भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लंबे समय से अलग थलग पड़े कश्मीरी नेताओं से गुरुवार को दिल्ली में मुलाकात की, कश्मीर में इस मुलाक़ात की तारीफ़ भी हो रही है और आलोचना भी।
मोदी सरकार ने पांच अगस्त 2019 को जम्मू कश्मीर की स्वायत्तता को निरस्त करने का फ़ैसला लिया था जिसके बाद से कश्मीरी नेता खुद को हाशिए पर महसूस कर रहे थे, ऐसे में कश्मीर को लेकर सख़्त रुख़ अपनाने वाली बीजेपी सरकार की ओर से आयोजित बैठक कश्मीरी नेताओं के लिए नई शुरुआत थी।
वैसे इस बैठक में क्या बातें हुई, उससे ज़्यादा चर्चा बैठक की टाइमिंग को लेकर हो रही है। इस बैठक में शामिल चार पूर्व मुख्यमंत्रियों में से तीन को शांति सुनिश्चित करने के नाम पर आठ महीने तक जेल में रखा गया था। इसके अलावा जम्मू और कश्मीर की राजनीति के दस अन्य कद्दावर नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के साथ नज़र आए।
अमित शाह ने कुछ ही महीने पहले कश्मीर के राजनीतिक दलों के गठबंधन को गुपकार गैंग क़रार दिया था। गुपकार एक पॉश रिहाइशी इलाका है जहां फ़ारूक़ अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला, महबूबा मुफ़्ती और अन्य वीआईपी लोगों के आवास हैं। कश्मीर के राजनीतिक दलों के गुपकार गठबंधन चार अगस्त, 2019 को अस्तित्व में आया था। गठबंधन ने संयुक्त तौर पर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 और 35-ए के तहत मिले विशेषाधिकार के साथ किसी भी तरह के बदलाव का विरोध करने का संकल्प लिया था।
इसके अगले ही दिन इन नेताओं के साथ हज़ारों दूसरे नेताओं और कार्यकर्ताओं को जेल में बंद कर दिया गया, जम्मू कश्मीर में इंटरनेट और संचार के दूसरे सभी साधनों पर पाबंदी लगा दी गई और पूरे प्रदेश में कर्फ्यू लागू कर दिया गया।
अक्टूबर महीने में पाबंदियों में रियायत दी गई और मोदी सरकार ने अब्दुल्लाह और मुफ़्ती परिवारों को दरकिनार करते हुए शांति, समृद्धि और नई लीडरशिप के साथ नए कश्मीर को बनाने के बारे में व्यापक संकेत दिए।
वैकल्पिक राजनीतिक नेतृत्व को झटका
इस दिशा में अब तक कुछ हासिल नहीं हुआ है। हालांकि महबूबा मुफ़्ती की पीडीपी पार्टी के कुछ नेताओं ने अलग होकर अपनी पार्टी का गठन ज़रूर किया, जिसे कथित तौर पर मोदी समर्थक पार्टी भी माना जाता रहा है। कश्मीर की राजनीति में बीते 22 महीने से नए लोग अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार पर झूठे सपने बेचने का आरोप लगाते रहे हैं।
महबूबा मुफ़्ती की सरकार में मंत्री रहे और अपनी पार्टी के नेता अल्ताफ़ बुखारी ने बीबीसी से कहा, "हम वही वादे कर रहे हैं जो पूरे हो सकते हैं। हमें यक़ीन है कि राज्य का दर्जा संभव है, इससे आगे हम नहीं जाएंगे।" नए कश्मीर के चेहरे के रूप में पूर्व हुर्रियत नेता सज्जाद लोन और 2010 के आईएएस टॉपर शाह फ़ैसल को देखा जाता रहा है।
इन सबको लेकर दिल्ली, जम्मू और कश्मीर के बीजेपी कार्यकर्ताओं में खुशी दिखती थी लेकिन मोदी सरकार के अचानक सुलह के रुख से वैकल्पिक नेतृत्व की अटकलों को झटका लगा है, क्योंकि मोदी सरकार जिन लोगों के वंशवादी राजनीति का चेहरा बताती रही है उनसे ही बातचीत का रास्ता खोल दिया है। ऐसे में सवाल यही है कि मोदी सरकार ने ऐसा क्यों किया है?
