क्या पुतिन यूक्रेन में नाकाम हो गए हैं, आख़िर रूस चाहता क्या है?

BBC Hindi

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2023 (07:59 IST)
पॉल किर्बी, बीबीसी न्यूज़
जब 24 फ़रवरी 2022 को व्लादिमीर पुतिन ने अपने लगभग दो लाख सैनिक यूक्रेन पर हमला करने के लिए भेजे थे, तो उन्होंने ये ग़लत अंदाज़ा लगाया था कि रूस की सेना महज़ कुछ दिनों के भीतर, कीव में दाख़िल हो जाएगी और यूक्रेन की सरकार को सत्ता से हटा देगी।
 
एक के बाद एक कई मोर्चों पर शर्मनाक हार और पीछे हटने के बाद, साफ़ है कि यूक्रेन पर हमले की पुतिन की योजना नाकाम हो गई है। मगर, अभी इस जंग में रूस को शिकस्त नहीं मिली है।
 
पुतिन का मूल मक़सद क्या था?
दूसरे विश्व युद्ध के ख़ात्मे के बाद के सबसे बड़े यूरोपीय हमले को आज भी रूस के राष्ट्रपति पुतिन, एक 'विशेष सैन्य अभियान' कहते हैं।
 
वो इसे पूर्ण युद्ध नहीं कहते, जिसमें पूरे यूक्रेन में नागरिक ठिकानों पर बमबारी होती रही है, और जिसके चलते यूक्रेन के क़रीब 1 करोड़ 30 लाख लोग या तो विदेश में या फिर अपने ही वतन में शरणार्थी बनने को मजबूर हो गए हैं।
 
रूस के दावे
24 फ़रवरी 2022 को पुतिन ने एलान किया था कि उनका मक़सद, यूक्रेन की 'सैन्य शक्ति का ख़ात्मा और नाज़ियों से आज़ाद कराना' है, और वो ताक़त के बल पर यूक्रेन पर क़ब्ज़ा करने का कोई इरादा नहीं रखते हैं।
 
जबकि इससे कुछ दिन पहले ही पुतिन ने पूर्वी यूक्रेन के उन इलाक़ों की आज़ादी का समर्थन किया था, जिन पर 2014 से ही रूस समर्थकों का क़ब्ज़ा है।
 
पुतिन ने पूर्वी यूक्रेन की जनता को आठ साल से चले आ रहे यूक्रेन के ज़ुल्म और नरसंहार से रक्षा करने का वादा किया था। हालांकि रूस के इस दुष्प्रचार और दावे का सच से कोई बुनियादी वास्ता नहीं है।
 
पुतिन ने नैटो को यूक्रेन में पांव जमाने से रोकने की बात भी कही थी और उसमें ये बात भी जोड़ी थी कि इस सैन्य अभियान का मक़सद यूक्रेन की निरपेक्ष स्थिति को बरक़रार रखना भी है।
 
राष्ट्रपति पुतिन ने कभी भी खुलकर ये नहीं कहा, मगर ये बात हमेशा से उनकी सबसे बड़ी प्राथमिकता रही है कि वो यूक्रेन की चुनी हुई सरकार को सत्ता से हटाना चाहते हैं।
 
यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की ने कहा था कि, 'दुश्मन ने मुझे अपना टारगेट नंबर एक घोषित किया है; मेरा परिवार उनका दूसरा लक्ष्य है।' ज़ेलेंस्की के सलाहकार के मुताबिक़, रूस की सेना ने कम से कम दो बार राष्ट्रपति भवन परिसर में दाख़िल होने की कोशिश की थी।
 
यूक्रेन के नाज़ियों द्वारा नरसंहार करने के रूसी दावे के सुबूत कभी नहीं मिले। लेकिन, रूस की सरकारी समाचार एजेंसी रिया नोवोस्ती ने बताया कि, 'यूक्रेन को नाज़ियों से मुक्त कराने का मतलब यूक्रेन का अस्तित्व ख़त्म करना ही है'- यानी आधुनिक यूक्रेन गणराज्य का नाम-ओ-निशान मिटा देना।
 
रूस के राष्ट्रपति पुतिन, बरसों से यूक्रेन के अलग देश के अस्तित्व से इनकार करते रहे हैं। 2021 में एक लंबे लेख में पुतिन ने कहा था कि, नौवीं सदी से ही 'यूक्रेन और रूस के लोग एक ही रहे हैं।'
 
