इमरजेंसी की वो फ़िल्म जिसने संजय गांधी को जेल भिजवाया

गुरुवार, 16 नवंबर 2017 (15:37 IST)
वंदना
1975 में भारत में जब इमरजेंसी लगी तो उस दौरान संजय गांधी पर कई तरह के आरोप लगे थे- कथित तौर पर हुई ज़्यादतियाँ, जबरन नसबंदी, सरकारी काम में दख़ल, मारुति उद्योग विवाद वगैरह-वगैरह। हालांकि इमरजेंसी के बाद जब उनके ख़िलाफ़ क़ानूनी मामले चले तो उन्हें जेल जाना पड़ा एक फ़िल्म के चक्कर में। संजय गांधी पर आरोप था कि इमरजेंसी के दौरान 1975 में बनी फ़िल्म 'किस्सा कुर्सी का' के प्रिंट कथित तौर पर उनके कहने पर जलाए गए। ये उन्हीं पर बनाई गई पॉलिटिकल स्पूफ़ फ़िल्म थी।
 
दरअसल इमरजेंसी के इर्दगिर्द बनी निर्देशक मधुर भंडारकर की फ़िल्म 'इंदु सरकार' को लेकर कुछ कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने पिछले दिनों अराजकता की है। उन्हें कई कार्यक्रम भी रद्द करने पड़े। इन घटनाओं के बाद से ही इमरजेंसी, राजनीति और फ़िल्मों को लेकर सवाल मन में घूम रहे हैं। शोले से लेकर कई कम चर्चित फ़िल्में इमरजेंसी का शिकार रही हैं।
 
कुर्सी के किस्से ने पहुँचाया जेल
फ़िल्म 'किस्सा कुर्सी का' जनता पार्टी सांसद अमृत नाहटा ने बनाई थी जिसके नेगेटिव ज़ब्त कर लिए गए थे और बाद में कथित तौर पर जला दिए गए। इमरजेंसी के बाद बने शाह कमीशन ने संजय गांधी को इस मामले में दोषी पाया था और कोर्ट ने उन्हें जेल भेज दिया हालांकि बाद में फ़ैसला पलट दिया गया।
फ़िल्म में संजय गांधी और उनके कई करीबियों का स्पूफ़ दिखाया था- शबाना आज़मी गूँगी जनता का प्रतीक थी, उत्पल दत्त गॉडमैन के रोल में थे और मनोहर सिंह एक राजनेता के रोल में थे जो एक जादुई दवा पीने के बाद अजब ग़ज़ब फ़ैसले लेने लगते हैं। 1978 में इसे दोबारा बनाया गया। लेकिन संजय गांधी को जेल पहुँचाने वाली फ़िल्म जब रिलीज़ हुई तो कब आई और कब गई किसी को पता भी नहीं चला।
 
 
नसबंदी पर स्पूफ़ और किशोर कुमार
इसी तरह 1978 में आईएस जौहर की फ़िल्म 'नसबंदी' भी संजय गांधी के नसबंदी कार्यक्रम का स्पूफ़ था जिसमें उस दौर के बड़े सितारों के डुप्लिकेटों ने काम किया था। फ़िल्म में दिखाया गया कि किस तरह से नसंबदी के लिए ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को पकड़ा गया। फ़िल्म का एक गाना था 'गांधी तेरे देश में ये कैसा अत्याचार' जिसके बोल कुछ यूँ थे-
 
"कितने ही निर्देोष यहाँ मीसा के अंदर बंद हुए,
अपनी सत्ता रखने को जो छीने जनता के अधिकार,
गांधी तेरे देश में ये कैसा अत्याचार"
इसे इत्तेफ़ाक़ कहिए या सोचा समझा क़दम कि ये गाना किशोर कुमार ने गाया था। दरअसल इमरजेंसी के दौरान किशोर कुमार उस वक़्त बहुत नाराज़ हो गए थे जब उन्हें कांग्रेस की रैली में गाने के लिए कहा गया। प्रीतिश नंदी के साथ छपे एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, "मैं किसी के आदेश पर नहीं गाता।"
 
 
अंजाम तो सभी जानते हैं कि बाद में किशोर कुमार के गानों पर ऑल इंडिया रेडियो पर बैन लगा दिया गया था। नसबंदी फ़िल्म का एक और गाना था- 'क्या मिल गया सरकार इमरजेंसी लगा के' जिसे मन्ना डे और महेंद्र कपूर ने गाया था।
 
