मई में जब इस बात का एलान हुआ कि कोविड-19 के मरीज़ों पर एक दवा असरदार साबित हो रही है तो इसे लेकर बड़ी उम्मीदें पैदा हो गई थीं। ये दवा रेमडेसिविर थी। यह अमेरिकी फार्मा कंपनी गिलियड की एक एंटीवायरल दवा है।
शुरुआती टेस्ट से पता चला था कि यह दवा कोरोना वायरस से संक्रमित मरीज़ों को जल्दी ठीक कर सकती है।
इस एलान के बाद पूरी दुनिया के विशेषज्ञों, डॉक्टरों और राजनेताओं ने खुद से एक सवाल पूछा। यह सवाल था कि गिलियड इस दवा के लिए कितने पैसे वसूलेगी?
उस वक़्त केवल दो दवाएं ही कोरोना वायरस के ख़िलाफ़ जंग में प्रभावी साबित होती नज़र आ रही थीं। पहली रेमडेसिविर थी जबकि दूसरी एक स्टेरॉयड डेक्सामेथासोन थी।
कुछ दिन पहले इस सवाल का जवाब मिल गया। अमरीका में बीमा कंपनियों को हर मरीज़ के पांच दिन के इलाज के लिए 3,120 डॉलर हर हालत में चुकाने होंगे।
रेमडेसिविर की क़ीमत
दूसरे विकसित देशों को प्रति इलाज के लिए 2,340 डॉलर चुकाने होंगे। गिलियड ने एक बयान में कहा कि विकासशील देशों में कंपनी जेनेरिक दवा बनाने वाली कंपनियों के साथ बातचीत कर रही है ताकि इन देशों में दवा काफी कम दाम में मुहैया कराई जा सके। हालांकि, इसमें क़ीमत के बारे में कोई जिक्र नहीं किया गया।
गिलियड के सीईओ डैनियल ओ'डे ने बयान में कहा, "हम रेमडेसिविर की क़ीमत तय करने को लेकर हमारे ऊपर मौजूद बड़ी ज़िम्मेदारी को समझते हैं।"
उन्होंने कहा, "काफी सावधानी, लंबा वक़्त और चर्चा करने के बाद हम अपना फैसला साझा करने के लिए तैयार हैं।" ये फैसला हालांकि, एक बड़े तबके की आलोचना का शिकार हुआ।
इन लोगों का मानना था कि ऐसे वक़्त में जबकि दुनिया एक स्वास्थ्य आपातकाल से गुज़र रही है, इसके इलाज में इस्तेमाल होने वाली दवा की इतनी ऊंची क़ीमत तय करना एक अपराध है।
इन्वेस्टिगेशन और डिवेलपमेंट
पीटर मेबार्डक ग़ैरसरकारी संगठन 'पब्लिक सिटिज़न' के 'एक्सेस टू मेडिसिंस' प्रोग्राम के निदेशक हैं। 'पब्लिक सिटिज़न' का मुख्यालय वाशिंगटन में है।
पीटर कहते हैं, "घमंड और आम लोगों के प्रति उपेक्षा दिखाते हुए गिलियड ने एक ऐसी दवा की क़ीमत हज़ारों डॉलर तय कर दी है जिसे आम लोगों के बीच होना चाहिए।"
जानकारों का कहना है कि दवा कंपनियों को मुनाफ़ा कमाने का पूरा हक़ है क्योंकि उन्हें किसी दवा को विकसित करने और उसका उत्पादन करने पर भारी पूंजी निवेश करनी पड़ती है।
मैड्रिड में कैमिलो जोस सेला यूनिवर्सिटी में फार्माकोलॉजी के प्रोफेसर फ्रैंसिस्को लोपेज मुनोज कहते हैं, "आपको इस तथ्य के साथ शुरू करना पड़ता है कि दवाओं का विकास एक बेहद महंगा सौदा होता है। खोज से लेकर मार्केट में आने तक किसी दवा की औसत क़ीमत क़रीब 1।14 अरब डॉलर बैठती है। इसके अलावा इसमें वक़्त भी बहुत लगता है। किसी दवा को विकसित करने में 12 साल तक का वक़्त लग सकता है और स्टडी की जा रही हर 5,000 दवाओं में से केवल एक ही बाज़ार तक पहुंच पाती है। इसके साथ ही हमें पेटेंट के एक्सपायर होने को भी देखना पड़ता है। मार्केट में आने के 20 साल बाद दवा का पेटेंट खत्म हो जाता है।"
हेपेटाइटिस-सी से कोरोना तक
हालांकि, रेमडेसिविर के साथ मामला थोड़ा अलग है। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह कोई नई दवा नहीं है। न ही गिलियड ने इसे ख़ासतौर पर कोविड-19 के लिए विकसित किया है। शुरुआत में इस दवा को हेपेटाइटिस-सी के लिए विकसित किया गया था।
जब यह पाया गया कि यह हेपेटाइटिस पर बेअसर है तो इसे इबोला वायरस के इलाज के लिए आज़माया गया, लेकिन यह वहां भी काम नहीं आई और गिलियड ने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया।
