अफगानिस्तान में तालिबान के आने की आशंका से भारत समेत ये देश भी परेशान

बुधवार, 14 जुलाई 2021 (07:54 IST)
राघवेंद्र राव, बीबीसी संवाददाता
शंघाई सहयोग संगठन यानी शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन (एससीओ) के सदस्य देशों के विदेश मंत्री 13 और 14 जुलाई को ताजिकिस्तान की राजधानी दुशांबे में मिल रहे हैं और इन सभी देशों का ध्यान अफगानिस्तान पर टिका है।
 
इस दो दिन की बैठक के दूसरे दिन यानी 14 जुलाई को एससीओ के प्रतिनिधि अफगानिस्तान सरकार के साथ एक बैठक करेंगे, जिसमें देश में बन रहे हालात और तालिबान के सत्ता हासिल कर लेने की आशंकाओं और उससे पैदा होने वाली परिस्थितियों पर चर्चा करेंगे।
 
2018 में बनाया गया 'एससीओ-अफगानिस्तान संपर्क समूह' का काम आतंकवाद से मुक्त एक शांतिपूर्ण, स्थिर और आर्थिक रूप से समृद्ध अफगानिस्तान बनाने के प्रयासों के लिए प्रस्ताव और सुझाव देना है।
 
एससीओ के सदस्य देशों की अपनी-अपनी चिंताएँ
चीन
चीन के संसाधन संपन्न शिनजियांग प्रांत की सीमा अफगानिस्तान के साथ लगभग आठ किलोमीटर लंबी है। अफगानिस्तान में बने हालात को देखते हुए चीन की मुख्य चिंता यह है कि अगर तालिबान वाक़ई सत्ता पर काबिज़ हो जाता है तो चीन के शिनजियांग में सक्रिय अलगाववादी संगठन ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट (ईटीआईएम) को अफगानिस्तान में पनाह और वहाँ से सहायता मिल सकती है।
 
ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट एक छोटा इस्लामिक अलगाववादी समूह है जिसके बारे में कहा जाता है कि वह पश्चिमी चीन के शिनजियांग प्रांत में सक्रिय है और एक स्वतंत्र पूर्वी तुर्किस्तान स्थापित करना चाहता है।
 
शिनजियांग प्रांत चीन के जातीय अल्पसंख्यक वीगर मुसलमानों का घर है। अमेरिकी विदेश विभाग ने ईटीआईएम को 2006 में "जातीय वीगर अलगाववादी समूहों का सबसे उग्रवादी" संगठन बताया था और एक आतंकवादी संगठन घोषित किया था।
 
पिछले साल नवंबर में एक प्रमुख नीतिगत बदलाव में अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो ने (ईटीआईएम) पर लगा प्रतिबंध हटा दिया।
 
अफगानिस्तान में बड़े पैमाने पर निवेश की संभावनाओं पर भी नज़र रखते हुए चीन अफगानिस्तान को अपने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) में शामिल करने की कोशिश भी कर सकता है।
 
तालिबान के प्रवक्ता सुहैल शाहीन ने कहा है कि वे चीन को अफगानिस्तान के एक दोस्त के रूप में देखते हैं और उन्हें उम्मीद है कि बीजिंग से जितनी जल्दी हो सके पुनर्निर्माण कार्य में निवेश करने के बारे में बातचीत हो पाएगी।
 
तालिबान यह भी कह चुका है कि वो अब शिनजियांग से चीन के वीगर अलगाववादी लड़ाकों को अफगानिस्तान में प्रवेश करने की अनुमति नहीं देगा।
 
रूस
रूस की अफगानिस्तान को लेकर सबसे बड़ी चिंता यही है कि अमेरिकी फौजों की वापसी के बाद अफगानिस्तान कहीं इस्लामी कट्टरवाद का गढ़ न बन जाए। रूस का मानना है कि अगर अफगानिस्तान में इस्लामी कट्टरता बढ़ी तो पूरे मध्य एशिया के लिए एक बड़ा ख़तरा पैदा हो जाएगा और अगर ख़ून-ख़राबा हुआ तो उसके छींटे मॉस्को तक पहुंचेंगे।
 
तालिबान को एक संभावित सुरक्षा कवच मानकर रूस उससे अच्छे संबंध बनाकर चल रहा है। रूस के प्रभाव वाले देश जैसे कि ताजिकिस्तान और उज़्बेकिस्तान अफगानिस्तान के साथ सीमा साझा करते हैं और रूस यह आशंका जता चुका है कि आने वाले समय में अफगानिस्तान की सरहदों पर मानवीय और सुरक्षा संकट खड़े हो सकते हैं।
 
