बीजेपी सत्ता में है तब से RSS में कितना बदलाव आया

BBC Hindi
शनिवार, 8 अक्टूबर 2022 (07:52 IST)
-फ़ैसल मोहम्मद अली, बीबीसी संवाददाता, नागपुर से
 
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर एक नज़र
आठ सालों के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के मुख्यालय में लौटने पर काफ़ी कुछ बदला हुआ दिखाई देता है, ये वही आठ साल हैं जब से आरएसएस के वैचारिक मार्गदर्शन में चलने वाली भारतीय जनता पार्टी अपने दम पर बहुमत हासिल करके केंद्र में सत्ता में है।
 
यह बदलाव सिर्फ़ स्वयंसेवकों की पोशाक (गणवेश) तक सीमित नहीं है, 'ख़ाक़ी निकर' की जगह 'फुल पैंट' ने ले ली है, और अब उसका रंग गहरा भूरा हो गया है, लेकिन यह ऊपर से दिखने वाला बदलाव है, कई बदलाव और भी हो रहे हैं।
 
नागपुर के रेशिम बाग में आरएसएस मुख्यालय परिसर में कई नई इमारतें खड़ी हो गई हैं, जगह-जगह कमांडो घूम रहे हैं, परेड में शामिल स्वयंसेवकों की तादाद में शायद मामूली बढ़ोतरी हुई है लेकिन मेहमानों की कुर्सियाँ कम-से-कम चार से पाँच गुना बढ़ गई हैं।
 
1925 में विजयदशमी के दिन स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक तीन साल बाद अपनी 100वीं वर्षगांठ मना रहा होगा, विजयदशमी हर साल संघ के लिए बड़ा दिन होता है जब पूरे उत्साह के साथ देश भर के स्वयंसेवक प्रतिनिधि नागपुर में विशेष आयोजन के लिए जुटते हैं।
 
इस बार के आयोजन में एक और अहम बदलाव था, मुख्य अतिथि एक महिला पर्वतारोही संतोष यादव को बनाया जाना। चमचमाती बीएमडबल्यू कार के पीछे-पीछे जब संघ प्रमुख की टाटा सफ़ारी स्टेज के सामने पहुँची तो उनके साथ संतोष यादव भी थीं, लाल रंग के डिज़ाइन वाली सफेद साड़ी पहने, सिर आँचल से ढँका हुआ।
 
संतोष यादव ने अपने एक संक्षिप्त भाषण में कहा, "बिना किसी को जाने द्वेष नहीं रखना चाहिए और बोलीं कि सभी भारतीयों की ज़िम्मेदारी है कि वो विश्व में सनातन संस्कृति का प्रचार करे।"
 
मीडिया और महिला सहभागिता पर ज़ोर
अक्सर इस बात के लिए संघ की आलोचना होती है कि उसमें महिलाओं को सदस्यता नहीं दी जाती है, वह केवल पुरुषों का संगठन है। इसके जवाब में संघ का कहना रहा है कि महिलाओं का एक अलग संगठन है जिसका नाम राष्ट्रसेविका समिति है।
 
ख़ुद को सांस्कृतिक संगठन कहने वाले संघ के नेता स्त्री-पुरुष के बीच काम के परंपरागत बँटवारे के हामी रहे हैं, जिसका मतलब एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था से है, जिसमें पुरुष बाहर का काम करें और स्त्रियाँ घर और बच्चे संभालें, लेकिन अब संघ महिलाओं के प्रति अपने रुख़ में लचीलापन दिखा रहा है।
 
आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने अपने घंटे भर के भाषण की शुरुआत में ही कहा कि 'मातृशक्ति के रूप में सम्मानित' महिलाओं का आरएसएस के मंच पर हमेशा से स्वागत रहा है।
 
उन्होंने कांग्रेस सासंद रहीं अनसुइया बाई काले और पूर्व केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री राजकुमारी अमृत कौर का हवाला दिया जिन्होंने 1930 के दशक में संघ के कार्यक्रमों में हिस्सा लिया था।
 
