पुलवामा हमला: मसूद अज़हर को 'आतंकवादी' क्यों नहीं मानता है चीन?

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2019 (11:39 IST)
- संदीप सोनी (बीबीसी संवाददाता)
 
इस साल 14 फरवरी को पुलवामा में सेंट्रल रिज़र्व पुलिस फोर्स (सीआरपीएफ) के क़ाफ़िले पर जैश-ए-मोहम्मद के आत्मघाती हमले के बाद मसूद अज़हर का नाम एक बार फिर सुर्ख़ियों में आया है। जैश-ए-मोहम्मद पाकिस्तान का एक चरमपंथी समूह है और मसूद अज़हर इसके मुखिया हैं। भारत चाहता है कि मसूद अज़हर को अंतरराष्ट्रीय चरमपंथी घोषित किया जाए।
 
 
इसके लिए भारत सुरक्षा परिषद में गुहार लगाता रहा है, लेकिन हर बार चीन ने भारत के प्रस्ताव पर वीटो कर दिया। चीन ऐसा क्यों करता है?
 
 
इस सवाल पर भारत के पूर्व राजनयिक विवेक काटजू कहते हैं, "चीन पाकिस्तानी फौज को मसूद अज़हर के मामले में शह देता है। मसूद अज़हर पाकिस्तानी फौज का एक वर्चुअल हिस्सा है। मसूद अज़हर, जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-तैयबा और हाफ़िज़ सईद पाकिस्तान की विदेश नीति और सामरिक नीति को आगे बढ़ाने में मदद करते हैं।"
 
 
विवेक काटजू कहते हैं, "मुझे लगता है कि पाकिस्तानी सेना ने चीन से विनती की है कि आप मसूद अज़हर को यूएन के तहत चरमपंथी घोषित ना होने दें। जबकि जैश-ए-मोहम्मद चरमपंथी संगठन घोषित हो चुका है।"..."लेकिन मसूद अज़हर की तरफ़ पाकिस्तानी सेना का विशेष लगाव है और इसी लगाव की वजह से उन्होंने चीन को फुसला रखा है कि वो मसूद अज़हर को शह देता रहे।"
 
 
चीन और पाकिस्तान का पुराना है याराना 
इस्लामाबाद में बीबीसी संवाददाता आसिफ़ फ़ारूक़ी कहते हैं, "चीन से पाकिस्तान की दोस्ती हिमालय से ऊंची, समंदर से गहरी और शहद से मीठी है। बीचे चार-पांच दशक से हम ये सुनते आ रहे हैं। पाकिस्तान में बहुत अनिश्चितता रही है, लेकिन ये दोस्ती बदस्तूर जारी है।"
 
 
"पिछले दो-तीन साल में इसमें नई जान आई है। चीन ने पाकिस्तान में जमकर निवेश किया है। पाकिस्तान में राजनीति, सेना और आम लोगों में बहुत मुश्किल से कोई ऐसा मिलेगा जो चीन के ख़िलाफ़ कुछ कहे।" हालांकि पाकिस्तान में एक ऐसा बुद्धिजीवी वर्ग भी है जो पाकिस्तान में चीन के हद से ज्यादा दख़ल को ठीक नहीं मानते और कहते हैं कि दोस्ती रखनी चाहिए लेकिन 'लिमिट' में रखना चाहिए।
 
 
बीजिंग में मौजूद वरिष्ठ पत्रकार सैबल दासगुप्ता मानते हैं कि चीन पाकिस्तान का साथ क्यों देता है, इसे समझने के लिए हमें उन बातों से परे जाना होगा जिन्हें सुनने-समझने की हमारी आदत पड़ गई है।
 
 
सैबल दासगुप्ता कहते हैं, "जैसे भारत में ये कहा जाता है कि चीन, पाकिस्तान का इस्तेमाल भारत के ख़िलाफ़ कर रहा है। ये बात कुछ हद तक सही है। ऐसा करके भारत को आर्थिक महाशक्ति बनने से रोका जा सकता है। लेकिन चीन और पाकिस्तान के रिश्ते आज के नहीं है।"
 
 
"1950 के दशक में काराकोरम दर्रे को बिना किसी तकनीकी मदद के चौड़ा किया गया था ताकि चीन के ट्रक पाकिस्तान में जा सकें। आज भी वही एकमात्र ज़रिया है जिससे आप चीन से पाकिस्तान जा सकते हैं। आज का चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरीडोर वही सड़क है जिसे विस्तार दिया गया है।"
 
 
सैबल इस दोस्ती का एक और पहलू बताते हैं, "इसी तरह अक्साई चीन का जो हिस्सा है, पाकिस्तान को पता था कि उस हिस्से को संभालना उसके बस की बात नहीं है, इसलिए पाकिस्तान ने वो हिस्सा चीन को दे दिया। पाकिस्तान और चीन का ये रिश्ता पुराना है।"
 