इस साल की शुरुआत में कोविड-19 के फैलने के बाद गिलियड ने इस दवा को फिर से टेस्ट करने और इसे कोरोना वायरस के ख़िलाफ़ आज़माने का फैसला किया।
इन नए क्लीनिकल ट्रायल्स पर अमरीका के नेशनल इंस्टीट्यूट्स ऑफ हेल्थ और दूसरे अंतरराष्ट्रीय संस्थानों ने पैसा लगाया था। यानी कि ये करदाताओं का पैसा था।
इसी वजह से विशेषज्ञों का कहना है कि कोरोना महामारी के दौर में आम लोगों को यह दवाई उत्पादन की लागत पर मुहैया कराई जानी चाहिए।
हद से ज़्यादा महंगी
गिलियड ने रेमडेसिविर की उत्पादन लागत का खुलासा नहीं किया है, लेकिन क्लीनिकल एंड इकनॉमिक रिव्यू इंस्टीट्यूट (आईसीईआर) के विश्लेषण से पता चला है कि प्रति मरीज़ 10 दिन के इलाज के लिए इस दवा की मैन्युफैक्चरिंग की लागत करीब 10 डॉलर बैठती है।
लेकिन, गिलियड की तय की गई नई क़ीमत के हिसाब से रेमडेसिविर अपनी पेरेंट कंपनी के लिए 2020 में 2।3 अरब डॉलर की कमाई कर सकती है। रॉयल बैंक ऑफ कनाडा ने इस बात का आकलन किया है।
आलोचक कह रहे हैं वैश्विक स्तर पर एक स्वास्थ्य आपातकाल के वक़्त में किसी कंपनी का मोटा मुनाफ़ा बटोरना एक घोटाले जैसा है।
यूनिवर्सिटी ऑफ लीड्स के इंटलेक्चुअल प्रॉपर्टी एंड हेल्थ रेगुलेशंस के एक्सपर्ट प्रोफेसर ग्राहन डटफील्ड कहते हैं, "मैं मुनाफ़ा कमाने का विरोधी नहीं हूं, लेकिन रेमडेसिविर की क़ीमत हद से ज्यादा है। लेकिन, मैं यह भी मानता हूं कि सरकार ने इसे रोकने के लिए कुछ भी नहीं किया, ऐसे में यह एक घोटाले जैसा है। इंडस्ट्री एक रेगुलेटरी सिस्टम के तहत काम करती है और रेगुलेटरी सिस्टम सरकार तय करती है।"
यूनिवर्सल हेल्थकेयर सिस्टम
हर देश के हिसाब से दवाओं की क़ीमत अलग-अलग तय की जाती है। डटफील्ड बताते हैं कि ब्रिटेन और बाकी यूरोप जैसी जगहों पर दवाओं की क़ीमत कहीं कम होती हैं क्योंकि यहां एक यूनिवर्सल हेल्थकेयर सिस्टम है। इन्हें मैन्युफैक्चरर्स से बड़े डिस्काउंट मिलते हैं।
डटफील्ड बताते हैं, लेकिन, अमरीका में हालात बिलकुल अलग हैं। वे कहते हैं, "यहां फार्मास्युटिकल इंडस्ट्री किसी भी तरह के प्राइस कंट्रोल के अधीन नहीं है। फार्मा कंपनियां अपनी मर्जी के हिसाब से दवाओं की क़ीमत तय कर सकती हैं। ऐसे में केवल एक ही दबाव क़ीमतों को नियंत्रण में रख सकता है और वह है राजनीतिक दबाव।"
इसी वजह से सबसे बुरी तरह से प्रभावित होने वाले विकासशील देशों में विकसित देशों में विकसित हुए इलाज आमतौर पर देरी से पहुंचते हैं और ये बेहद महंगे होते हैं। इस तरह के वाकये पहले भी देखे गए हैं।
वे कहते हैं, "कई देशों में बड़ी तादाद में ऐसे लोग हैं जो कि 3,420 डॉलर खर्च नहीं कर सकते हैं।"
'पेटेंट्स छोड़ें दवा कंपनियां'
विशेषज्ञों का कहना है कि रेमडेसिविर की क़ीमत अहम है क्योंकि कोविड-19 के इलाज या वैक्सीन खोज रही दूसरी कंपनियां इसकी क़ीमत के हिसाब से अपनी रणनीति और क़ीमतें तय करेंगी।
मुनोज बताते हैं, "हम रेमडेसिविर की क़ीमत सुनकर डरे हुए हैं। यह बेहद महंगी है। लेकिन, असली दिक़्क़त रेमडेसिविर के साथ नहीं है, बल्कि ये पहली वैक्सीन के आने पर दिखाई देगी।"
"रेमडेसिविर केवल एक ख़ास समूह के लोगों, कुछ बेहद कम संक्रमित मरीज़ों के इलाज के लिए है। दूसरी ओर, वैक्सीन दुनिया की पूरी आबादी के लिए आएगी और यह अन्य दूसरे कई नैतिक पहलुओं को भी पैदा करेगी।"
इसी वजह से कई लोग फार्मा कंपनियों से महामारी के दौरान अपने पेटेंट्स त्यागने और महामारी का दौर गुज़रने के बाद इन्हें फिर से हासिल करने के लिए कह रहे हैं।
डटफील्ड कहते हैं, "मैं मानता हूं कि इंडस्ट्री में काम कर रहे वैज्ञानिक दुनिया की मदद करना चाहते हैं, लेकिन, अंतिम फैसला इन लोगों के हाथ में नहीं होता।"