रविवार को औरंगाबाद में राज ठाकरे की रैली में जुटी भीड़ इस तरफ़ इशारा कर रही है कि महाराष्ट्र में उनको सुनने वालों की आज भी कमी नहीं है। उस भीड़ को देख कर महाराष्ट्र की राजनीति के कई जानकार 60 के दशक को याद करने लगे हैं।
बात 60 के दशक की है। यह वह दौर था जब फायरब्रैंड समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडीस को मुंबई का बेताज़ बादशाह कहा जाता था। मुंबई (तब बंबई) के कामगार वर्ग में जॉर्ज फ़र्नांडिस का दबदबा ऐसा था कि उनके एक आह्वान पर पूरा महानगर बंद हो जाता था।
1967 में लोकसभा चुनाव था। कांग्रेस नेता एसके पाटिल ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में दावा किया कि भगवान भी आ जाए तो मुझे चुनाव नहीं हरा सकते। पाटिल के इसी जुमले को जॉर्ज फ़र्नांडिस ने अपना हथियार बनाया। अपनी हर यूनियन सभा में उन्होंने कहा 'आप ही मेरे भगवान हैं और आपके बारे में लोग ऐसा कह रहे हैं। आप जिसे चाहो जीता सकते हो'। उस चुनाव में दक्षिण मुंबई से लोकसभा चुनाव जॉर्ज फ़र्नांडिस जीत गए। उस समय की राजनीति में एसके पाटिल बहुत बड़े नाम थे।
लेकिन इस जीत के बाद जॉर्ज की सक्रियता मुंबई की राजनीति में कम और दिल्ली में ज़्यादा हो गई। जॉर्ज अगला चुनाव दक्षिण मुंबई से हार गए। उस चुनाव के हारने के बाद, जॉर्ज फ़र्नांडिस ने अगले दिन फिर से मुंबई बंद का नारा दिया जो पूरी तरह से सफल रहा।
उस वक़्त मीडिया ने वहाँ के यूनियन से पूछा, चुनाव में आप लोग जॉर्ज फ़र्नांडिस को हरा देते हैं लेकिन उनके कहने पर मुंबई बंद भी कर देते हैं। ऐसा क्यों? जवाब में लोगों ने कहा, जॉर्ज को हम अपने बीच चाहते हैं। पिछला लोकसभा चुनाव जीतने के बाद वो हमें भूल गए। हमने उन्हें हराया ताकि वो हमारे बीच दोबारा वापस आ जाएं। कल भी हमारे नेता जॉर्ज ही थे और आज भी हमारे नेता जॉर्ज ही है।"
जॉर्ज फ़र्नांडिस की लोकप्रियता का ये क़िस्सा वरिष्ठ पत्रकार ने अनिल जैन ने बीबीसी को सुनाया। वो महाराष्ट्र की राजनीति में राज ठाकरे की सक्रियता की वजहें समझा रहे थे।
कांग्रेस ने कब और कैसे किया शिव सेना को खड़ा
राज ठाकरे के बारे में वो आगे कहते हैं, "महाराष्ट्र की राजनीति में जिस तरह की परेशानी आज उद्धव ठाकरे को राज ठाकरे की इस राजनीति से हो रही होगी, वैसी ही परेशानी कांग्रेस के तब के मुख्यमंत्री वसंत राव नाइक को जॉर्ज फ़र्नांडिस से हो रही थी।
भारत की आर्थिक राजधानी और औद्योगिक राज्य होने की वजह से राज्य सरकार को नियमित रूप से मज़दूर संगठनों से जूझना होता था।
यूनियन की राजनीति से परेशान होकर कांग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री वसंत राव नाइक ने मुंबई के कामगार वर्ग में जॉर्ज के दबदबे को तोड़ने के लिए शिव सेना का इस्तेमाल किया। इसी वजह से उस दौर में शिव सेना को कई लोग मजाक़ में 'वसंत सेना' भी कहा करते थे। शिव सेना को आर्थिक मदद से लेकर राजनीतिक संरक्षण देने का आरोप वसंत राव नाइक सरकार पर लगते रहे हैं।
आज के परिपेक्ष में अनिल जैन कहते हैं, "जैसे कांग्रेस ने जॉर्ज के दबदबे को तोड़ने के लिए शिव सेना को बढ़ावा दिया, ठीक वैसा ही शिव सेना को सत्ता में असहज करने के लिए बीजेपी राज ठाकरे का इस्तेमाल कर रही है।"
राज ठाकरे को बीजेपी का साथ या समर्थन
राज ठाकरे ने महाराष्ट्र में सभी मस्जिदों से लाउडस्पीकर हटाने की डेडलाइन तीन मई की रखी है। नहीं तो चार मई से वो हनुमान चालीसा का पाठ करेंगे।
पूर्व मुख्यमंत्री और बीजेपी नेता देवेन्द्र फडणवीस सीधे तौर पर भले ही राज ठाकरे पर कुछ ना कह रहे हों, लेकिन लाउड स्पीकर और हनुमान चालीसा पर उनके समर्थन में दिखते होते हैं।
रविवार को बीजेपी की बूस्टर डोज़ रैली में उन्होंने कहा, " जो लोग लाउडस्पीकर हटाने से डरते हैं, वो दावा करते हैं कि वो अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहाने के वक़्त मौजूद थे।"
इतना ही नहीं, नवनीत राणा और रवि राणा पर देशद्रोह लगाने का विरोध करते हुए भी उन्होंने कहा था, "सरकार का कहना है कि वो दोनों सरकार गिराने की साज़िश रच रहे थे। दोनों हनुमान चालीसा का पाठ करने वाले थे। हनुमान चालीसा का पाठ राम की सरकार गिरा सकता है या रावण की? आप राम की तरफ़ हैं या रावण की तरफ़।"
इन्हीं बयानों की वजह से बीजेपी पर आरोप लग रहे हैं कि वो राज ठाकरे का इस्तेमाल तो नहीं कर रहें?