शोले पर भी गिरी थी गाज
कई मशहूर फ़िल्मों को भी इमरजेंसी के कारण मुश्किल उठानी पड़ी थी। फ़िल्म शोले के आख़िरी सीन में असल में रमेश सिप्पी ने दिखाया था कि ठाकुर कील लगे जूतों से गब्बर को रौंद देता है। लेकिन वो इमरजेंसी का दौर था और सेंसर बोर्ड के नियम काफ़ी सख़्त थे।
 
 
वो नहीं चाहता था कि ऐसा कुछ भी दिखाया जाए जिससे लगे कि कोई भी क़ानून अपने हाथ में ले सकता है। सेंसर बोर्ड चाहता था कि गब्बर को पुलिस के हवाले कर दिया जाए। लेकिन रमेश सिप्पी अड़ गए। अनुपमा चोपड़ा की किताब 'शोले द मेकिंग ऑफ़ ए क्लासिक' में वो लिखती हैं, "सिप्पी परिवार ने कई जान पहचान वालों तक अपनी बात पहुँचाई। बाप-बेटे आपस में भी उलझ बैठे। एक समय रमेश सिप्पी ने फ़िल्म से अपना नाम हटाने का भी मन बनाया।" वकील रहे जीपी सिप्पी ने बेटे को समझाया कि इमरजेंसी में कोर्ट जाने का कोई फ़ायदा नहीं।
...कुछ और ही होती शोले
रिलीज़ की तारीख तय थी -15 अगस्त 1975 और 20 जुलाई हो चुकी थी। संजीव कुमार सोवियत संघ में थे। वे तुरंत भारत लौटे। आख़िरी सीन दोबारा शूट हुआ, डबिंग और मिक्सिंग हुई। सेंसर ने रामलाल का वो सीन भी काट दिया जिसमें वो ज़ोर ज़ोर से ठाकुर के उन जूतों में कील ठोकता है जिससे ठाकुर गब्बर को मारने वाला था- क्योंकि रामलाल आँखों में विद्रोह की झलक थी।
 
इस तरह इमरजेंसी के दौरान शोले तैयार हुई लेकिन ये वो फ़िल्म नहीं थी जो रमेश सिप्पी बनाना चाहते थे। गुलज़ार की फ़िल्म आंधी का किस्सा तो जगजाहिर है। कई लोगों का आरोप था ये इंदिरा गांधी की ज़िंदगी पर आधारित थी और इमरजेंसी के दौरान बैन कर दी गई थी।
 
'किशोर कुमार, जयप्रकाश पर बैन'
इमरजेंसी के दौरान कई कलाकार ऐसे भी थे जो फ़िल्मों के ज़रिए विरोध के अलावा बात आगे तक ले गए। देव आनंद तो इतने नाराज़ थे कि उन्होंने नेशनल पार्टी ऑफ इंडिया नाम की राजनीतिक पार्टी तक बनाई थी। शिवाजी पार्क में इसका बड़ा जलसा भी हुआ। देव आनंद अपनी ऑटोबायोग्राफी में लिखते हैं, "मैं समझ गया था कि मैं उन लोगों के निशाने पर हूँ जो संजय गांधी के क़रीब हैं।"
 
 
अब इमरजेंसी हटने के 40 साल बाद फिर इसी मुद्दे के इर्द गिर्द घूमती मधुर भंडारकर की फ़िल्म आ रही है। इसे अजीब इत्तेफ़ाक़ या आयरनी ही कहेंगे कि मधुर भंडारकार के मुताबिक मौजूदा सेंसर बोर्ड ने उन्हें जो शब्द हटाने के लिए कहा है उनमें शामिल हैं- आरएसएस, जयप्रकाश नारायण, पीएम, आईबी, कम्यूनिस्ट और किशोर कुमार...मानो इस बात का डर हो कि किशोर कुमार फिर से ज़िंदा हो गाने लगेंगे कि 'गांधी तेरे देश में ये कैसा अत्याचार'।
 
 
और जिन लाइनों को हटाने के लिए कहा है वो हैं- 'अब देश में गांधी के मायने बदल गए हैं', 'मैं तो 70 साल का बूढ़ा हूँ मेरी नसबंदी क्यों करवा रहे हो।' कई देशों में राजनीतिक हस्तियों और घटनाओं पर फ़िल्में बनना आम बात है। लेकिन भारत में आज भी सियासतदानों और सिनेमा के बीच असहज सा रिश्ता बना हुआ है। इमरजेंसी के 42 साल बाद भी एक राजनीतिक फ़िल्म में गांधी, जयप्रकाश और किशोर कुमार जैसे नामों के ख़ौफ़ का साया है।

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