'हम क्यों हैं नकलची?'

मंगलवार, 24 मार्च 2015 (11:21 IST)
- प्रोफेसर कृष्ण कुमार (शिक्षाविद)
 
परीक्षा में नकल की बीमारी हर साल मार्च के महीने में खबर बनती है। खबर अक्सर इस अंदाज में दी जाती है कि बीमारी का जिक्र चिंता पैदा करने की जगह लोगों का मनोरंजन करे।
वैसे भी भारत समेत समूचे दक्षिण एशियाई समाज को इस बीमारी की आदत है। बीमारी कितनी पुरानी है, इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने परीक्षा में नकल का हवाला अपने एक सार्वजनिक व्याख्यान में दिया था। उन्होंने समझाया था कि समस्या सिर्फ नकल करके सफलता हासिल करने वाले छात्रों की नहीं है।
 
दृष्टिकोण : वे छात्र जो नकल का सहारा नहीं लेते, रटंत विद्या पर निर्भर है, वे पूरी किताब रटकर याद कर लेते हैं। टैगोर ने उनकी तुलना हनुमान से की थी जो संजीवनी बूटी लाने गए थे और पूरा पहाड़ ले आए थे।
 
टैगोर की व्यंजना हमें समझाती है कि परीक्षा में नकल की बीमारी दरअसल स्वयं एक बीमारी नहीं है, एक बीमार व्यवस्था का लक्षण है। वह इशारा करती है कि भारत की शिक्षा व्यवस्था में पढ़ाई का उद्देश्य समझना नहीं है, इम्तेहान में अंक लाना है। 
 
मां-बाप, बच्चे और अध्यापक सभी का जोर परीक्षा की तैयारी पर रहता है। पाठ्यक्रम बनाने वाले भी परीक्षा के दृष्टिकोण से ज्ञान की मात्रा तय करते हैं। परीक्षा का पर्चा बनाने वाले और उत्तरों पर नंबर देने वाले परीक्षक भी छात्र की समझ पर ध्यान नहीं देते।
 
रटंत विद्या : प्रश्न होते ही इस तरह के हैं कि उसका उत्तर रटकर दिया जा सके। यदि कोई छात्र ऐसा उत्तर लिख दे जिसमें समझने का प्रयास या कल्पना के लक्षण नजर आते हों तो उसे कम नंबर मिलेंगे।
 
जो अध्यापक बच्चों में समझ या जिज्ञासा विकसित करने का प्रयत्न करता है, उसे अनोखा माना जाता है। स्कूल का प्रिंसिपल और बच्चों के माता-पिता उस पर जोर डालते हैं कि बच्चों को परीक्षा के लिए तैयार करें। मतलब कि समझने की जगह याद करना और प्रश्नों का जवाब फटाफट देना सिखाएं।
 
यही सिखाने के लिए ट्यूशन और कोचिंग कराई जाती है। ये दोनों काम अरबों रुपए के उद्योग के जिम्मे हैं। परीक्षा में नकल कराना या नकल के सहारे पास करना स्वयं एक असंगठित उद्योग है। पूरी हिंदी पट्टी में इस उद्योग के केंद्र फैले हैं।
 
उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश के कुछ जिले ज्यादा बड़े और व्यवस्थित केंद्र हैं। इनमें कुछ परीक्षा केंद्रों की ठेकेदारी का चलन है। दसवीं, बारहवीं या विश्वविद्यालय की परीक्षाओं में पास होने के लिए दूर-दूर से छात्र इन केंद्रों का रोल नंबर लेते हैं।
 
सफलता : कोई आश्चर्य नहीं कि भारत में परीक्षा-तंत्र पुलिस के सहारे ही जीवित रह पाता है। हिंदी पट्टी ही क्यों, समूचे देश में वसंत के मौसम में परीक्षा पुलिस की एक बड़ी जिम्मेदारी बन जाती है।
 
मीडिया में खबर आने पर कई जगह पुलिस नकल केंद्रों पर छापे भी मारती है। स्वयं शिक्षा विभाग अपने उड़न दस्ते बनाता है। इधर-उधर कुछ घटनाएं नकल पर प्रहार करती हैं। कई बार कुछ मामले कचहरी में भी जा पहुंचते हैं। वसंत की विदाई के साथ सब कुछ सामान्य हो जाता है।
 
परीक्षा, पाठ्यक्रम और अध्यापन में सुधार लाने के प्रयास लगातार हुए हैं और उन्हें सफलता भी मिली है। 'राष्ट्रीय पाठ्यचर्चा की रूपरेखा-2005' के तहत लाए गए सुधार केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) से जुड़े स्कूलों पर कुछ असर दिखला सके हैं। इनकी संख्या देश के कुल माध्यमिक स्कूलों की संख्या के मुकाबले दस फीसदी से भी कम है।
 
गंभीर प्रयास : बाकी स्कूल प्रांतीय बोर्डों से जुड़े हुए हैं। इनमें से कुछ ने साल 2005 की पाठ्यचर्चा के द्वारा शुरू हुए सुधारों को लागू करने का प्रयास किया है। लेकिन उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र जैसे बड़ी आबादी वाले राज्यों ने कोई गंभीर प्रयास नहीं किया है।
 
इस तरह देखें तो आप कह सकते हैं कि नकल की बीमारी का थोड़ा-बहुत इलाज जिन स्कूलों में चल रहा है वहां भारत के अभिजात्य वर्ग या इलीट वर्ग के बच्चे पढ़ते हैं। शेष स्कूल, जहां बड़ी आबादी के बच्चे पढ़ते हैं, न सरकारों के ध्यान में रहते हैं, न मीडिया की सुर्खिंयों में।
 
वसंत का मौसम एक संक्षिप्त अपवाद पेश करता है।

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