रूस-यूक्रेन तनाव: रूस पर अमेरिका और ब्रिटेन के प्रतिबंधों के क्या मायने हैं

BBC Hindi

बुधवार, 23 फ़रवरी 2022 (08:10 IST)
रूस ने यूक्रेन में विद्रोहियों के क़ब्ज़े वाले इलाकों दोनेत्स्क और लुहान्स्क को मान्यता दे दी है। इसके बाद अमेरिका और उसके सहयोगी देशों ने उस पर सीमित प्रतिबंध लगाने का एलान कर दिया है। अभी रूस पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं लगाए गए हैं। हालांकि इसकी भी तैयारी पिछले कुछ समय से चल रही है।
 
प्रतिबंध क्या हैं?
कूटनीतिक शब्दावली के मुताबिक़ प्रतिबंध शब्द का इस्तेमाल तब होता है जब कोई देश किसी दूसरे देश के हमलावर तेवरों को रोकने या अंतरराष्ट्रीय क़ानून तोड़ने के आरोप में उसके ख़िलाफ़ कार्रवाई करता है।
 
प्रतिबंधों का मक़सद किसी देश की अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचाना होता है। ये प्रतिबंध इसी मकसद से लगाए जाते हैं। इसके तहत किसी देश के वित्तीय कारोबार, नागरिक, शीर्ष नेताओं को बाधा पहुंचाने जैसे क़दम उठाए जाते हैं। इन देशों पर यात्रा संबधी रोक लगाई जा सकती है। हथियारों की सप्लाई या ख़रीद-फ़रोख्त रोकी जा सकती है।
 
रूस पर क्या प्रतिबंध लगाए गए हैं?
अमेरिका अपने नागरिकों को विद्रोहियों के क़ब्ज़े वाले इलाके लुहान्स्क और दोनेत्स्क में कारोबार करने से रोक सकता है। हालांकि कुछ अमेरिकी कंपनियां यहां कारोबार कर रही हैं।
 
व्हाइट हाउस ने कहा है कि ये क़दम व्यापक प्रतिबंध से अलग हैं। अगर रूस यूक्रेन में और आगे बढ़ा तो पूरे प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं।
 
वित्तीय प्रतिबंध
रूस पर अभी और जो वित्तीय प्रतिबंध लगाए जाने हैं, उनमें एक है उसे स्विफ़्ट सिस्टम से अलग करना। स्विफ़्ट ( SWIFT) एक ग्लोबल मैसेजिंग सर्विस है। 200 देशों में हज़ारों वित्तीय संस्थाएं इसका इस्तेमाल करती हैं। इससे रूसी बैंकों के लिए विदेश में कारोबार करना काफ़ी मुश्किल हो जाएगा।
 
इस प्रतिबंध का इस्तेमाल 2012 में ईरान के ख़िलाफ़ किया गया था। इसकी वजह से उसने तेल की बिक्री से होने वाली अपनी अच्छी-ख़ासी कमाई खो दी थी। उसके विदेशी कारोबार को भी बड़ा झटका लगा था।
 
लेकिन इस वित्तीय प्रतिबंध का नुक़सान अमेरिका और जर्मनी को भी होगा क्योंकि यहां के बैंक भी रूसी वित्तीय संस्थाओं से मज़बूती से जुड़े हैं।
 
हालांकि रूस को तुरंत स्विफ़्ट सिस्टम से अलग नहीं किया जाएगा। अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा के उप-सलाहकार दलीप सिंह ने कहा कि शुरुआती प्रतिबंधों में स्विफ़्ट से रूसी फ़ाइनेंशियल सिस्टम को हटाने की आशंका नहीं है।
 
डॉलर क्लीयरिंग
अमेरिका रूस को डॉलर में कारोबार करने से रोक सकता है। इसका मतलब ये कि पश्चिमी देशों की जो भी कंपनी रूसी संस्थाओं से डॉलर में कारोबार करेगी उसे जुर्माना देना पड़ेगा। यानी रूस की दुनिया से ख़रीद-फ़रोख्त की क्षमता सीमित हो जाएगी।
 
रूस पर इस प्रतिबंध का गहरा असर होगा क्योंकि उसके तेल और गैस का ज़्यादातर कारोबार डॉलर में ही होता है।
 
अंतरराष्ट्रीय बाज़ार से रूस को क़र्ज़ नहीं मिलेगा
 
पश्चिमी देश अंतरराष्ट्रीय ऋण बाज़ार तक रूस की पहुंच रोक सकते हैं। पश्चिमी वित्तीय संस्थाओं और बैंकों की ओर से रूसी बॉन्ड ख़रीदने की क्षमता पहले ही कम कर दी गई है। ये प्रतिबंध और कड़े किए जा सकते हैं।
 
इससे रूस को वित्तीय संसाधन जुटाने में काफ़ी मुश्किल होगी। रूसी अर्थव्यवस्था के लिए अंतरराष्ट्रीय क़र्ज़ बेहद ज़रूरी है। रूस को महंगा क़र्ज़ लेना होगा। रूसी मुद्रा रूबल भी कमज़ोर हो सकती है। हालांकि रूस ने विदेशी निवेशकों से क़र्ज़ लेना कम कर दिया है।
 
बैंकों पर रोक
अमेरिका सीधे तौर पर कुछ रूसी बैंकों पर प्रतिबंध लगा सकता है। इससे दुनिया में किसी के लिए भी इन बैंकों से कारोबार असंभव हो जाएगा। लिहाज़ा रूस को अपने इन बैंको को बेलआउट करना होगा। उसे देश में बढ़ती महंगाई और आय में कमी की समस्या से भी जूझना पड़ सकता है।
 