पुतिन ने किस तरह अपनी जंग के लक्ष्य बदले
यूक्रेन पर हमले के एक महीने बाद ही जब रूसी सेनाओं को कीव और चेर्निहाइव से पीछे हटना पड़ा था, तो पुतिन ने नाटकीय ढंग से अपने अभियान के मक़सद बदलने का संकेत दिया था। उसके बाद रूस का मुख्य लक्ष्य 'डोनबास को आज़ाद कराना' हो गया था। पूर्वी यूक्रेन में लुहांस्क और डोनोत्स्क के दो औद्योगिक क्षेत्रों को मोटे तौर पर डोनबास कहा जाता है।
 
बाद में उत्तर पूर्व में खारकीव और दक्षिण में खेरासन शहर से पीछे हटने को मजबूर किए जाने के बाद भी रूस के इन लक्ष्यों में कोई बदलाव नहीं आया है। हालांकि, रूस को ये लक्ष्य हासिल करने में भी कोई ख़ास कामयाबी मिलती नहीं दिख रही है।
 
जंग के मैदान में मिली नाकामियों के बाद रूस के नेता ने पिछले साल सितंबर में यूक्रेन के चार सूबों के रूस में विलय का एलान किया था। जबकि उन इलाक़ों पर रूस का पूरी तरह से नियंत्रण भी स्थापित नहीं हुआ था: न तो पूरब में लुहांस्क या दोनेत्स्क, न ही दक्षिण में खेरसन या ज़फ़रोज़िशिया पर रूसी सेना पूरी तरह से क़ब्ज़ा कर सकी थी।
 
इसके चलते, राष्ट्रपति पुतिन को दूसरे विश्व युद्ध के बाद पहली बार रूस में सेना की अनिवार्य भर्ती का अभियान चलाने को मजबूर होना पड़ा था। हालांकि, ये भर्ती आंशिक ही थी और इसके तहत केवल तीन लाख रिज़र्व सैनिक भर्ती किए जाने थे।
 
इस वक़्त लगभग 850 किलोमीटर लंबे मोर्चे पर युद्ध घिसटते हुए आगे बढ़ रहा है, और इनमें रूस को छोटी छोटी और दुर्लभ जीतें ही हासिल हो पा रही हैं।
 
जिसे एक फ़ुर्तीला सैन्य अभियान मानकर शुरू किया गया था, वो आज बहुत लंबा खिंचता युद्ध बन गया है और पश्चिमी देश इसमें यूक्रेन को जीत दिलाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। यूक्रेन के निरपेक्ष रहने की वास्तविक संभावनाएं तो कब की ख़त्म हो चुकी हैं।
 
पिछले साल दिसंबर में राष्ट्रपति पुतिन ने चेतावनी दी थी कि ये युद्ध, 'शायद लंबा खिंचेगा'। लेकिन, उन्होंने इसमें ये बात भी जोड़ी कि रूस का मक़सद, 'सैन्य संघर्ष के पहिए को घुमाते रहना नहीं', बल्कि उसे रोकना है।
 
पुतिन ने इस युद्ध से क्या हासिल किया?
पुतिन इस युद्ध से मिली सबसे बड़ी कामयाबी का दावा बस यही कर सकते हैं कि उन्होंने क्राइमिया से रूसी सीमा तक एक ज़मीनी गलियारा स्थापित कर लिया है।
 
क्राइमिया पर रूस ने 2014 में अवैध रूप से क़ब्ज़ा कर लिया था। इस ज़मीनी गलियारे के बाद अब रूस, क्राइमिया तक पहुंचने के लिए कर्च जलसंधि पर बने पुल के भरोसे ही नहीं रह गया है।
 
पुतिन ने इस इलाक़े पर क़ब्ज़े के बारे में भी बयान दिया और कहा कि मारियुपोल और मेलिटोपोल जैसे शहरों पर क़ब्ज़ा 'रूस के लिए अहम नतीजे' वाला रहा है।
 
कर्च जलसंधि के भीतर एज़ोव सागर अब रूस का 'अंदरूनी सागर' बन गया है। पुतिन ने इसका एलान करते हुए कहा था कि रूस के ज़ार पीटर महान भी ऐसा करने में कामयाब नहीं हो सके थे।
 
क्या पुतिन नाकाम हो गए हैं?
क्राइमिया तक पहुंचने के ज़मीनी गलियारे पर क़ब्ज़े से इतर, रूस के इस हिंसक और बिना उकसावे वाले युद्ध ने यूक्रेन में तो तबाही मचाई ही है, ख़ुद रूस के लिए भी बहुत नुक़सानदेह साबित हुआ है।
 