लेकिन ग़ौर करने वाली बात ये है कि संतोष यादव पहली महिला हैं जिन्हें स्थापना दिवस के कार्यक्रम में मुख्य अतिथि होने का सम्मान मिला है, और यह उसी बदलाव को दिखाने का सोचा-समझा फ़ैसला लगता है।
 
एक दौर था जब संघ प्रचार पर ख़ास ध्यान दिए बिना 'समाजिक कार्यों के प्रति समर्पित सांस्कृतिक संगठन' की छवि पेश करता था। लेकिन अब इस मामले में संघ की नीति में बदलाव दिखता है। मसलन, बीजेपी के सरकार में आने के बाद से संघ के कई बड़े कार्यक्रमों का दूरदर्शन ने सीधा प्रसारण किया है, इस बार भी ऐसा ही हुआ। इसके अलावा, कई निजी वेबसाइटों, सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्मों, संघ और बीजेपी से जुड़े ट्विटर हैंडलों, फेसबुक पन्नों और यूट्यूब चैनलों पर इस आयोजन को लगातार दिखाया जा रहा था।
 
संघ को क़रीब से जानने वाले इसे प्रचार-प्रसार में टेकनोलॉजी के भरपूर प्रयोग की रणनीति के तौर पर देखते हैं।
 
साल 2014 में जब पहली बार सरकारी टीवी चैनल दूरदर्शन ने संघ के विजयदशमी कार्यक्रम को लाइव दिखाया था तो इसे लेकर ये सवाल खड़ा हुआ था कि क्या किसी ख़ास विचारधारा वाले ग़ैर-सरकारी संस्था के निजी कार्यक्रम को सरकारी मीडिया से प्रसारित किया जाना नैतिक रूप से उचित है? लेकिन पिछले आठ सालों में माहौल इतना बदला है कि यह बहस बेमानी-सी हो गई है और लोगों ने 'न्यू-नॉर्मल' मानकर इस पर चर्चा करनी बंद कर दी है।
 
मीडिया मामलों के जानकार और लेखक डॉ। मुकेश कुमार कहते हैं, "दूरदर्शन का इस्तेमाल हमेशा से सरकारी भोंपू की तरह होता रहा है, राजीव गांधी के ज़माने में दूरदर्शन को लोग राजीवदर्शन कहने लगे थे लेकिन उस दौर में भी कांग्रेस पार्टी की गतिविधियों का प्रचार-प्रसार उस पर देखने को नहीं मिलता था। एक ग़ैर-सरकारी संगठन के कार्यक्रमों और उसके प्रमुख के संबोधन के सीधे प्रसारण को उचित ठहराना असंभव बात है, लेकिन अब इस पर चर्चा या बहस बंद हो चुकी है, यह सत्ताधारी पार्टी के पैतृक संगठन का कार्यक्रम है जिसे न दिखाने की हिम्मत सरकारी प्रसारक कैसे कर सकता है?"
 
सामाजिक विषमता और बेरोज़गारी पर चर्चा
विजयदशमी से कुछ ही दिन पहले संघ के महासचिव दत्तात्रेय होसाबले ने ग्रामीण भारत में बेरोज़गारी हटाने की दिशा में काम करने पर ज़ोर दिया था। उन्होंने ये भी कहा था कि भारत में अब भी करोड़ों लोग बहुत गरीबी की हालत में जीवन गुज़ार रहे हैं जिनका दशा में सुधार प्राथमिकता होनी चाहिए। (Link here)
 
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बयानों-भाषणों में 'राष्ट्रीय एकता', 'समरसता', 'भारतीय संस्कृति', 'गौरवशाली इतिहास', 'महान परंपरा', 'भारत माता के वैभव', 'हिंदू धर्म की महानता', 'विश्व गुरु' आदि पर भरपूर ज़ोर रहता आया है, लेकिन यह एक बदलाव ही है कि संघ के मंच से शायद पहली बार सामाजिक विषमताओं और ग़रीबी-बेरोज़गारी जैसे मुद्दों की बातें हो रही हैं।
 
