छोटे शहरों के युवाओं के पास बाहर निकलकर बड़े शहरों में रोज़गार खोजने के अलावा कोई चारा नहीं होता, लेकिन यह राह आसान नहीं है क्योंकि उनका मुकाबला बेहतर शिक्षा और महानगरीय माहौल में तराशे गए युवाओं से होता है। विशेषज्ञों से बातचीत करके हमने गहराई से जानने की कोशिश की कस्बाई युवाओं की समस्याएं और समाधान क्या हैं?
क्यों पिछड़ जाते हैं छोटे शहरों और कस्बों के युवा?
*सीमित सोच से घटता दायरा : छोटे शहरों के युवा प्रतिस्पर्धा में खुद को बनाए रखने के लिए कड़ी मेहनत तो करते हैं, लेकिन जानकारियों और दिलचस्पियों का उनका दायरा अपेक्षाकृत छोटा होता है। भारी प्रतिस्पर्धा वाले क्षेत्रों जैसे इंजीनियरिंग, मेडिकल और मैनेजमेंट के अलावा दूसरे क्षेत्रों में छोटे शहरों के नौजवानों का रुझान कम दिखता है। करियर के और क्या आप्शन हो सकते हैं, यह अक्सर उन्हें ठीक से पता नहीं होता।
* मार्गदर्शन की कमी : इस विषय में मुंबई में प्लेसमेंट कंसल्टेंसी चलाने वाले अभिषेक प्रधान कहते हैं, 'छोटे शहरों से आने वाले युवाओं में बड़ी संख्या में ऐसे युवा शामिल हैं, जिन्होंने परंपरागत कोर्स किए हैं, जहां उनकी काबिलियत के अनुसार सीमित अवसर हैं। इसके अलावा छोटे शहरों के लिए युवाओं को स्किल इम्प्रूवमेंट वाले कोर्स करते भी कम ही देखा जाता है।'
*ज्ञान का सही उपयोग : बड़े शहरों के युवाओं का रुझान पारंपरिक रोजगार के साथ-साथ करियर के दूसरे ऑप्शन जैसे फैशन, रिसर्च, हॉस्पिटेलिटी, एविएशन, फॉरेन ट्रेड वगैरह की तरफ भी होता है।
भाषा बनी समस्या : हिन्दी भाषी क्षेत्र के युवाओं को भाषा की समस्या की वजह से कई बार निराशा हाथ लगती है, बड़ी कंपनियों में अंग्रेजी में ही काम होता है, अभ्यास न होने की वजह से कस्बाई युवा मुश्किलों का सामना करते हैं। ऐसा नहीं है कि हिंदी मीडियम के छात्र किसी मामले में कम हैं लेकिन जब बात कम्यूनिकेशन और अंग्रेजी से संबंधित दूसरी योग्यताओं की आती है तो ये पिछड़ जाते हैं।
अंग्रेजी में सक्षम : इस सवाल पर एक्स्पर्ट कहते हैं कि कंपनियों को हिन्दी भाषा से कोई समस्या नहीं है लेकिन उम्मीदवार में सामान्य अंग्रेजी लिखने-बोलने में सक्षम होना ही चाहिए। एक्स्पर्ट इसका समाधान बताते हैं कि छोटे शहरों के वे छात्र जो एमबीए या इंजीनियरिंग की डिग्री ले चुके हैं उन्हें इंटरव्यू से पहले सॉफ्ट स्किल ट्रेनिंग लेनी चाहिए। पर्सनैलिटी डेवलपमेंट और पब्लिक स्पीकिंग जैसे कोर्स मददगार साबित हो सकते हैं।
क्या होता है कंपनियों के चयन का आधार?
इस सवाल का जवाब हमने विशेषज्ञों से जानने की कोशिश की। आखिर क्यों कंपनियां छोटे शहरों के युवाओं में अपेक्षाकृत कम रुचि दिखाती हैं?
कुशलता की तलाश : बड़ी कंपनियों का रुझान बड़े शहरों के युवाओं की तरफ देखा जाता है, इसके कई कारण हैं। पहला यह कि अधिकतर बड़ी और स्थापित कंपनियां बड़े शहरों को अपना कार्यस्थल बनाती हैं। ऐसे में स्वाभाविक तौर पर उसी शहर में पले-बढ़े युवाओं का चयन सहज समझा जाता है।
ऐसे युवा इन कंपनियों में आसानी से घुलमिल जाते हैं, भाषा, व्यवहार, और कल्चर की समस्या नहीं होती। कंपनियां साधारण तौर पर बड़े शहरों के युवाओं की काबलियत केवल डिग्री से नहीं, बल्कि जॉब में फिट होने की क्षमता के मुताबिक देखती हैं।
सफलता की कहानी : इससे परे छोटे शहरों के युवाओं की सफलता की लंबी कहानी है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। अगर गौर किया जाए तो नामचीन कंपनियों में काम करने वाला एक बड़ा हिस्सा छोटे शहरों के छात्रों का ही है। आईटी क्षेत्र के बड़े नाम जैसे टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज, विप्रो, इंफोसिस और टेक महिंद्रा में छोटे शहरों के कर्मचारियों की संख्या बहुत ज्यादा है।
दिल्ली, मुंबई, बंगलुरू और पुणे जैसे शहरों में आपको छोटे शहरों से आए युवा ही अधिक मिलेंगे लेकिन जिस बड़ी तादाद में आपको क़स्बाई युवा काम करते दिखते हैं, उससे कहीं बड़ी तादाद निराश युवाओं की है।
घर पर रोजगार से अच्छा कुछ नहीं : बढ़ते वैश्विक बाजार के कारण अब बड़ी कंपनियों के उत्पाद हर जगह उपलब्ध हैं, इसी तरह स्थानीय सर्विस इंडस्ट्री में भी रोजगार के अवसर बढ़ रहे हैं, जॉब मार्केट से जुड़े लोग काबिल लोग न मिलने का दुखड़ा रोते हैं।
इस मुद्दे पर एम्मी प्लेसमेंट के बीपी शर्मा कहते हैं, 'ऐसा नहीं है कि छोटे शहरों में रोजगार की कमी है, बल्कि ऐसे कई नियोक्ता हैं जो अच्छी खासी सैलरी पर नौकरी देने को तैयार हैं, लेकिन उन्हें उनके काम का उम्मीदवार ही नहीं मिलता।'
शर्मा कहते हैं कि छोटे शहरों में मार्गदर्शन की कमी है, जिससे युवा एमबीए, इंजीनियरिंग की डिग्री तो कर लेते हैं, लेकिन ये कोर्स अधिकतर किसी गली-कूचे के इंस्टीट्यूट से होते हैं। इसके अलावा कई बार स्टूडेंट्स को व्यावहारिक समझ की कमी की वजह से भी काम नहीं मिल पाता।
संक्षेप में, छोटे शहर के युवा अगर बेसिक अंग्रेजी, पर्सनैलिटी डेवलपमेंट, कम्युनिकेशन स्किल और व्यावहारिक समझ बढ़ाने पर ध्यान दें तो वे मेट्रो यूथ को और बेहतर टक्कर दे सकते हैं।