 
"बीच में ये हुआ कि अमेरिका आया और पाकिस्तान को डॉलर देने लगा। चीन के पास देने के लिए इतने पैसे तो थे नहीं। डॉलर से पाकिस्तान और अमेरिका का प्यार परवान चढ़ा। आज भी करीब 60 अरब डॉलर हैं जो पाकिस्तान को अमेरिका को चुकाना है।"..."लेकिन अब चीन पाकिस्तान को आर्थिक मदद दे रहा है। वो उसका पड़ोसी है और भारत के ख़िलाफ़ भी है। चीन से विमान और टैंक भी मिल रहे हैं सेना के लिए। पाकिस्तान को और क्या चाहिए।"

 
मुद्दा मसूद अज़हर का
भारत के पूर्व राजनयिक विवेक काटजू कहते हैं कि जैश-ए-मोहम्मद के प्रमुख मसूद अज़हर को भारत के साथ विश्व के अन्य देश भी चरमपंथी मानते हैं, लेकिन सिर्फ चीन के वीटो की वजह से मसूद अज़हर हर बार बच निकलता है।
 
 
वो कहते हैं, ''मसूद अज़हर, वर्षों पहले हरक़त उल अंसार का हिस्सा था। भारत में कश्मीर में पकड़ा गया, जेल की सज़ा हुई। लेकिन साल 1999 में कंधार विमान अपहरण मामले में 160 लोगों की जान बचाने के लिए भारत को मसूद अज़हर को रिहा करना पड़ा।"
 
 
"रिहाई के बाद मसूद अज़हर पाकिस्तान गया। पाकिस्तान में उसका ज़ोरदार स्वागत हुआ। रिहाई के कुछ महीनों के बाद उसने बहावलपुर में अपना संगठन बनाया। पाकिस्तान की सरकार ने उसकी भरपूर मदद की और फिर कश्मीर में उसका इस्तेमाल किया गया।"
 
 
उनका दावा है, "भारत ने ही नहीं, बल्कि अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और भी कई देश भारत की बात से सहमत है। उन्हें भी संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव 1267 के तहत मसूद अज़हर को अंतरराष्ट्रीय चरमपंथी घोषित करने में कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन चीन अड़ंगा लगाए हुए है। इसकी एक ही वजह है पाकिस्तान और ख़ास तौर पर पाकिस्तान की सेना।"
 
 
वरिष्ठ पत्रकार सैबल दासगुप्ता मसूद अज़हर के ख़िलाफ़ भारत के प्रस्ताव पर चीन के वीटो की तीन वजह बताते हैं। वो कहते हैं, "चीन पहली वजह ये बताता है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के कुछ नियम-कानून हैं जिनका पालन करना होता है। उस हिसाब से जब लिस्टिंग होती है तो हम उस हिसाब से सोचते हैं।"
 
 
"दूसरी वजह वो ये बताता है कि मसूर अज़हर के ख़िलाफ़ भारत कोई ख़ास सबूत नहीं दे पाता जिसे हम मान लें, जब सबूत देंगे तब देखेंगे।"..."तीसरी वजह, चीन ये कहता है कि सुरक्षा परिषद के सभी सदस्यों का इस मामले में भारत को समर्थन हासिल नहीं है। ये अलग बात है कि भारत कहता है कि उसे चीन के अलावा सभी का समर्थन हासिल है।"
 
इस्लामाबाद में बीबीसी संवाददाता आसिफ़ फ़ारूक़ी कहते हैं कि पाकिस्तान में भारत की तरह इस बात की बहुत चर्चा नहीं होती कि चीन ने भारत के प्रस्ताव पर वीटो कर दिया है। वो कहते हैं, "चीन के वीटो की वजह पाकिस्तान से दोस्ती नहीं, बल्कि उसकी भारत से दुश्मनी है। चरमपंथी गुटों को इसी का फायदा मिलता है। दुश्मन का दुश्मन दोस्त वाली बात है। संयुक्त राष्ट्र में चीन का रवैया यही दिखाता है।"
 
 
फौज और सरकार की भूमिका
बीबीसी संवाददाता आसिफ़ फ़ारूक़ी बताते हैं कि पाकिस्तान में प्रतिबंध के बावजूद जैश-ए-मोहम्मद की हरकतें नज़र आईं, जिसके बारे में कहा जाता है कि उन्हें पाकिस्तानी खुफ़िया तंत्र की मदद मिलती रही। लेकिन इसका कोई प्रमाण या सबूत नहीं है।
 
 
वो बताते हैं, "साल 1999 में कंधार कांड के बाद मसूद अज़हर ने अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की मदद से जैश-ए-मोहम्मद बनाया। दो-तीन साल बाद वो पाकिस्तान आए, लेकिन उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और उनके संगठन पर प्रतिबंध लगा दिया गया। मैंने आज तक कोई नेता नहीं देखा जिसने खुलेआम या दबे-छिपे तौर पर मसूद अज़हर के हक़ में कभी कोई बात कही हो।''
 
