कर्नाटक के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में सामने आई, हालांकि उसे स्पष्ट बहुमत हासिल नहीं हुआ। राज्य में 222 सीटों पर हुए चुनाव में भाजपा को 104 सीटें मिली जबकि कांग्रेस को 78 और जनता दल सेक्यूलर को 37 सीटों पर जीत हासिल हुई है।
बीजेपी के प्रदर्शन में नायक बनकर उभरे हैं पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा जिन्होंने मतगणना से पहले ही घोषणा कर दी थी कि वो ही कर्नाटक के मुख्यमंत्री बनेंगे और 17 मई को मुख्यमंत्री पद की शपथ भी लेंगे। हुआ भी यही और बुधवार की देर शाम राज्यपाल वजूभाई वाला ने येदियुरप्पा को सरकार बनाने का न्योता दिया। येदियुरप्पा को 15 दिनों के भीतर सदन में बहुमत साबित करना होगा।
तमाम जानकार आकलन लगा रहे थे कि पिछले 4 साल के मोदी सरकार के कामकाज पर कर्नाटक चुनाव एक तरह से जनादेश होगा और 2019 के चुनावों का इसे सेमीफाइनल माना जा रहा था। 2013 में भारतीय जनता पार्टी को लगा था कि संगठन से बड़ा कोई नहीं है और बीएस येदियुरप्पा को हटाकर जगदीश शेट्टर को मुख्यमंत्री बनाया गया था।
येदियुरप्पा भारतीय जनता पार्टी का वो क्षेत्रीय चेहरा थे जिसकी वजह से पार्टी ने 2008 में दक्षिण भारत में अपनी पहली सरकार बनाई थी। हालांकि यह सरकार जेडीएस के समर्थन से चल रही थी, लेकिन भाजपा के पास जहां 1985 में मात्र 2 विधानसभा की सीटें थीं, वो 2008 में बढ़कर 110 हो गईं।
उसी तरह मतों का प्रतिशत भी 3.88 से बढ़कर वर्ष 2008 में 33.86 हो गया। ये सब कुछ भारतीय जनता पार्टी के चुनिंदा प्रयास से संभव हो पाया जिसमें सबसे ऊपर येदियुरप्पा का नाम रहा।
येदियुरप्पा के कारण 2013 में भाजपा हारी
लिंगायत समुदाय से आने वाले येदियुरप्पा की सबसे बड़ी ताकत थी लिंगायतों का समर्थन। लेकिन खनन घोटालों के आरोप में जब येदियुरप्पा घिरे, तो भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाने का फैसला किया। नाराज येदियुरप्पा ने 'कर्नाटक जन पक्ष' नाम से एक अलग संगठन खड़ा कर लिया और 2013 में हुए विधानसभा के चुनावों में उन्होंने भाजपा के लिए ऐसा रोड़ा खड़ा कर दिया जिसका फायदा कांग्रेस को मिला और कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार बनी।
भारतीय जनता पार्टी के नेताओं और येदियुरप्पा और उनके साथ संगठन से लगे हुए नेताओं के बीच कड़वी बयानबाजी भी हुई। कई भारतीय जनता पार्टी के नेता, जैसे एस. ईश्वरप्पा और जगदीश शेट्टर खुलकर येदियुरप्पा के खिलाफ मोर्चा संभाल रहे थे। येदियुरप्पा की बगावत भारतीय जनता पार्टी को काफी महंगी पड़ी।
हालांकि येदियुरप्पा की पार्टी को सिर्फ 6 सीटें मिली थीं, लेकिन उनकी वजह से दूसरी सीटों पर भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवारों को हार का सामना करना पड़ा था।
शाह ने कराई येदियुरप्पा की 'घरवापसी'