सामाजिक न्याय की बातें संघ के मंच से शायद ही कभी सुनने को मिलती हैं, जाति पर आधारित भेदभाव की बातें करने वालों को ही अक्सर जातिवादी करार दे दिया जाता है, लेकिन अपने विजयदशमी के भाषण में जातियों का नाम लिए बग़ैर मोहन भागवत ने 'घोड़ी चढ़ने' की बात इस संदर्भ में कही कि अब इस तरह के विवाद हिंदू समाज में नहीं होने चाहिए।
 
ये भी दिलचस्प है कि कुछ ही दिनों पहले संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने दिल्ली में एक मस्जिद और मदरसे का दौरा किया था जिसके बाद बताया गया था कि 'संघ हमेशा सभी समुदायों से संवाद का पक्षधर रहा है।'
 
मोहन भागवत के भाषण में समाज में बराबरी की बातें सुनने को मिलीं और 'तथाकथित अल्पसंख्यकों' को आश्वस्त करने की कोशिश की भी चर्चा हुई, उन्होंने संविधान की मर्यादा क़ायम रखने की सलाह भी दी , इन सभी बातों को संघ में बदलाव के संकेतों के तौर पर देखा जा सकता है।
 
संघ में नयापन लाने की कोशिश को लेकर लोगों की राय बँटी हुई है, जहाँ समाजशास्त्री बद्री नारायण इसे मंथन मानते हैं, जो उनके हिसाब से सकारात्मक दिशा में जा रहा है। वहीं लेखक और राजनीतिक विश्लेषक निलांजन मुखोपाध्याय इसे सांकेतिक भर मानते हैं क्योंकि उनके मुताबिक़, 'मुस्लिम-विरोधी भावनाएँ पिछले सालों में और बलवती हुई हैं', तो दैनिक भास्कर अख़बार के समूह संपादक प्रकाश दुबे आरएसएस की तुलना 'पिंजरे में फँस गई चिड़िया' से करते हैं जो बाहर नहीं निकल पा रही है।
 
प्रकाश दुबे कहते हैं, "जिस तरह से विचारों की दीवार संघ के ईर्द-गिर्द खड़ी हो गई है, उसको तोड़कर बाहर निकल पाना बहुत मुश्किल दिखता है।"
 
बदलाव कितना वैचारिक, कितना तकनीकी
संगठन के भीतर बदलाव, या उसकी प्रक्रिया को दो अलग-अलग हिस्सों में देखा जा सकता है -पहला, तकनीकी तौर पर सक्षम होने का प्रयास, दूसरा वैचारिक बदलाव।
 
बद्री नारायण अपनी किताब 'रिपब्लिक ऑफ हिंदूत्व, हाउ द संघ इज़ रिशेपिंग इंडियन डेमोक्रेसी' में लिखते हैं, "आरएसएस को लेकर हमारी धारणा है कि उसके सभी वॉलंटियर्स बूढ़े, दक़ियानूस और आज की दुनिया से कटे हुए लोग हैं। ये बात सच्चाई से कोसों दूर है। उसके स्वयंसेवक लगातार टेक्नॉलोजी में दक्षता हासिल करते जा रहे है। सोशल मीडिया पर वो बड़े पैमाने पर मौजूद हैं और अपने संदेश को फैलाने के लिए वो इसका इस्तेमाल बढ़-चढ़कर कर रहे हैं।"
 
जीबी पंत सोशल साइंस इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर बद्री नारायण का कहना था कि कोरोना महामारी के दौर में जिस तरह समाज के दूसरे वर्गों, कार्यालयों और संगठनों में सोशल मीडिया, ज़ूम वग़ैरह का इस्तेमाल बैठकों, विचार-विमर्श के लिए बढ़ा है, उसी तरह के बदलाव संघ में भी हुए हैं।
 