 
फिर भी पाकिस्तान में एक तबका ऐसा है जो उनका समर्थन करता है। आसिफ़ फ़ारूकी बताते हैं, ''पाकिस्तान में मसूद अज़हर के बारे में कोई अच्छी राय नहीं है। सब जानते हैं कि वो एक चरमपंथी समूह के मुखिया है, चरमपंथ का प्रचार करते हैं।"
 
 
"कई चरमपंथी घटनाओं में उनका हाथ रहा है। आज का नौजवान उनके बारे में अच्छी राय नहीं रखता। लेकिन समाज का एक हिस्सा ऐसा भी है जो उनका समर्थन करता है। ये वो लोग हैं जो भारत को अपना दुश्मन मानते हैं और चाहते हैं कि भारत को तबाह कर दिया जाए।"
 
 
वो कहते हैं, ''कराची के एक जलसे में करीब 17 साल पहले सार्वजनिक रूप से नज़र आए मसूद अज़हर इसके बाद भूमिगत हो गए और हाफिज़ सईद की तरह मीडिया में उनकी कोई ख़ास मौजूदगी नहीं रही। तीन-साल पहले पाकिस्तानी कश्मीर के मुजफ्फराबाद के पास जिहादी तंजीमों की कान्फ्रेंस में उन्हें आख़िरी बार देखा गया था।''

 
बीजिंग में वरिष्ठ पत्रकार सैबल दासगुप्ता बताते हैं, ''पाकिस्तान की सेना मसूद अज़हर के साथ है। आईएसआई का समर्थन उसे हासिल है। चीन नहीं चाहता कि पाकिस्तान की फौज और आईएसआई नाराज़ हो। इसकी वजह ये है कि चीन को पाकिस्तान की सेना की ज़रूरत है। क्योंकि सीमा पर शिनजियांग प्रांत है जहां मुसलमान आबादी है जो सरकार के विरोध में है। चीन नहीं चाहता कि तालिबान उनकी मदद के लिए उस तरफ से इस तरफ आ जाए।''

 
मसूद अज़हर के मामले में क्या चीन कभी अपना रुख़ बदलेगा?
इस सवाल पर भारत के पूर्व राजनयिक विवेक काटजू कहते हैं, ''अगर चीन अपना रुख़ बदलना चाहता तो ये मौका था रुख़ बदलने के लिए। लेकिन चीन अपना रुख़ नहीं बदलेगा क्योंकि चरमपंथ और चरमपंथ का इस्तेमाल पाकिस्तान की सिक्योरिटी डॉक्ट्रिन का एक ख़ास हिस्सा है।"
 
 
"पाकिस्तान की सेना के लिए आतंकी गुटों का इस्तेमाल करना ज़रूरी है। इसीलिए वो उन्हें शरण और प्रोत्साहन देते हैं। लेकिन हम उम्मीद कर सकते हैं कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब चीन इस बारे में संजीदगी से सोचेगा और महसूस करेगा कि इस वजह से भारत में उसके ख़िलाफ़ आक्रोश है।"... "भारत से रिश्ते पूर्ण रूप से अच्छे रहें, उसके लिए ये आक्रोश ठीक नहीं है।"
 
 
क्या भारत के हाथ कभी मसूद अज़हर तक पहुंचेंगे?
क्या कभी भारत उस तरह भी कार्रवाई कर सकता है, जैसी कार्रवाई अमेरिका ने पाकिस्तान जाकर ओसामा बिन लादेन के ख़िलाफ़ की थी। इस सवाल पर विवेक काटजू कहते हैं, ''अमरीकियों ने जिस प्रकार ओसामा बिन लादेन के ख़िलाफ़ एक्शन लिया, उन्हें मौका मिल गया था। वो भी उन्हें आसानी से नहीं मिला था। उस रास्ते को अमेरिका के अलावा मुझे नहीं लगता है कि कोई और देश अपना सकता है। दुनिया में अमेरिका की हैसियत को नकारा नहीं जा सकता।''
 
 
अमेरिका की तरह कार्रवाई ना कर पाना क्या भारत की कमज़ोरी कही जाए या उसकी पसंद, इस सवाल पर काटजू कहते हैं, ''मैं समझता हूं ये भारत की कमज़ोरी या पसंद नहीं बल्कि सोच है। सोच ही बाद में कार्रवाई में बदलती है। मुझे नहीं लगता कि भारत ने कभी इस प्रकार की कार्रवाई के बारे में सोचा भी है।"
 
 
"इसके अंतरराष्ट्रीय परिणाम बहुत होते हैं। इसलिए इस रास्ते के बारे में कभी सोचा भी नहीं गया। ये सवाल अलग है कि ये रास्ता अपनाना चाहिए या नहीं।''
 

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