कश्मीरः मंदिर का निगहबान एक मुसलमान

मंगलवार, 25 अगस्त 2015 (12:25 IST)
- माजिद जहांगीर (श्रीनगर से)
 
भारत प्रशासित जम्मू और कश्मीर के जिला अनंतनाग के लकडिपोरा गांव के रहने वाले नूर मोहम्मद से जब मंदिर की बात की जाती है तो वह जज्बात से लबरेज हो जाते हैं। 40 साल के नूर मोहम्मद पिछले 27 साल से अपने गांव लकडिपोरा के खीर भवानी मंदिर की देखरेख करते हैं।
नूर मोहम्मद ने बीबीसी को बताया, 'जब मेरे गांव के पंडित कश्मीर से चले गए तो मैंने सोचा कि गांव में उनके मंदिर पर किसी तरह की आंच नहीं आनी चाहिए।'
 
वह कहते हैं, 'मैं इस मंदिर को अच्छी हालत में रखने की कोशिश करता हूं। मेरे लिए मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा या गिरजाघर एक जैसे हैं। हर धर्म का पवित्र धार्मिक स्थान मेरे लिए महत्वपूर्ण है।'
 
हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई : साल 1990 में कश्मीर में हिंसक आंदोलन शुरू हुआ तो कश्मीर घाटी में रहने वाले लाखों पंडितों को अपने घर-बार छोड़कर जाना पड़ा था। उसके बाद से नूर मोहम्मद ने मंदिर की सुरक्षा और देखरेख अपने पवित्र धार्मिक स्थान की तरह करने की जिम्मेदारी उठा ली।
उनके लिए इस बात का कोई अर्थ नहीं कि मंदिर हिन्दुओं का है और मस्जिद मुसलमानों की। वह कहते हैं, 'पंडित और मुसलमान हमेशा कश्मीर में साथ-साथ रहते थे। हमारा रिश्ता तो भाइयों जैसा है।'
 
साल 2011 में जब 22 साल बाद इस गांव के कुछ पंडित त्योहार मनाने मंदिर आए तो नूर मोहम्मद ने अपने पैसों से मंदिर को सजाया और संवारा था। उसके बाद से हर साल त्योहार के मौके पर ये पंडित यहां आते हैं।
 
मंदिर में दुआ : नूर मोहम्मद सिर्फ मंदिर की देखरेख ही नहीं करते, मंदिर की शक्ति में उन्हें गहरा विश्वास भी है। उनका मानना है कि मंदिर के कारण उन्हें मुसीबतों से छुटकारा मिलता है।
 
वह कहते हैं, 'मैं जब भी मंदिर में कोई दुआ मांगता हूं तो वह कबूल हो जाती है। यहां पास में एक मस्जिद भी है, मैं वहां भी दुआ मांगता हूं।' रोज मंदिर की सफाई करने के साथ ही नूर मोहम्मद मंदिर में रखी मूर्ति के सामने अगरबत्ती भी जलाते हैं।
भरोसे पर वापसी : लकडिपोरा गांव में सिर्फ एक पंडित परिवार नानाजी भट का रहता है, जो कभी कश्मीर छोड़ कर नहीं गया। पिछले तीन-चार सालों में गांव के तीन और पंडित परिवार प्रधानमंत्री के पैकेज के तहत वापस आए हैं, जो सर्दियों में चले जाते हैं।
 
पंडित नानाजी भट नूर मोहम्मद की बहुत इज्जत करते हैं। वह कहते हैं, 'नूर मोहम्मद ने हमारे गांव के मंदिर की सुरक्षा के लिए उसके अभिभावक की तरह काम किया है। कभी किसी से कोई तनख्वाह नहीं मांगी। 2011 से इनके भरोसे पर गांव के पंडित यहां त्योहार मनाने आने लगे हैं।'
 
मंदिर के लिए सरकारी सुरक्षाकर्मी रखने की बात पर नूर मोहम्मद कहते हैं, 'जब मैं हूं तो सिक्योरिटी की क्या जरूरत है।'

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