्यकार सत्यनारायण कहते हैं, "गहलोत ने कमाल काम किए हैं, लोग उन्हें बहुत पसंद करते हैं, भाजपा के लोग भी उनके मुरीद हैं और लेफ़्ट के भी, लेकिन इस बार उनके अपने लोग बहुत छिटक गए हैं, विश्वविद्यालय के रिटायर्ड लोग बहुत नाराज़ हैं, क्योंकि उन्हें तीन-तीन महीनों तक पेंशन की राशि नहीं मिलती और वे मुख्यमंत्री से मिलने की कोशिश करते हैं तो गहलोत का सरकारी अमला उन्हें उन तक पहुँचने नहीं देता, लेकिन उनके सामने उम्मीदवार कमज़ोर है।"
 
सत्यनारायण का कहना है, "इस बार एक और सवाल बहुत गूंज रहा है और वह यह कि गहलोत ने पिछली बार सूरसागर से प्रोफ़ेसर अयूब खान को टिकट दिया था, वे हार गए।"
 
"इस बार उन्हें राजस्थान लोक सेवा आयोग का सदस्य ऐसे क्षणों में बनाया गया, जब चुनाव आचार संहित लगने जा रही थी, लोग तब और हैरान हुए जब प्रोफ़ेसर अयूब के बेटे को सूरसागर से टिकट दे दिया, आख़िर एक ही व्यक्ति पर इतनी मेहरबानी क्यों?"
 
सूरसागर से इस बार भाजपा की नेता सूर्यकांता व्यास का टिकट कट गया है लेकिन वे गहलोत की तारीफ़ें शुरू से ही मुक्त कंठ से करती रही हैं। ऐसा करने वाली वे अकेली नहीं हैं, विपक्ष में उनके प्रशंसक बड़ी तादाद में हैं।
 
गहलोत गांधीवादी माने जाते हैं, लेकिन इस बार उन्होंने अपने आपको एक नए अंदाज के नेता के रूप में खड़ा किया है। वे अब "इक बगल में सूर्य होगा, इक बगल में गारंटियां, राजस्थान के बच्चे दुनिया से जुड़ेंगे, गारंटी है इंग्लिश मीडियम में फ्री पढ़ेंगे" जैसे ट्वीट करके चौंकाते हैं।
 
राजस्थान में इस बार उन्हें भले संगठन के भीतर सचिन पायलट की चुनौती मिली हो, बाहर से भाजपा की चुनौती, उन्होंने जो तत्परता और राजनीतिक कौशल दिखाया, वह उनका एक नया रूप था, उनकी भाषा की धार बदली और प्रशासन का अंदाज भी।
 
कुछ ऐसे मौके़ भी आए, जब उन्हें उनकी भाषा के लिए आलोचना का शिकार होना पड़ा, उनके कई प्रशंसकों ने भी माना कि उन्हें इस तरह की भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए था।
 
भाजपा ने दलित उत्पीड़न के आरोपी विधायक को टिकट दिया तो वे कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को साथ लेकर पीड़ित से मिलवाने अस्पताल पहुंच गए।
 
अलबत्ता, जोधपुर के सरदारपुरा शहर में उनके खिलाफ चुनाव लड़ने वाले राजेंद्रसिंह सोलंकी हों या राजेंद्र गहलोत, मेघराज लोहिया हों या महेंद्र कुमार झाबक या फिर शंभुसिंह खेतासर, किसी के साथ भी उनकी कटुता नहीं रही है, लेकिन भाजपा में उभरे नए शक्ति केंद्र गजेंद्रसिंह शेखावत के साथ उनके रिश्ते की कड़वाहट दिखती है।
 
विश्लेषकों का कहना है कि गहलोत अब से पहले जाति या धर्म की राजनीति नहीं की लेकिन यह पहला मौक़ा है जब उन्होंने कुछ जगहों पर प्रतीकात्मक रूप से अपनी जाति के मतदाताओं को संदेश देने की कोशिश की है।
 
उन्होंने बेहद सावधानी से अपने आपको सियासत में ऐसा बाग़बान बताया, जो बाग की ख़ूबसूरती के लिए हर पौधे और हर पेड़ का ख़याल रखता है, उनका इशारा ख़ुद की माली जाति की ओर था।
 
उनके आलोचक कहते हैं कि गहलोत जब सियासी बगिया की बात करते हैं तो उनके हाथों में एक अदृश्य कैंची भी रहती है, जिससे वे ऐसे पौधों की कांट-छांट समय रहते ही कर देते हैं, जो आने वाले समय में इस बाग़ में उनसे बड़ा होने की कोशिश कर सकें!

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