कश्मीर टाइम्स की संपादक अनुराधा भसीन के मुताबिक लद्दाख में चीन के सैन्य अतिक्रमण और पूर्वी सीमा पर भारत के सैन्य महत्वाकांक्षा को देखते हुए पाकिस्तान की चिंता कम करने की अमेरिकी मज़बूरी के चलते, बढ़ते अंतरराष्ट्रीय दबाव की वजह से मोदी सरकार ने यह क़दम उठाया है।
अंतरराष्ट्रीय दबाव में मोदी सरकार का क़दम
अनुराधा भसीन ने बताया, "अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान से शांतिपूर्ण ढंग से निकलना चाहता है। भारत और पाकिस्तान ने 2003 के सीजफ़ायर को आगे बढ़ाया है। एलएसी पर चीन का दबाव है। ज़्यादा अहम मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए भारत कश्मीर में शांति चाहता है।"
कश्मीर को लेकर भारत सरकार के रूख़ में नरमी की वजह चाहे जो हो कश्मीर के अंदर इसको लेकर मिश्रित प्रतिक्रियाएं देखने को मिली हैं। बीजेपी समर्थक इस क़दम के समर्थन में नहीं दिखे हैं। इस बैठक को लेकर अप्रसन्न एक कश्मीरी बीजेपी नेता ने गोपनीयता की शर्त पर कहा, "लंबे समय से लाड पाने वाले राजनीतिक और शोषक वर्ग के बंधन से मुक्त कराने के वादे के साथ धारा 370 हटाया गया था। लेकिन ऐसा लग रहा है कि वे फिर से प्रिय बन गए हैं।"
हालांकि कई इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का होशियारी भरा क़दम बता रहे हैं। कश्मीर के वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक हारून रेशी ने कहा, "बाजी किनके नाम रही, इसका फ़ैसला अभी नहीं हो सकता लेकिन क़दम पीछे करने से मोदी सरकार को पाकिस्तान और चीन के संदर्भ में कश्मीर मुद्दे को संभालने के लिए पर्याप्त जगह मिल गई है।"
हारून ने यह भी कहा, "अनुच्छेद 370 और 35-ए की वापसी तो संभव नहीं है लेकिन मुझे लगता है कि मोदी सरकार राज्य का दर्जा वापस दे सकती है। इसके अलावा लोगों को नौकरियां और ज़मीन के स्वामित्व को लेकर गारंटी मिल सकती है। इन मामलों को लेकर जम्मू और कश्मीर के नेताओं की राय एक जैसी है। धारा 370 की वापसी की मांग जल्द ही ग़ायब हो जाएगी और पाकिस्तान इस क़दम का विरोध नहीं कर पाएगा।"
कश्मीरी नेताओं की मुश्किल
शुक्रवार को फ़ाइनेंशियल एक्शन टास्क फ़ोर्स (एफ़एटीएफ़) में चरमपंथ को पाकिस्तान की कथित फंडिंग मामले की सुनवाई होनी है। हारून सहित कई विश्लेषकों का मानना है कि दोनों देशों के सामने कश्मीर को लेकर कठोर रुख़ में बदलाव लाने की अपनी मजबूरियां हैं। हारून ने कहा, "अफ़ग़ानिस्तान और पूर्वी लद्दाख में क्या स्थिति रहती है, इस पर ही तय करेगा कि कश्मीर में कब तक शांति रहेगी।"
वैसे प्रधानमंत्री की यह बैठक स्थानीय नेताओं के लिए मनोबल बढ़ाने का काम करेगी। हारून रेशी ने बताया, "दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के साथ खड़ा होना ही स्थानीय नेताओं के लिए काफ़ी है। कश्मीर के लोगों ने तो पांच अगस्त, 2019 के बाद मान लिया था कि इन लोगों की कश्मीर की राजनीति में कोई भूमिका नहीं है। लेकिन मोदी सरकार की बैठक से इन्हें नया जीवन मिला है लेकिन अनुच्छेद 370 को छोड़ते हुए वे आम लोगों को दूसरे सपने बेच पाएंगे यह बेहद मुश्किल लग रहा है।"
वहीं दूसरी ओर कश्मीर के सैन्य प्रतिष्ठानों ने माना है कि इस साल फरवरी में भारत और पाकिस्तान के बीच सीज़फ़ायर बढ़ाए जाने के बाद हिंसक घटनाओं में कमी आयी है। एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने बीबीसी हिंदी को बताया, "कश्मीर में अभी भी चरमपंथी सक्रिय हैं, इसलिए हिंसक घटनाएं हो रही हैं। लेकिन सेना और खुफ़िया नेटवर्क में तालमेल बढ़ने से हिंसक घटनाओं में कमी देखने को मिली है। गोलीबारी और सीमा पर छिटपुट हिंसक घटनाएं अभी भी हो रही हैं लेकिन बीते साल की तुलना में संतोषजनक स्थिति है।"