बीजेपी को कितना फ़ायदा
अनिल जैन तर्क देते हैं, "भारत की राजनीति में ये महारत केवल बीजेपी को हासिल है कि वो जब चाहे जिस राज्य में चाहे किसी क्षेत्रीय पार्टियों का इस्तेमाल अपने हित के लिए कर सकती है। जैसे बिहार में उन्होंने चिराग पासवान का इस्तेमाल किया और नीतीश कुमार को तीसरे पर ले आए। तेलंगाना के नगर निगम चुनाव में ओवैसी का इस्तेमाल करके अपना प्रदर्शन बेहतर किया। उत्तर प्रदेश में बीजेपी की जीत में मायावती का बड़ा हाथ है ये राजनीतिक विश्लेषक कहते रहते हैं।"
लेकिन एक सच्चाई ये भी है कि बीजेपी ऐसा पंजाब में नहीं कर पाई। कैप्टन अमरिंदर सिंह की पार्टी के साथ इस बार उन्होंने गठबंधन किया लेकिन इसका बहुत लाभ उन्हें इस बार के पंजाब विधानसभा चुनाव में नहीं मिला।
अनिल जैन कहते हैं, "राज ठाकरे को इस बात का मलाल है कि बाल ठाकरे जब तक ज़िदा थे तब तक राज ठाकरे ही उसके उत्तराधिकारी माने जाते रहे। उद्धव ठाकरे तो राजनीति में उतनी दखल रखते भी नहीं थे। लेकिन जब बाल ठाकरे बीमार रहने लगे तब पुत्र मोह उन पर हावी हो गया और उद्धव को अपनी विरासत दे गए। राज ठाकरे को इस बात का दर्द है।"
अनिल जैन की बात को आगे बढ़ाते हुए महाराष्ट्र की वरिष्ठ पत्रकार मृणालिनी नानिवडेक कहती हैं कि राज्य की राजनीति में राज ठाकरे के अचानक से दोबारा सक्रिय होने का एक दूसरा पहलू भी है।
"जैसे बीजेपी को सत्ता से दूर रखने के लिए तीन पार्टियां एनसीपी, शिवसेना और कांग्रेस एक साथ आई थीं, वैसे ही महाविकास अघाड़ी गठबंधन को सत्ता से दूर रखने के लिए बीजेपी को भी किसी का साथ तो चाहिए। चाहे अनचाहे, अगर ये साथ राज ठाकरे के रूप में बीजेपी को मिल रहा है, तो बीजेपी इसका राजनीतिक इस्तेमाल करने से कैसे चूकेगी? राजनीति में ये जायज़ भी है।"
मृणालिनी कहती हैं, "राज ठाकरे करिशमाई नेता ज़रूर हैं। तीन हफ़्ते के भीतर जिस तरह से अजान और लाउडस्पीकर को महाराष्ट्र की राजनीति में उन्होंने एक चर्चा का मुद्दा बना दिया। ये उसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि बीजेपी को पूरे राष्ट्र में एमएनएस की ज़रूरत पड़ेगी। फ़िलहाल बीजेपी को महाविकास अघाड़ी गठबंधन के सामने एक वैकल्पिक नैरेटिव खड़ा करने की ज़रूरत है, जो काम बीजेपी के लिए राज ठाकरे बख़ूबी कर रहे हैं।"
हालांकि मृणालिनी ये भी कहती हैं कि राज ठाकरे कभी बीजेपी के साथ नहीं जाएंगे। पाँच साल पहले तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वीडियो अपनी रैली में दिखा कर अपने लिए जगह बनाई। तो आज वो कैसे साथ हो जाएंगे?
वैसे ही बीजेपी का राज ठाकरे के साथ जाना भी व्यावहारिक नहीं लग रहा। ये दोनों साथ-साथ कुछ दूर ज़रूर चल सकते हैं ताकि शिवसेना को थोड़ा असहज किया जा सके। इसलिए बीजेपी चालाकी से केवल उनको बढ़ावा देने वाली बातें कर रही है, खुल कर उनके समर्थन में नहीं उतर रही।
वैसे महाराष्ट्र की राजनीति के कुछ जानकार ये भी मानते हैं कि राज ठाकरे की पार्टी का अकेले में भी वजूद है। एक दौर में एमएनएस के 11 विधायक चुन कर विधानसभा पहुँचे थे। आज उनका केवल एक विधायक है। एक दौर वो भी था जब मुंबई से शिव सेना या बीजेपी का एक भी प्रतिनिधि संसद नहीं पहुँचा था, तब मुंबई मराठियों की है वाला कैंपेन एमएनएस ने चलाया था। उस दौर में बीजेपी और शिव सेना को एमएनएस ने बहुत नुक़सान पहुँचाया था। हालांकि 1960 और 2022 में 60 दशक गुजर चुका है।
60 के दशक में कांग्रेस पार्टी भारत की राजनीति का केंद्र बिंदु हुआ करती थी। लेकिन पिछले सात साल ये तमगा बीजेपी को हासिल है। इसलिए अब बीजेपी के ख़िलाफ़ विपक्षी पार्टियां लामबंद हो रही है।