पूरी दुनिया के जिस एक इलाके में ट्रंप प्रशासन का काफी असर रहा था वो है ईरान। यही वजह है कि अमेरिका में नए राष्ट्रपति के चुनाव के साथ ही ईरान के साथ इसके रिश्तों पर असर की चर्चा सबसे ज़्यादा हो रही है। ट्रंप प्रशासन की नीति ईरान पर अधिक से अधिक दबाव बनाने की थी और 2015 के परमाणु संधि से अलग होने के फैसले के साथ उन्होंने इस पर अमल करना शुरू भी कर दिया था।
ट्रंप से पहले, ओबामा प्रशासन की विदेश नीति में ईरान के साथ परमाणु समझौता बेहद अहम मुद्दा था। अगर ईरान परमाणु समझौते की सभी शर्तों को मानने पर राज़ी हो जाए तो अमेरिका के नव-निर्वाचित राष्ट्रपति जो बिडेन इसमें फिर से शामिल होने का फैसला ले सकते हैं। इसका इशारा बिडेन पहले ही कर चुके हैं।
सोमवार को ईरान के विदेश मंत्री जवाद ज़रीफ ने ट्वीट कर अमेरिका की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया है। साथ ही उम्मीद जताई है कि दोनों देश बातचीत के ज़रिए ही बेहतर भविष्य बना सकते हैं। इससे स्पष्ट है कि ईरान चाहता है कि दोनों देशों के रिश्तों में जमी बर्फ पिघले और इसके लिए उसने पहल भी शुरू कर दी है।
लेकिन विदेश मंत्री के बयान से पहले ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्लाह अली ख़ामनेई ने 7 नवंबर को ट्विटर पर लिखा, 'अमेरिका में चुनाव के हालात और इसके बारे में जो कुछ कहा जा रहा है अपने आप में किसी तमाशे से कम नहीं है। ये उदाहरण है अमेरिकी लोकतंत्र के बुरे चेहरे का। चुनाव के नतीजे जो भी हों, अमेरिकी शासन की राजनीतिक। नागरिक और नैतिक गिरावट का ये स्पष्ट परिणाम है।'
ईरान पर प्रतिबंध
क्या होगा ईरान के साथ हुए परमाणु समझौते का भविष्य? तीनों बयानों के मद्देनज़र इस सवाल के जवाब को ढूंढने के लिए ईरान पर लगे प्रतिबंधों के बारे में जानना होगा।
मार्च 2007 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने ईरान पर हथियारों के व्यापार को लेकर प्रतिबंध लगा दिया था। परिषद ने ईरान के परमाणु कार्यक्रम में शामिल सभी लोगों के आने-जाने पर भी प्रतिबंध लगा दिया था और उनकी संपत्ति को भी फ्रीज़ कर दिया था।
2010 में भी प्रतिबंध लगाया गया कि ईरान भारी हथियार नहीं ख़रीद सकता जैसे हमलावर हेलीकॉप्टर और मिसाइलें।
ईरान का परमाणु समझौता
साल 2015 में ईरान ने अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस, चीन, रूस और जर्मनी के साथ समझौता (जेसीपीओए) किया था जिसके मुताबिक़ ईरान अपने परमाणु कार्यक्रमों को सीमित करने पर सहमति जताई थी। उसके बदले में तय हुआ था कि उस पर लगे संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक प्रतिबंध हटाए जाएंगे।
इसी जेसीपीओए समझौते के मुताबिक़ हथियारों पर लगा प्रतिबंध अक्टूबर 2018 में खत्म होना था। लेकिन उससे पहले 2018 में अमरीका की ट्रंप सरकार ने इस समझौते से खुद को बाहर कर लिया। लेकिन बाकी देशों का मत था कि वे इस समझौते को मानने के लिए प्रतिबद्ध हैं।
अब जो बिडेन की जीत के साथ ही चर्चा है कि बिडेन के नेतृत्व में अमेरिका दोबारा से समझौते को लागू कर सकता है। ऐसा इसलिए भी माना जा रहा है क्योंकि जिस समय अमेरिकी राष्ट्रपति बराक़ ओबामा ने ये समझौता किया था उस वक़्त अमेरिका के उप-राष्ट्रपति जो बिडेन ही थे।
बिडेन का ईरान के प्रति नज़रिया
बिडेन पहले ही कह चुके हैं कि 'अधिकतम दबाव' की नीति विफल रही है। इससे दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ा है। सहयोगियों ने भी इसे अस्वीकार कर दिया है। और ईरान अब परमाणु हथियार बनाने के ज़्यादा करीब है। ये सब ट्रंप प्रशासन के कार्यकाल में हुआ है।