पिछले विधानसभा के चुनावों में येदियुरप्पा की कर्नाटक जनपक्ष पार्टी कहीं दूसरे तो कहीं तीसरे स्थान पर रही थी। 224 में 30 ऐसी सीटें थीं, जहां कर्नाटक जन पक्ष और भारतीय जनता पार्टी के कुल वोट कांग्रेस के जीतने वाले उम्मीदवार से कहीं ज्यादा थे। भारतीय जनता पार्टी 40 सीटों पर सिमट गई।
इसी बीच वर्ष 2014 में भारतीय जनता पार्टी ने आम चुनाव में जीत हासिल की और अमित शाह ने अध्यक्ष का पद संभाला। पुरानी टीम हटी और अमित शाह की पहल पर येदियुरप्पा की 'घरवापसी' हुई। उन्हें पहले संगठन की केंद्रीय कमेटी में रखा गया। बाद में उन्हें प्रदेश अध्यक्ष का पदभार सौंप दिया गया। इस फैसले का विरोध भाजपा के वो नेता करने लगे जिन्होंने येदियुरप्पा की बगावत के खिलाफ मोर्चाबंदी की थी।
कर्नाटक में पार्टी के वरिष्ठ नेता एस. प्रकाश के अनुसार भाजपा और दूसरे दलों को कांग्रेस से ज्यादा वोट मिले थे। लेकिन येदियुरप्पा के अलग होने की वजह से पार्टी को काफी नुकसान का सामना करना पड़ा।
येदियुरप्पा भाजपा के हनुमान साबित हुए
प्रदेश में पार्टी के प्रवक्ता बामन आचार्य इतिहास के पन्नों को पलटकर नहीं देखना चाहते थे। उनका कहना था कि 'जो बीत गई सो बात गई' और येदियुरप्पा ही संगठन के लिए हनुमान साबित होंगे। बामन आचार्य का दावा था कि पूरे दक्षिण भारत में बीएस येदियुरप्पा ही भारतीय जनता पार्टी के ऐसे नेता हैं जिन्होंने अपने दम पर संगठन को खड़ा किया था।
विधानसभा के चुनावों की घोषणा के साथ ही येदियुरप्पा ने पूरे प्रदेश में प्रचार की कमान संभाल ली थी। टिकटों के आवंटन को लेकर पार्टी के भीतर कुछ विरोध के स्वर भी उभरे, लेकिन येदियुरप्पा को पार्टी आलाकमान का पूरा समर्थन हासिल था।
जीत के सारथी
वरिष्ठ पत्रकार विजय ग्रोवर का कहना था कि भारतीय जनता पार्टी ने बीएस येदियुरप्पा को सिर्फ मुखौटे के रूप में इस्तेमाल किया। उनका कहना था कि 'भारतीय जनता पार्टी में येदियुरप्पा जैसा नेता कर्नाटक में नहीं है इसलिए उनके चेहरे को आगे कर पार्टी चुनाव लड़ी थी।'
लिंगायत समुदाय के वोट का दम भर येदियुरप्पा कर्नाटक की राजनीति में इतना मजबूत होकर उभरे थे, कांग्रेस ने उसमें भी विभाजन करने की कोशिश की थी। इस कदम से लिंगायतों में वीरशैव पंथ के अनुयायियों को काफी झटका लगा। येदियुरप्पा वीरशैव पंथ से आते हैं जबकि उस पंथ को अल्पसंख्यक का दर्जा देने की सिफारिश की गई। अल्पसंख्यक का दर्जा जगतगुरु बसवन्ना के वचनों पर चलने वाले लिंगायतों को दिए जाने की सिफारिश की गई।
विश्लेषकों को लगता था कि कांग्रेस ने चुनाव से ठीक पहले ये तुरूप की चाल चली थी जिसने येदियुरप्पा और भारतीय जनता पार्टी के सामने बड़ी चुनौती खड़ी कर दी। लेकिन येदियुरप्पा ने ये साबित कर दिया कि उनकी 75 पार की उम्र मार्गदर्शक मंडल में जाने की नहीं हुई है और नरेंद्र मोदी ने राज्य की जमीनी हकीकत को समझते हुए उन पर जो भरोसा जताया और उन्हें मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनाया, वो अकारण नहीं था।