अब तक रूसी सेनाओं की क्रूरता और और नाकामियां उजागर करने के सिवा इस युद्ध से रूस को कुछ भी हासिल नहीं हुआ है।
 
जहां मारियुपोल जैसे शहर तबाह-ओ-बर्बाद कर दिए गए, वहीं कीव के क़रीब बुचा में आम नागरिकों के प्रति युद्ध अपराध की कहानियां भी सामने आई हैं और इनके बाद एक स्वतंत्र रिपोर्ट में रूस पर आरोप लगाया गया कि उसकी सरकार के निर्देश पर नरसंहार किया गया।
 
लेकिन, असल में तो ये रूस की सैन्य नाकामी है, जिसने उसकी तमाम कमज़ोरियों को उधेड़कर रख दिया है:
 
 
यूक्रेन को पश्चिम का समर्थन
यूक्रेन को हथियार देने को लेकर रूस ने जो चेतावनियां जारी कीं, उन्हें पश्चिमी देशों ने कोई तवज्जो नहीं दी और कहा कि 'जंग चाहे जितनी लंबी खिंचे यूक्रेन को उनका समर्थन लगातार' मिलता रहेगा।
 
बेहतर हिमार्स मिसाइलें मिलने और जर्मनी के लेपर्ड 2 टैंक देने के वादे से यूक्रेन को तोपख़ाने को काफ़ी मज़बूती मिली है।
 
लेकिन, ये युद्ध ख़त्म नहीं हआ है। डोनबास में लड़ाई जारी है। रूस ने इस साल सोलेडार क़स्बे पर क़ब्ज़ा कर लिया है और उसे उम्मीद है कि वो पश्चिमी इलाक़ों की ओर जाने वाले रास्ते में पड़ने वाले बख़मुत शहर पर जल्दी ही नियंत्रण स्थापित कर लेगा।
 
रूस को ये उम्मीद भी है कि वो उन इलाक़ों को भी दोबारा जीत लेगा, जो उसने पिछले साल गंवा दिए थे।
 
पुतिन पर नज़र रखने वालों का मानना है कि वो उन इलाक़ों पर अपना नियंत्रण और मज़बूत करने की कोशिश करेंगे, जिन्हें उन्होंने रूस में मिलाने का एलान किया है। ये इलाक़े सिर्फ़ डोनबास ही नहीं, मगर ज़फ़रोज़िशिया के अहम शहर तक फैले हुए हैं।
 
अगर ज़रूरत पड़ी, तो पुतिन सेना में भर्ती का अभियान और आगे बढ़ा सकते हैं और युद्ध को लंबा खींच सकते हैं। रूस एक एटमी ताक़त है और पुतिन ने इशारा किया है कि ज़रूरत पड़ी तो रूस की हिफ़ाज़त के लिए वो परमाणु हथियारों का इस्तेमाल करने को भी तैयार हैं और वो यूक्रेन के क़ब्ज़ा किए गए इलाक़ों में डटे रहेंगे।
 
पुतिन ने चेतावनी देते हुए कहा था कि, 'हम निश्चित रूप से अपने पास मौजूद सभी हथियारों का इस्तेमाल करेंगे। ये कोई कोरी धमकी नहीं है।'
 
यूक्रेन का मानना है कि रूस, मॉल्दोवा में यूरोप समर्थक सरकार का तख़्तापलट करने की कोशिश भी कर रहा है। यूक्रेन से लगे हुए मॉल्दोवा के विद्रोही क्षेत्र ट्रांसनिस्ट्रिया इलाक़े में रूस के सैनिक तैनात हैं।
 
क्या पुतिन की छवि को नुक़सान पहुंचा है?
70 बरस के राष्ट्रपति पुतिन ने सैन्य नाकामियों से ख़ुद को अलग करने का प्रयास किया है। लेकिन, कम से कम रूस के बाहर तो उनकी छवि को गहरा धक्का लगा है, और अब वो अपने मुल्क के बाहर बहुत कम ही निकलते हैं।
 
अपने देश में ऊपरी तौर पर तो ऐसा लगता है कि रूस की अर्थव्यवस्था, पश्चिमी देशों के सख़्त प्रतिबंधों को झेलने में सफल रही है। हालांकि, रूस का बजट घाटा लगातार बढ़ रहा है और तेल और गैस से होने वाली आमदनी नाटकीय ढंग से कम हो गई है।
 