निर्यात पर नियंत्रण
पश्चिमी देश रूस को किए जाने कुछ कमोडिटी का निर्यात रोक सकते हैं। मिसाल के तौर पर अमेरिका उन कंपनियों को रूस को कोई भी ऐसा सामान बेचने से रोक सकता है जिनमें अमेरिकी टेक्नोलॉजी सॉफ़्टवेयर या उपकरण का इस्तेमाल हुआ है।
 
इनमें सेमी कंडक्टर माइक्रो चिप शामिल हैं। आजकल कार से लेकर स्मार्ट फ़ोन बनाने तक में इनका इस्तेमाल होता है। मशीन टूल्स और कंज़्यूमर इलेक्ट्रॉनिक्स बनाने में भी इनका इस्तेमाल हो रहा है।
 
इससे न सिर्फ़ रूस के डिफ़ेंस और एयरोस्पेस सेक्टर को नुक़सान पहुंचेगा बल्कि उसकी पूरी अर्थव्यवस्था पर संकट गहराएगा।
 
ऊर्जा प्रतिबंध
रूस की अर्थव्यवस्था का सबसे ज़्यादा दारोमदार विदेश में उसकी तेल और गैस की बिक्री पर है। रूस को इससे भारी कमाई होती है। पश्चिमी देश गैजप्रॉम और रोज़नेफ़्ट जैसी विशालकाय रूसी कंपनियों से तेल और गैस ख़रीदना ग़ैरक़ानूनी कर सकते हैं।
 
अमेरिका नॉर्ड स्ट्रीम 2 को रोकने के लिए अपनी कूटनीतिक ताक़त का भी इस्तेमाल कर सकता है। इस प्रोजेक्ट के तहत रूस और जर्मनी के बीच गैस ले जाने के लिए बिछाई जाने वाली पाइपलाइन का काम रोका जा सकता है। यह पाइपलाइन बिछ चुकी है लेकिन इसे रेगुलेटरी मंज़ूरी की ज़रूरत है। लेकिन रूसी गैस पर कोई प्रतिबंध लगा तो यूरोप में गैस के दाम बढ़ जाएंगे।
 
रूस के सहयोगियों पर प्रतिबंध
प्रतिबंध के दायरे में लोग यानी नागरिक भी आ सकते हैं। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ ही उनके सहयोगियों पर भी प्रतिबंध लग सकते हैं।
 
यूक्रेन पर हमला हुआ तो ये क़दम भी उठाए जा सकते हैं। संपत्ति ज़ब्त कर लेना या यात्रा पर प्रतिबंध लगाना भी विकल्प के तौर पर आज़माया जा सकता है। ऐसे कुछ प्रतिबंध पहले से लागू हैं। हालांकि जो लोग इन प्रतिबंधों के दायरे में हैं उनके व्यवहार में ख़ास बदलाव नहीं आया है।
 
अमेरिका और यूरोपीय देशों को उम्मीद है कि रूस के संभ्रांत लोग पुतिन से यह कहेंगे कि प्रतिबंध लगे तो वे विदेश में अपनी संपत्तियों का इस्तेमाल नहीं कर सकेंगे। इनमें बड़ी तादाद उन लोगों की है जो अपने बच्चों को पश्चिमी देशों के स्कूलों और विश्वविद्यालयों को पढ़ा रहे हैं। उनकी पढ़ाई-लिखाई बाधित हो सकती है।
 
ब्रिटेन की कार्रवाई
ब्रिटेन कुछ रूसी उद्योगपतियों को अपने यहां निवेश करने से रोक सकता है। उनके लंदन में रहने पर भी रोक लग सकती है।
 
लंदन के बैंकों में रूसियों की भारी रक़म जमा है। ब्रिटेन में रूसियों ने इतनी प्रॉपर्टी ख़रीद रखी है कि लंदन को 'लंदनग्राद' तक कहा जाने लगा है। ब्रितानी सरकार ने कहा है वह लंदन में इस संपत्ति के स्रोत का पता लगाएगी कि आख़िर यह नक़दी कहां से आ रही है?
 
हालांकि इनमें से कुछ ही आदेश अब तक लागू हुए हैं। कुछ अमेरिकी संगठन चाहते हैं कि ब्रिटेन इस मामले में और सख़्त रुख़ अपनाए।
 
पश्चिमी देशों को क्या दिक़्क़त आएगी?
 
यूक्रेन पर रूस की ओर से पूरी तरह हमला कर देने की स्थिति में पश्चिमी देशों की प्रतिक्रिया क्या होगी, इस पर सभी पश्चिमी देश एकमत नहीं दिखते।
 
हंगरी, इटली और ऑस्ट्रिया जैसे देशों के रूस से काफ़ी नज़दीकी रिश्ते हैं। यूक्रेन पर पूरी तरह हमला होने तक वे रूस पर प्रतिबंध नहीं लगाना चाहेंगे। रूस, चीन और दूसरे मित्र देशों की मदद से पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों का असर घटा सकता है।
 
सबसे अहम बात बात तो ये है कि पूरी तरह से आर्थिक प्रतिबंध लगाने वाले देशों को भी इसकी बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ सकती है। इसके विकल्प भी हो सकते हैं। लेकिन हर पश्चिमी देश इस विकल्प को अपनाने में दिलचस्पी लेता नहीं दिखता।

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