तकनीक का इस्तेमाल संगठन से युवा लोगों को जोड़ने के लिए साल 2011 से ही चल रहा है 'ज्वाइन आरएसएस' कार्यक्रम के तहत यह अभियान चल रहा है, आरएसएस के वरिष्ठ नेता और प्रचार प्रमुख डॉ। सुनील आंबेकर के मुताबिक़ सालाना सवा लाख लोग इंटरनेट के माध्यम से आरएसएस की आधिकारिक बेवसाइट पर मौजूद आवेदन-पत्र भरते हैं जिन्हें उनकी रुचि-इच्छा के अनुसार अलग-अलग कामों में लगाया जाता है।
 
संघ की आधिकारिक बेवसाइट के अनुसार गाँव-शहर में हर रोज़ 57 हज़ार से ज़्यादा शाखाएँ लगती हैं, ये शाखाएँ संघ से जुड़े सक्रिय लोगों की सबसे छोटी और स्थानीय इकाइयाँ हैं।
 
'आरएसएस रोडमैप फ़ॉर ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी' नाम की किताब लिख चुके डॉ। सुनील आंबेकर कहते हैं कि इसके अलावा आईटी प्रोफेशल्स को ध्यान में रखते हुए हमने कार्यक्रम शुरु किए हैं जिनका उद्देश्य संघ के प्रचार-प्रसार में टेक्नोलॉजी का बेहतर इस्तेमाल सुनिश्चित करना है।
 
सक्रियता, सामर्थ्य और स्वीकार्यता बढ़ी
बीजेपी के सत्ता में आने के बाद से संघ के आर्थिक संसाधनों में बढ़ोत्तरी हुई है या नहीं, यह पक्के तौर पर कहना संभव नहीं है क्योंकि अन्य ग़ैर-सरकारी संगठनों की तरह संघ एक पंजीकृत बॉडी नहीं है, सभी रजिस्टर्ड संस्थाओं को अपने बही-खातों का हर साल हिसाब देना होता है लेकिन संघ के मामले में ऐसा नहीं है। आर्थिक संसाधनों के मामले में पारदर्शिता के अभाव की वजह से भी संघ को आलोचनाओं का सामना करना पड़ता है।
 
बीजेपी के सत्ता में आने के बाद संघ के संसाधनों के बारे में कुछ कहना भले मुश्किल हो लेकिन उसकी स्वीकार्यता काफ़ी बढ़ी है, एक समय सेकुलर पार्टियाँ उससे भरपूर दूरी बनाकर रखती थीं लेकिन पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने संघ की मेज़बानी स्वीकार करके इस बात के संकेत दिए कि वह ऐसी ताक़त नहीं है जिसे नज़रअंदाज़ किया जा सके।
 
'फ्रेंडस ऑफ़ आरएसएस', विश्व हिंदू परिषद जैसी संस्थाओं ने विदेशी धरती पर भी हिंदुत्व की विचारधारा के प्रचार-प्रसार का काम काफ़ी समय से जारी कर रखा है।
 
हालांकि इसका विरोध भी हो रहा है और अमरीका में ही कई सांसदों और संगठनों से इन पर प्रतिबंध लगाने की मांग उठाई है और ये भी इल्ज़ाम लगाया है कि आरएसएस-वीएचपी जैसे संगठन उनकी चुनावी और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में दख़ल देने की कोशिश कर रहे हैं।
 
गहरी और पैनी पकड़ बनाने पर काम
संघ को करीब से जानने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं कि संघ ऊपर से जितना दिखाई देता है उससे कहीं बड़ा और गहरा उसका असर है। दुनिया के सभी बड़े शहरों से लेकर सुदूर गाँवों तक, वकीलों, डॉक्टरों, छात्रों से लेकर संतों-महंतों और कीर्तन मंडलियों तक में संघ से जुड़े लोग सक्रिय हैं। राष्ट्रीय मुस्लिम मंच हो या आदिवासियों के बीच काम करने वाले वनवासी कल्याण केंद्र, सब जगह संघ की विचारधारा में विश्वास रखने वालों की मौजूदगी है।
 
