साल 2018 में जब कमलनाथ के नेतृत्व में कांग्रेस ने मध्य प्रदेश में सरकार बनाई थी, तब सरकार में कोई भी राज्यमंत्री या स्वतंत्र प्रभार का मंत्री नहीं था। मंत्रिमंडल के सभी सदस्य 'कैबिनेट रैंक' के मंत्री थे।
विश्लेषकों के मुताबिक़, इसकी वजह कांग्रेस को पूर्ण बहुमत न मिलना था, क्योंकि कमलनाथ सरकार का गठन ही कुछ निर्दलीय विधायकों और छोटे दलों के विधायकों के समर्थन से हुआ था। ऐसे में ज़्यादातर अहम विभागों का बंटवारा मंत्रियों के बीच हो गया। मुख्यमंत्री कमलनाथ को काफ़ी कम विभागों से संतोष करना पड़ा।
साल 1998 में जब दिग्विजय सिंह मध्य प्रदेश के सीएम बने थे तो उन्हें भी बिना विभाग वाला मुख्यमंत्री ही कहा जाता था।
जब कमजोर कुर्सी पर बैठे शिवराज
साल 2020 में कमलनाथ सरकार गिर गई। एक बार फिर शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे। लेकिन चौहान ने गृह जैसा अहम विभाग दतिया के विधायक नरोत्तम मिश्रा को दे दिया था। उनके पास भी कम विभाग ही रहे।
हालांकि, मोहन यादव के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार प्रचंड बहुमत से बनी है। इस चुनाव में बीजेपी को 163 सीटें मिली हैं तो कांग्रेस सिर्फ़ 66 सीटें हासिल कर सकी है।
ऐसे में मोहन यादव इस प्रचंड बहुमत वाली सरकार की कमान बेहद आत्मविश्वास के साथ संभालते दिख रहे हैं।
इसमें दो राय नहीं है कि मंत्रिमंडल के गठन में 22 दिनों का समय लगा। प्रचंड बहुमत वाले दल को इस काम में इतना वक़्त नहीं लगना चाहिए था। फिर विभागों के बंटवारे में भी पांच दिन लगे। इस बीच मध्य प्रदेश के नेता और ख़ास तौर पर मुख्यमंत्री मोहन यादव दिल्ली की दौड़ लगाते रहे।
वरिष्ठ पत्रकार राकेश दीक्षित कहते हैं कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि इस बार पार्टी के कई दिग्गज नेताओं ने चुनाव लड़ा और वो जीतकर आए। इनमें दो केंद्रीय मंत्री और संगठन के केंद्रीय महासचिव भी शामिल हैं।
शिवराज सिंह की सरकार में उप मुख्यमंत्री नहीं रहे, लेकिन मोहन यादव के मंत्रिमंडल के गठन से पहले ही दो उप मुख्यमंत्रियों ने मोहन यादव के साथ शपथ ली थी।
मोहन यादव की ताक़त का राज?
लेकिन, मध्य प्रदेश की राजनीति पर दशकों से नज़र रखने वाले विश्लेषकों का मानना है कि मोहन यादव अब तक के सबसे 'पावरफुल' मुख्यमंत्री हैं। इसकी वजह उनके पास सामान्य प्रशासन, गृह, जेल और जनसंपर्क विभागों जैसे 10 अहम विभाग होना है।
जानकार कहते हैं कि मुख्यमंत्री समेत इस मंत्रिमंडल में कुल 31 सदस्य हैं, लेकिन महत्वपूर्ण विभागों का बँटवारा सिर्फ़ सात मंत्रियों के बीच ही किया गया है
इनमें दो उप मुख्यमंत्री– राजेंद्र शुक्ला और जगदीश देवड़ा के अलावा कैलाश विजयवर्गीय, प्रह्लाद पटेल, राकेश सिंह और राव उदय प्रताप सिंह शामिल हैं।
पिछले चार दशकों से मध्य प्रदेश की राजनीति पर नज़र रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार रमेश शर्मा ने बीबीसी से कहा कि मोहन यादव के मंत्रिमंडल को देख कर स्पष्ट रूप से समझ में आता है कि संगठन का भाव प्रभावी है। जबकि शिवराज सिंह चौहान में मंत्रियों को अपनी तरह से काम करते देखा गया था।
रमेश शर्मा कहते हैं, इसी वजह से मंत्री अपने तरीक़े से चलते थे और प्रशासन पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की पकड़ ढीली दिखती रही वो कहते हैं कि जन नेता और कैडर वाले नेता में यही अंतर होता है।
कैसे हुआ विभागों का बंटवारा?