पुतिन की लोकप्रियता मापने की कोई भी कोशिश चुनौतियों से भरी हुई है।
 
रूस में विरोध जताना बहुत जोख़िम का काम है। रूसी सेना के ख़िलाफ़ 'फ़ेक न्यूज़' फैलाने के जुर्म में क़ैद की सज़ा दे दी जाती है। रूस के नेतृत्व का विरोध करने वाले या तो देश छोड़कर भाग गए हैं, या फिर पुतिन विरोधी मुख्य नेता एलेक्सी नवालनी की तरह जेल में ठूंस दिए गए हैं।
 
यूक्रेन का पश्चिमी देशों की तरफ़ झुकाव
इस युद्ध के बीज तो 2013 में ही बो दिए गए थे, जब रूस ने यूक्रेन के रूस समर्थक नेता को यूरोपीय संघ के साथ एक प्रस्तावित समझौते को रद्द करने के लिए मजबूर किया था।
 
इसके बाद पूरे यूक्रेन में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए थे, जिसके चलते रूस समर्थक नेता को सत्ता छोड़नी पड़ी थी। इसके बाद, रूस ने क्राइमिया पर क़ब्ज़ा कर लिया था, और उसने पूर्वी यूक्रेन में ज़मीन पर क़ब्जे का अभियान भी छेड़ दिया था।
 
2022 में यूक्रेन पर रूस के हमले के चार महीने बाद यूरोपीय संघ ने यूक्रेन को अपना सदस्य बनने के उम्मीदवार का दर्जा दिया था, और यूक्रेन चाहता है कि उसे जल्द से जल्द यूरोपीय संघ की सदस्यता दे दी जाए।
 
लंबे समय से रूस पर राज कर रहे पुतिन, यूक्रेन को नैटो के प्रभाव क्षेत्र में आने से किसी भी क़ीमत पर रोकना चाह रहे थे। लेकिन, इस युद्ध के लिए पुतिन पश्चिमी देशों के सैन्य गठबंधन को ज़िम्मेदार ठहराते हैं, जो ग़लत है।
 
युद्ध से पहले न केवल यूक्रेन ने नैटो से दूर रहने के लिए रूस से एक अस्थायी समझौता किया था, बल्कि मार्च महीने में यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की ने यूक्रेन को गुट निरपेक्ष और एटमी ताक़त से मुक्त देश बनाए रखने का प्रस्ताव भी रखा था। ज़ेलेंस्की ने कहा था, 'ये एक हक़ीक़त है और इसे स्वीकार किया जाना चाहिए।'
 
क्या इस युद्ध के लिए नैटो को ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए?
नैटो के सदस्य देश यूक्रेन के शहरों की हिफ़ाज़त के लिए उसे एयर डिफेंस सिस्टम देते रहे हैं। इसके अलावा उन्होंने युद्ध में रूसी सेना से मुक़ाबले के लिए यूक्रेन को मिसाइलें, तोपें और ड्रोन भी मुहैया कराए हैं।
 
लेकिन, इस युद्ध का ठीकरा नैटो पर फोड़ना ठीक नहीं है। नैटो का विस्तार रूस के ख़तरे के जवाब में होता रहा है। स्वीडन और फिनलैंड ने नैटो की सदस्यता लेने की अर्ज़ी सिर्फ़ रूस के हमले के कारण दी है।
 
रूस, इस युद्ध के लिए नैटो के पूरब में विस्तार को ज़िम्मेदार ठहराता रहा है। रूस के इस दावे पर यूरोप में कई लोग यक़ीन करते हैं। युद्ध से पहले, राष्ट्रपति पुतिन ने मांग की थी कि नैटो 1997 से पहले वाली स्थिति में लौट जाए और वो मध्य और पूर्वी यूरोप के साथ बाल्टिक देशों से अपने सैनिक हटा ले।
 
पुतिन की नज़रों में पश्चिमी देशों ने 1990 में वादा किया था कि नैटो 'पूरब में एक इंच भी आगे नहीं बढ़ेगा', फिर भी उसने पूरब में अपना विस्तार किया।
 
हालांकि, ये बात सोवियत संघ के विघटन से पहले की है। ऐसे में सोवियत संघ के तत्कालीन राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव से किए गए उस वादे की मुराद जर्मनी के एकीकरण के बाद, केवल पूर्वी जर्मनी में विस्तार से थी।
 
बाद में मिखाइल गोर्बाचेव ने भी कहा था कि, उस वक़्त 'नैटो के विस्तार पर कोई भी चर्चा नहीं हुई थी।'
 
नैटो का कहना है कि 2014 में क्राइमिया पर रूस के क़ब्ज़े से पहले, उसका पूर्वी मोर्चे पर सेनाएं तैनात करने का कभी कोई इरादा नहीं रहा था।

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