चालीस से अधिक संगठन सीधे तौर पर संघ से जुड़े हैं, इसके अलावा सैकड़ों ऐसी संस्थाएँ और समूह हैं जो संघ के एजेंडा को आगे बढ़ाने में जुटे हैं, मिसाल के तौर पर, सरस्वती शिशु मंदिर जो सीधे तौर पर संघ से जुड़ा नहीं है लेकिन उसकी विचारधारा का प्रसार बच्चों में करता है।
 
बद्री नारायण ने 'रिपब्लिक ऑफ हिंदुत्व' में लिखा है कि गाँव-गाँव में स्वयंसेवकों के होने की वजह से लोगों के विचारों को प्रभावित करने और उनके बारे में सही जानकारी जुटाने में बीजेपी को बहुत मदद मिलती है।
 
2014 और 2019 चुनाव में बूथ मैनेजमेंट समितियाँ तैयार की थीं, जिसमें जाति-समुदाय के प्रतिनिधित्व का भी ध्यान रखा गया, प्रशिक्षण के बाद इन लोगों को इलाक़े हवाले कर दिए गए जहाँ वो हर दिन अलग-अलग घरों में जाते, लोगों की राय भांपते और अगर कोई नरेंद्र मोदी ने नाराज़ दिखता या प्रभावित नहीं पाया जाता तो उसे समझा-बुझाकर रास्ते पर लाने का प्रयास जारी रहता।
 
बदलाव कितना ऊपरी, कितना वास्तविक?
निलांजन मुखोपाध्याय आरएसएस में परिवर्तन के सवाल पर कहते हैं, "वो ख़ुद में परिवर्तन कर नयापन किस तरह ला सकते हैं उनकी पूरी बहस अब भी पुराने मुद्दों पर ही टिकी है और पिछले आठ सालों में इस तरह की विचारधारा को लेकर लोग और सख़्त ही हुए हैं, उदार नहीं।"
 
मुखोपाध्याय कई उदाहरण देते हैं, मसलन, केंद्र मे नरेंद्र मोदी की पहली सरकार बनने के फौरन बाद कई राज्यों ने गौवध को लेकर क़ानून को बहुत सख़्त बना दिया जिसका नतीजा कई बार ये हुआ कि जानवरों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाना तक मुश्किल हो गया। देश के कई हिस्सों में मवेशी के व्यापारियों को गो-तस्कर होने के आरोप में पीट-पीटकर मारा जा चुका है।
 
इसी तरह, अंतर-धार्मिक विवाहों को मुश्किल बनाने वाले कई क़ानून भाजपा शासित राज्य सरकारों ने पारित किए हैं। कोरोना के लिए न सिर्फ़ मुस्लिम संगठन तबलीग़ी जमात को ज़िम्मेदार ठहराया गया, फिर उसी नाम पर मुस्लिम व्यापारियों के बहिष्कार की बात कही गई। कुछ समय बाद सुप्रीम कोर्ट ने इसे तबलीग़ी जमात को बदनाम करने की साज़िश बताया और दिल्ली पुलिस को इसके लिए कड़ी फटकार लगाई।
 
बुधवार को मोहन भागवत के भाषण का हवाला देते हुए निलंजन मुखोपाध्याय कहते हैं, "आज भी जनसंख्या को लेकर उसी तरह के तर्क दिए गए कि हिंदूओं की तादाद कम हो जाएगी, वो भारत में अल्पसंख्यक हो जाएँगे, दरअसल, आरएसएस की दिक्क़त है कि वो अपनी आउटडेटेड बातों को ग़लत नहीं मानते, बल्कि कहते हैं कि हम समय के अनुसार चल रहे हैं।"
 
हालाँकि सरकार ने 2021 में जनगणना नहीं करवाई है, सरकारी आंकड़े बताते हैं कि हाल के सालों में दूसरे समुदायों के मुक़ाबले मुसलमानों में प्रजनन-दर तेज़ी से गिरी है, लेकिन अब भी संघ से जुड़े लोग मुसलमानों के अधिक बच्चे पैदा करने की बातें सार्वजनिक मंचों से करते रहते हैं।
 
