वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछले हफ़्ते भारत के कुछ प्रमुख सरकारी बैंकों के विलय की घोषणा की। अब इस बात पर चर्चा है कि क्या इस विलय की सच में बहुत ज़रूरत थी? भारत के मौजूदा सामाजिक-आर्थिक हालात को देखते हुए यह सवाल काफ़ी मायने रखता है। आज से पहले इतने व्यापक स्तर पर बैंकों का विलय देखने को नहीं मिला।
देश की आज़ादी के बाद 20 जुलाई 1969 को देश के 14 बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ था। उस फ़ैसले का मक़सद देश की अर्थव्यवस्था में कृषि, लघु उद्योग और निर्यात पर अधिक ध्यान देना था।
इसके साथ ही नए उद्यमियों और पिछड़े तबकों का विकास करना भी एक मक़सद था। इसके बाद 13 अन्य बैंकों का राष्ट्रीयकरण भी किया गया था। इस क़दम को भारतीय अर्थव्यवस्था के इतिहास में एक बेहद महत्वपूर्ण नीतिगत फै़सले के तौर पर देखा जाता है।
बैंकों के राष्ट्रीयकरण से पहले भारत की पूरी पूंजी बड़े उद्योगपतियों और औद्योगिक घरानों के ज़रिए ही नियंत्रित होती थी। उस व्यवस्था में बैंकों में पैसे जमा करने वाले के लिए किसी तरह की सुरक्षा की गारंटी नहीं थी।
वक़्त गुजरने के साथ-साथ बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ और साल 1991 में कई आर्थिक बदलाव किए गए, जिसके चलते देश का बैंकिंग सेक्टर अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी बन गया। इतना ही नहीं, ग्राहकों और निवेशकों में भी बैंक के प्रति भरोसा बढ़ता चला गया।
बैंकों के विलय से क्या होगा?
पब्लिक सेक्टर के बैंकों का विलय कर उनकी संख्या कम कर देने का परिणाम शायद कुछ वक़्त बाद ही दिखने लगे या हो सकता है इसका दूरगामी परिणाम भी हमारे सामने आए।
विशेषकर मानव संसाधन, रोज़गार सृजन और अर्थव्यवस्था के विकास के लिहाज़ से यह फ़ैसला काफ़ी अहम हो सकता है, लेकिन फ़िलहाल इस विलय की वजहों को साफ़ तौर पर नहीं बताया गया है।
इस विलय के बाद सबसे पहला असर मानव संसाधन पर पड़ता हुआ महसूस होता है। शायद बैंकों के विलय का फै़सला लेते वक़्त इन बैंको में काम करने वाले कर्मचारियों को नज़रअंदाज़ कर दिया गया। हर बैंक के अपने अलग नियम-क़ायदे होते हैं, काम करने का अलग ढंग होता है।
उदाहरण के लिए, हाल ही में जिस तरह से भारतीय स्टेट बैंक ने अपनी स्थानीय ब्रांचों का विलय किया, तो उसमें अधिक समस्याएं नहीं आईं क्योंकि एसबीआई मूलतः एक तरह के नियम और आधारभूत ढांचे के तहत काम करता है।
लेकिन पब्लिक सेक्टर के इन अलग-अलग बैंकों के मिलने से वहां काम करने वाले कर्मचारियों को कई तरह के बदलावों का सामना करना पड़ेगा। यह चुनौती इन बैंकों में नेतृत्व के स्तर पर भी देखने को मिलेगी।
एनपीए की समस्या सुलझेगी?
अगला बड़ा सवाल यह है कि क्या इस विलय के बाद बैंकों के नॉन परफॉरमिंग एसेट यानी एनपीए की समस्या सुलझ जाएगी, या उस लोन पर नियंत्रण लग पाएगा जिसके वापिस मिलने की उम्मीद कम ही है। क्या इस फ़ैसले से बैंकों की काम करने की क्षमता में कुछ सुधार होगा।
भारत की अर्थव्यवस्था इस समय तीन प्रमुख समस्याओं का सामना कर रही है-
1. अर्थव्यवस्था में सुस्ती है, जीडीपी 5 प्रतिशत या उससे भी नीचे चली गई है। यह दर्शाता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था मंदी की तरफ़ बढ़ रही है।
2. बैंकों का बहुत ख़राब प्रदर्शन. बैंकों का एनपीए बहुत ज़्यादा हो गया है और उसके वापिस आने की उम्मीद भी बहुत कम है।
3. देश में बेरोज़गारी की दर लगातार बढ़ रही है. यह दर्शाता है कि भारत अपनी विविधता से भरी जनसंख्या का सही लाभ नहीं उठा रहा, जनसंख्या में बहुलता की बात चुनाव के वक़्त काफ़ी इस्तेमाल किया गया।
कौन से मुद्दे बरक़रार हैं?
