कश्मीर समस्या के हल को लेकर नरेंद्र मोदी सरकार ने सभी संबंधित पक्षों से बातचीत करने के लिए ख़ुफ़िया ब्यूरो के पूर्व निदेशक दिनेश्वर शर्मा को नियुक्त किया है। केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने सोमवार को इसकी घोषणा की।
कश्मीर में राजनीतिक दलों और वहां के विश्लेषकों ने बातचीत की इस घोषणा पर अलग-अलग प्रतिक्रियाएं दी हैं। भारत सरकार की ओर से ऐसे समय में बातचीत की घोषणा की गई है, जब बीते एक साल से कश्मीर के हालात काफ़ी अशांत हैं।
फ़ारुक़ अब्दुल्ला ने मांगी पुरानी रिपोर्ट
जम्मू-कश्मीर में विपक्षी दल नेशनल कॉन्फ्रेंस के मुखिया और पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. फ़ारुक़ अब्दुल्ला कहते हैं कि आज तक दिल्ली सरकार ने इतनी कमिटियां कश्मीर पर बनाईं, उनका क्या हुआ?
उन्होंने कहा, "मेरा मानना है कि बातचीत अच्छी चीज़ है, लेकिन मैं केंद्र सरकार से ये पूछना चाहता हूं कि आज तक बीते वर्षों में इतनी कमिटियां बनाई गईं, उन कमिटियों ने जो रिपोर्ट्स दीं, वो संसद में पेश करें।"
फ़ारुक़ अब्दुल्ला के मुताबिक, ''पाकिस्तान के साथ भी बातचीत होनी चाहिए। हमारा सारा पश्चिमी हिस्सा तो पाकिस्तान के पास है। पाकिस्तान के साथ बात करना बहुत ज़रूरी है।''
श्रीनगर में प्रेस कॉन्फ़्रेंस के दौरान राज्य की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती ने बताया कि केंद्र सरकार ने बातचीत की पहल की जो घोषणा की है, वह समय की ज़रूरत है। उन्होंने ये भी कहा कि प्रधानमंत्री ने 15 अगस्त के दिन भाषण में कहा था कि गोली और गाली से नहीं बल्कि गले लगाने की ज़रूरत है तो ये उसी सिलसिले की एक कड़ी है।
'किससे करेंगे बातचीत'
वहीं, कांग्रेस का कहना है कि बातचीत शुरू करना अच्छी बात है, लेकिन बात किससे होगी, सरकार को ये भी बताना चाहिए। राज्य की प्रदेश कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष ग़ुलाम अहमद मीर कहते हैं, "तीन वर्षों तक बीजेपी कहती रही कि हम इनसे बात करेंगे, उनसे नहीं। कई शर्तें लगाईं और आज जो क़दम उठाया जा रहा है, वैसे क़दम तो पहले भी सरकारों ने उठाए हैं।
ग़ुलाम अहमद ने कहा कि डॉ. मनमोहन सिंह ने भी राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस बुलाकर उसमें सभी संबंधित पक्षों से बात की, लेकिन उसका भी बाद में जो हुआ आपके सामने है। उसके बाद वाजपेयी सरकार में उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी को कश्मीर पर लगाया गया, उसका भी क्या हुआ?
अहमद कहते हैं कि अब अगर ये आज बातचीत करना चाहते हैं तो किससे करेंगे? उन्हें लोगों का नाम लेना चाहिए। वहीं, उमर अब्दुल्ला ने बातचीत पर सवाल खड़ा किया है। उन्होंने ट्वीट किया, "ये उन लोगों की हार है, जो ताक़त को हल मानते थे।"
क्या कहते हैं विश्लेषक?
कश्मीर के राजनीतिक विश्लेषक भारत सरकार की तरफ़ से बातचीत की घोषणा करने पर कहते हैं कि ये भारत सरकार की उस सख्त पॉलिसी से शिफ़्ट है, जो सरकार ने बीते तीन वर्षों से कश्मीर पर अपनाई थी।
कश्मीर के वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक शुजात बुखारी कहते हैं, "जिस एतबार से केंद्र सरकार ने बीते तीन वर्षों से कश्मीर की समस्या को देखा है, उस हवाले से अगर देखा जाए तो ये एक अच्छी पहल है। लेकिन, साथ ही ये बात भी ज़रूरी है कि जिस वार्ताकार को चुना गया है, उनका मैंडेट क्या है? और वो किस हद तक जा सकते हैं? ये जानना भी ज़रूरी है।''
शुजात बुखारी कहते हैं, ''जब भी कश्मीर पर कोई बात होती है तो वो शर्तों पर होती है। मुझे लगता है कि अगर भारत सरकार इस समय कश्मीर पर संजीदा है तो उन्हें बिना किसी शर्त के बात करनी चाहिए। किसी भी तरफ़ से कोई भी शर्त नहीं रखी जाए।
पाकिस्तान से भी बातचीत ज़रूरी
विश्लेषक यह भी कहते हैं कि जब तक पाकिस्तान के साथ बातचीत शुरू ना हो जाए, तब तक कोई बड़ी उम्मीद नहीं रखी जा सकती है। बीते तीन सालों से मोदी सरकार हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के नेताओं के साथ किसी भी तरह की बातचीत करने से इनकार करती रही है।
कश्मीर के कई अलगावादी नेताओं को नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी (एनआइए) ने बीते महीनों में हवाला के पैसे लेने के इल्ज़ाम में गिरफ़्तार किया है, जो अभी जेलों में बंद हैं। वर्ष 2001 में केसी पंत को भारत सरकार ने कश्मीर पर वार्ताकार बनाया था। लेकिन, उस समय हुर्रियत का कोई भी नेता उनसे नहीं मिला था। वर्ष 2002 में बिना किसी सफलता के उस पहल को बंद ही कर दिया गया।
उसके बाद राम जेठमलानी की कमिटी का हाल भी कुछ ऐसा ही हुआ। उसके बाद साल 2003 में एनएन वोहरा को भी वार्ताकार बनाया गया, लेकिन कुछ भी हासिल नहीं हुआ। अलगाववादियों ने बात करने से इनकार करते हुए कहा कि वह सिर्फ़ प्रधानमंत्री से बातचीत करेंगे।
वर्ष 2010 में भी तीन सदस्यीय वार्ता दल में दिलीप पाडगांवकर, डॉक्टर राधा कुमार और एमएम अंसारी शामिल थे। इस कमिटी ने केंद्र सरकार को रिपोर्ट सौंपी, लेकिन उस रिपोर्ट पर कभी अमल नहीं किया गया।