मोहन भागवत ने अपने भाषण में कहा कि जनसंख्या का नया नियम लाया जाना चाहिए जो सब पर समान रूप से लागू हो। उन्होंने कहा कि धार्मिक आधार पर जनसंख्या का असंतुलन देशों की एकता और अखंडता के लिए ख़तरा पैदा करता है, उन्होंने मुसलमानों का नाम नहीं लिया, लेकिन वे कथित तौर पर तेज़ी से बढ़ती मुसलमान आबादी की ही ओर इशारा कर रहे थे।
 
'द आरएसएस: आइकन्स ऑफ इंडियन राईट' और 'नरेंद्र मोदी, द मैन, द टाइम्स' जैसी किताबों के लेखक निलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं, "कहने और करने का अंतर साफ़ दिखाई देता है, संघ के बड़े लोग कहते हैं कि उनका रवैया मुसलमान विरोधी नहीं है, लेकिन उसी संघ से जुड़े संगठनों के लोग मुसलमान कारोबारियों का बहिष्कार करने के अभियान खुलेआम चलाते हैं।"
 
संघ से लंबे समय से जुड़े रहे दिलीप देवधर मानते हैं कि "संघ विरोधाभास की पॉलिसी पर चलता है लेकिन उसके भीतर ये ऊर्जा है कि वो इस विरोधाभास को मैनेज भी कर सकता है, संघर्ष होता रहेगा मगर जब आरएसएस सीटी बजाएगा तो लोग एक लाइन में खड़े हो जाएँगे।"
 
दिलीप देवधर कहते हैं, "आरएसएस से 40 से अधिक संगठन जुड़े हैं, मज़दूरों के साथ काम करने वाले भारतीय मज़दूर संघ से लेकर स्वदेशी जागरण मंच और राजनीति के क्षेत्र में समान विचार रखने वाली भारतीय जनता पार्टी तक। इन सबके विचारों में कई बार मतभेद पैदा होता है जो बाहर भी आ जाता है लेकिन अंतत: वो सुलझ जाता है जिसमें संघ की बड़ी भूमिका रहती है, इसीलिए इसे संघ परिवार बुलाया जाता है।"
 
कुछ लोग संघ के दूसरे प्रमुख गुरु गोलवलकर की किताब 'बंच ऑफ़ थॉट्स' में से कुछ विवादास्पद हिस्सों को हटाने के फ़ैसले को सकारात्मक क़दम मानते हैं लेकिन कुछ का कहना है कि ये भी बीजेपी के समर्थन में वोट बटोरने की नीति के अलावा कुछ नहीं है। गोलवलकर की किताब में मुसलमानों और ईसाइयों को शत्रु के रूप में चिन्हित किया गया था जिसे अब हटा दिया गया है।
 
बद्री नारायण ने अपनी किताब में स्वीकार किया है कि आरएसएस का मिशन एक सांस्कृतिक नेतृत्व का निर्माण करना है जिसमें सारा हिंदू समुदाय शामिल हो। साथ ही, वैसे लोग भी जो ग़ैर-हिंदू आदिवासियों में गिने जाते हैं, और इसमें दूसरे अल्पसंख्यक समूह भी शामिल होंगे।
 
वो इस दावे को भी ख़ारिज करते हैं कि बीजेपी की जीत ने समाज से जाति व्यवस्था की समाप्ति की है और लिखते हैं कि ये जीत अलग-अलग समुदायों की लामबंदी करके हासिल की गई है जिसमें अलग-अलग जातियों-समुदायों की भिन्न-भिन्न लालसाएं हैं, जैसे जाति की पहचान, विकास और हिंदूत्व फोल्ड में शामिल होने की चाह।
 
बद्री नारायण कहते हैं, "आरएसएस को लेकर कुछ भी निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता है, ये बराबर बदलता रहता है और विकसित होता रहता है, यह अपनी इमेज को ध्वस्त कर देता है और फिर नई इमेज तैयार करता है।"
 

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