खैर अभी तक तो यह साफ़ नहीं है कि बैंकों के इस विलय से ऊपर बताई गई समस्याओं का हल निकलेगा या नहीं।
बीते कुछ समय में सरकारी और निजी दोनों ही सेक्टर के बैंकों में एनपीए बहुत अधिक बढ़ गया है. निजी बैंकों में इस एनपीए को हासिल करने की दर सरकारी बैंकों के मुक़ाबले थोड़ा बेहतर है।
इसकी मुख्य वजह यह है कि प्राइवेट सेक्टर के बैंकों की वसूली प्रक्रिया बहुत ही सख्त होती है, जिसमें बहुत ही सूक्ष्म स्तर तक क़र्ज़दाता पर नज़र रखी जाती है। वहीं सरकारी बैंक में इस तरह की प्रक्रिया नहीं अपनाई जाती। यह दिखाता है कि पब्लिक सेक्टर के बैंकिंग सिस्टम में भी कई तरह के बदलावों की ज़रूरत है।
एक सवाल यह भी उठता है कि क्या बड़े बैंकों के विलय से उनके काम करने की क्षमता बेहतर हो जाएगी। इसका पहला फ़ायदा तो यह हो सकता है कि बैंकों के काम का स्तर और बढ़ सकता है जिसमें क़र्ज़ देने की क्षमता और निवेश भी शामिल होगा।
वर्तमान में बैंकिंग सिस्टम में चल रहे संकट को दूर करने के लिए चार प्रमुख मुद्दों पर ध्यान देने की ज़रूरत है।
अगर कोई शख़्स बैंक से बड़ा क़र्ज़ लेता है और उसे चुकाने में नाकाम रहे तो उस क़र्ज़ का पूरा बोझ बैंक के ऊपर ही ना आ जाए जैसा कि विजय माल्या और नीरव मोदी के मामलों में हुआ। बड़े क़र्ज़ देते समय बैंक अधिक सख्ती बरतें और नियमों का अधिक ध्यान रखें। जब भी कोई बड़ा कर्ज़ नहीं चुकाता तो उसका भार अकेले बैंक पर पड़ जाता है जिसका असर बाद में अर्थव्यवस्था पर पड़ता है।
बैंक अपने ग्राहकों के बारे में अधिक जानकारियां जुटाए, ग्राहकों के साथ बेहतर नेटवर्क स्थापित करे।
बैंक में लाभ को बढ़ाने और जोखिम की संभावनाओं को कम करने के लिए अधिक कुशलता और निपुणता लाने की ज़रूरत है।
वैश्विक बैंकिग सिस्टम और तकनीक में लगातार हो रहे बदलावों के हिसाब से ख़ुद को बदलते रहना चाहिए।
कुल मिलाकर देखें तो बैंकों के विलय से अलग-अलग बैकों के काम करने के तौर-तरीक़ों में समानता देखने को मिल सकेगी। वैसे बैंकों को भी अपने आधारभूत ढांचे में परिवर्तन की ज़रूरत है।
यह भी माना जा सकता है कि इस विलय के दूरगामी परिणामों के तौर पर रोज़गार की उम्मीद लगा रहे युवाओं पर असर पड़े। हो सकता है कि इसके चलते आने वाले वक़्त में बेरोज़गारी और बढ़ जाए। इसके दो प्रमुख कारण हैं।
पहला, बैंकों में नए पद तैयार नहीं होंगे. दूसरा, जो मौजूदा पद हैं उनमें अधिक लोग हो जाएंगे।
खैर, वैसे तो सरकार ने यह भरोसा दिलाया है कि इस फ़ैसले की वजह से किसी की नौकरी नहीं जाएगी। लेकिन कुछ वक़्त बाद हर विभाग में लोगों की संख्या अधिक ज़रूर महसूस होने लगेगी. वहीं दूसरी तरफ़, बैंकों के कुछ ब्रांच कम हो जाने से उन्हें चलाने पर होने वाला खर्च भी बचेगा।
रोज़गार के मौक़ों में कमी का असर लंबे वक़्त में अर्थव्यवस्था पर देखने को मिलेगा। इसलिए मौजूदा वक़्त की यह मांग है कि लोगों के लिए रोज़गार के नए रास्ते तैयार किए जाएं। अगर ऐसा नहीं होता है तो दोबारा 8 प्रतिशत की जीडीपी हासिल करना एक बहुत बड़ी चुनौती बन जाएगा। यही वजह है कि बड़े सरकारी बैंकों का विलय कर देना ही मौजूदा आर्थिक संकट का हल नहीं है।
(गार्गी सन्नति नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ बैंक मैनेजमेंट (एनआईएमबी), पुणे में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं। इस लेख में व्यक्त विचार उनके निजी विचार हैं।)