वो ये भी कहते हैं कि मोहन यादव के मंत्रिमंडल में बहुत सारे वरिष्ठ नेता हैं जिनके बीच सामंजस्य बनाए रखने की वजह से ही विभागों के बंटवारे में इतना समय भी लग गया।
उनके मुताबिक़, “नेताओं की वरीयता और उनके प्रभाव को देखते हुए ही विभागों का बँटवारा किया गया है ताकि सबको सम्मान मिल सके।”
इस कड़ी में पूर्व केंद्रीय मंत्री प्रह्लाद पटेल को पंचायत एवं ग्रामीण विकास के अलावा श्रम विभाग दिया गया, सांसद रहे राकेश सिंह को लोक निर्माण विभाग दिया गया, राव उदय प्रताप सिंह को स्कूल शिक्षा और परिवहन, जबकि कैलाश विजयवर्गीय को नगरीय प्रशासन और संसदीय कार्य विभाग दिया गया है।
विजयवर्गीय, शिवराज सिंह चौहान की पिछली सरकार में भी संसदीय कार्य मंत्री रह चुके हैं। इस तरह से मोहन यादव ने मंत्रिमंडल में वरिष्ठ नेताओं का बैलेंस बनाने की कोशिश की है।
बजटीय प्रावधानों को अगर देखा जाए तो सबसे ज़्यादा बजट ज़ाहिर तौर पर वित्त मंत्री यानी उप मुख्यमंत्री जगदीश देवड़ा के पास है। उनके पास वित्त के अलावा वाणिज्य कर, योजना और आर्थिक सांख्यिकी विभाग है जिनका कुल मिलाकर बजट 76,094 करोड़ रुपये है।
सबसे ज़्यादा बजट के मामले में दूसरे स्थान पर हैं परिवहन और स्कूल शिक्षा मंत्री राव उदय प्रताप सिंह, जिनको कुल 31,793 करोड़ रुपये का बजट मिला है।
इस कड़ी में मुख्यमंत्री मोहन यादव तीसरे स्थान पर हैं जिनके विभागों का बजटीय प्रावधान 20,865 करोड़ रुपये है।
दिल्ली के हाथ में है लगाम?
हालांकि, इस मुद्दे पर राय बंटी हुई है। वरिष्ठ पत्रकार देव श्रीमाली कहते हैं कि चाहें वो मुख्यमंत्री की नियुक्ति हो या मंत्रिमंडल का गठन या फिर विभागों का बँटवारा, इसमें साफ़ तौर पर दिख रहा है कि मध्य प्रदेश की सत्ता की लगाम दिल्ली के हाथों में है। वो कहते हैं कि शिवराज सिंह चौहान के समय में गृह विभाग सत्ता का एक अलग केंद्र बना रहा।
उन्हें लगता है कि राज्य के पूर्व गृह मंत्री एक तरह से समानांतर सत्ता चलाते रहे। वो कहते हैं, “शिवराज सिंह चौहान भी अपने कई विभाग दूसरे मंत्रियों को बांटते चले गए। अपने पास सिर्फ़ कुछ ही महत्वपूर्ण विभाग रखे थे।”
श्रीमाली कहते हैं, “मध्य प्रदेश में जिस तरह से सरकार गठन की प्रक्रिया चली है उससे साफ़ दिखता है कि केंद्रीय नेतृत्व महत्वपूर्ण विभागों को अपने नियंत्रण में रखना चाहता है। महत्वपूर्ण नीतिगत फैसलों में अब आला कमान को अलग-अलग मंत्रियों से डील नहीं करना पड़ेगा।"
"जनसंपर्क इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि ज़्यादातर संस्थाएं संघ से जुड़ी हुई हैं, इसलिए उनके आयोजन का ज़िम्मा भी जनसंपर्क विभाग का होता है।"
"जहाँ तक सामान्य प्रशासन विभाग का सवाल है तो ये वरिष्ठ अधिकारियों से संबंधित है। इसलिए मुख्यमंत्री के सीधे नियंत्रण में रहने से केंद्र को भी अपनी तरह के अधिकारियों को अपने हिसाब से पदस्थापन कराने में आसानी रहेगी।”
विभाग बंटवारे में ज्योतिरादित्य सिंधिया के खेमे के विधायकों को भी ध्यान में रखा गया है। इनमें मंत्री बनाए गए गोविंद सिंह राजपूत को इस बार खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति विभाग दिया गया है जबकि एंदल सिंह को कृषि विभाग दिया गया है।
इसी खेमे के प्रद्युमन सिंह तोमर को ऊर्जा विभाग दिया गया है, जबकि तुलसी सिलावट को जल संसाधन विभाग दिया गया है। मंत्रिमंडल में पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के करीबी माने जाने वाले मंत्रियों को भी खुश करने की कोशिश की गई है।