हालाँकि उन्होंने ये भी साफ किया है कि अगर ईरान परमाणु समझौते का पालन करता है तो ही दोबारा से समझौते में फिर से शामिल होंगे, लेकिन तब तक प्रतिबंध नहीं हटेगा। इसके लिए ईरान की चिंताओं को दूर करने का काम भी करेंगे। कुछ ऐसा ही रूख ईरान ने भी साफ किया है कि अमेरिका को पहले अपने पुराने अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को पूरा करना होगा।
ऐसे में जब ईरान और अमेरिका दोनों अपने अपने रूख़ पर अडिग रहेंगे तो दोबारा से समझौता कितना मुश्किल होगा? इस सवाल के जवाब में पिनाक कहते हैं, 'ईरान जो कह रहा है वो दबाव की राजनीति है। ईरान समझौते को जिस रूप में स्वीकार करना चाहते हैं, शुरुआत में उससे कहीं आगे जाकर खड़े हो गया हैं। फिर बातचीत शुरू होने पर, अगर पीछे हटने की गुंजाइश हो तो उतना ही पीछे जाए, जितना उसने स्वीकार्य करने का पहले से मन बनाया है। लेकिन ईरान ऐसी स्थिति में नहीं है कि वो ज़्यादा मोल भाव कर सके।'
ईरान में फिलहाल आर्थिक हालत ठीक नहीं हैं। प्रतिबंधों की वजह से उनकी मुद्रा का बुरा हाल है। तेल का निर्यात बुरी तरह प्रभावित है। इन सब वजहों से ईरान अमेरिका के साथ समझौते पर अड़ियल रवैया नहीं अपना सकता।
ईरान में 2021 में राष्ट्रपति चुनाव भी होने वाले हैं। उसके पहले दोनों देशों के बीच कोई भी समझौता ईरान के राष्ट्रपति के लिए अहम हो सकता है। हालांकि ईरान जैसे देश में चुनाव ज्यादा मायने नहीं रखते ये भी सच है।
भारत पर असर
ईरान पर से अमेरिका के प्रतिबंध हटेंगे, तो इसमें बाकी देशों के साथ साथ भारत का भी फायदा होगा। अमेरिका की तरफ से पाबंदी लगने के बाद भारत ने भी ईरान से तेल लेना बंद कर दिया था, जिस वजह से भारत को तेल ख़रीदने के लिए ज़्यादा पैसा ख़र्च करना पड़ रहा था।
भारत सरकार के आँकड़ों के मुताबिक़ साल 2018 तक इराक़ और सऊदी अरब के बाद भारत को तेल सप्लाई करने के मामले में ईरान का ही नंबर आता था। कच्चे तेल को ईरान से भारत लाने की क़ीमत दूसरे देशों के मुक़ाबले कम थी और अरब जैसे खाड़ी देशों के मुक़ाबले ईरान भुगतान के मामले में ज़्यादा बड़ी समय-सीमा देता था। लेकिन अब दोनों देशों के बीच तेल को लेकर पुराने संबंध नहीं रहे।
कई जानकार भारत और अमेरिका के रिश्तों को लेकर कहते भी हैं कि दोनों देशों के बीच ये कैसी दोस्ती है जिसमें अमेरिका की वजह से भारत को ऐसे देशों से तेल ख़रीदना पड़ रहा है जहाँ कीमतें ज़्यादा हैं।
अगर अमेरिका के ईरान पर से प्रतिबंध हटते हैं और भारत उससे (ईरान से) दोबारा तेल ख़रीदना शुरू करता है तो तेल के दाम और कम हो सकते हैं। लेकिन पिनाक का मानना है कि इसमें दुनिया भर की बिज़नेस लॉबी और अमेरिकी ऑयल कंपनियों का रूख़ भी महत्वपूर्ण होगा।
तेल के अलावा ईरान भारत के लिए निवेश के हिसाब से भी अहमियत रखता है। ईरान में भारत का दूसरा सबसे बड़ा दाँव चाबहार बंदरगाह पर है। जहाँ धीरे धीरे चीन ने कब्जा जमा लिया है।
विवेक काटजू कहते हैं कि अमेरिका की ईरान के प्रति विदेश नीति बदलती भी है तो चाबहार बंदरगाह में भारत के निवेश पर कोई ज़्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। भारत के लिए पाबंदियों के दौर में भी अमेरिका ने चाबहार को उस दायरे से पहले ही बाहर रखा था। चाबहार प्रोजेक्ट में निवेश के लिए भारत की कंपनियों की तरफ से ही संकोच था।
चाबहार ईरान का एक तटीय शहर है, देश के दक्षिण-पूर्व में मौजूद दूसरे सबसे बड़े प्रांत सिस्तान और बलूचिस्तान में, ओमान की खाड़ी से सटा। यहाँ एक बंदरगाह है, जो ईरान का इकलौता बंदरगाह है।
इस बंदरगाह के विकास के लिए भारत और ईरान के बीच 2003 में अहम सहमति हुई, लेकिन फिर ईरान पर उसके परमाणु कार्यक्रमों को लेकर अंतराष्ट्रीय प्रतिबंधों की वजह से रूकावटें आने लगीं। अब भारत की जगह इस परियोजना में चीन शामिल हो गया है। इसलिए अमेरिका की ईरान नीति का असर केवल ईरान ही नहीं भारत पर भी पड़ेगा।