हाल ही में रूस का दौरा कर रहे तालिबान के एक प्रतिनिधिमंडल ने रूस को आश्वस्त करने की कोशिश की कि अफगानिस्तान में चल रहा घटनाक्रम मध्य एशिया क्षेत्र के लिए कोई ख़तरा पैदा नहीं करेगा।
 
तालिबान ने रूस को ये विश्वास भी दिलाया है कि वो अफ़्ग़ानिस्तान की ज़मीन का इस्तेमाल पड़ोसी देशों के खिलाफ नहीं होने देगा।
 
भारत
एक अनुमान के मुताबिक, अफगानिस्तान में इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं और संस्थानों के पुनर्निर्माण में भारत अब तक तीन अरब डॉलर से अधिक का निवेश कर चुका है।
 
भारत ने अफगानिस्तान के संसद भवन का निर्माण किया है और अफगानिस्तान के साथ मिलकर एक बड़ा बाँध भी बनाया है। भारत ने शिक्षा और तकनीकी सहायता भी दी है। साथ ही, भारत ने अफगानिस्तान के प्राकृतिक संसाधनों में निवेश को भी प्रोत्साहित किया है।
 
ज़ाहिर है, इस तरह के गहरे जुड़ाव के कारण भारत अफगानिस्तान में किए अपने निवेशों के लिए चिंतित है। तालिबान जिस तरह की हिंसा अफगानिस्तान में कर रहा है उस स्थिति में उसके सत्ता हासिल कर लेने की वैधता पर भारत सवाल उठा रहा है।
 
भारत की सबसे बड़ी चिंता पाकिस्तान के ख़िलाफ़ अपनी सामरिक बढ़त खोने को लेकर है। अफगानिस्तान में भारत के मज़बूत होने का एक मनोवैज्ञानिक और सामरिक दबाव पाकिस्तान पर रहता है, वहाँ भारत की पकड़ कमज़ोर होने का मतलब है पाकिस्तान का दबदबा बढ़ना।
 
पाकिस्तान
पाकिस्तान अफगानिस्तान के साथ लगभग 2611 किलोमीटर लंबी सीमा साझा करता है और उसकी मुख्य चिंता भी यही है कि उसके बॉर्डर पर अफगानिस्तान से आने वाले शरणार्थियों का जमावड़ा न लग जाए।
 
दूसरी चिंता ये है कि पाकिस्तानी तालिबान (तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान) जो पाकिस्तान की सेना के अभियानों के कारण अफगानिस्तान भाग गए थे कहीं शरणार्थियों के वेश में पाकिस्तान में लौट न आएँ।
 
हाल ही में पाकिस्तानी फ़ौज के प्रवक्ता मेजर जनरल बाबर इफ्तिख़ार ने कहा कि अगर अफगानिस्तान में गृह युद्ध होता है तो उसका सीधा असर पाकिस्तान पर पड़ सकता है और अफगानिस्तान में गृहयुद्ध की आशंकाओं को देखते हुए पाकिस्तानी फ़ौज ने पहले ही तैयारी कर ली है।
 
पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मोईद युसूफ कह चुके हैं कि अफगानिस्तान के हालात बेहद खराब और पाकिस्तान के नियंत्रण से बाहर हो चुके हैं।
 
पाकिस्तान पर लंबे समय से अफ़ग़ान तालिबान की सहायता करने का आरोप लगता रहा है। ऐसा माना जाता है कि इस समर्थन के पीछे मुख्य वजह अफगानिस्तान में भारत के दबदबे का मुकाबला करना रहा है।
 
जानकार मानते हैं कि नेटो सैनिकों के अफगानिस्तान से जाने के साथ ही पाकिस्तान अपनी खोई हुई ताक़त को फिर से हासिल करने की उम्मीद कर रहा है। वो ताकत जो उसने 2001 में तालिबान शासन के पतन के बाद अफगानिस्तान में खो दी थी।
 
उज़्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान
जहाँ उज़्बेकिस्तान की अफगानिस्तान के साथ 144 किलोमीटर लंबी सीमा है, वहीं ताजिकिस्तान की अफगानिस्तान के साथ सबसे लंबी 1344 किलोमीटर की सीमा है।
 
दोनों ही देश इस बात से चिंतित हैं कि अफगानिस्तान में हिंसा होने पर उनके लिए शरणार्थी संकट उभर सकता है। पिछले कुछ हफ़्तों में ऐसी कई घटनाएं हुई हैं जब अफगानिस्तान सरकार के सैनिकों ने तालिबान के डर से जान बचाने के लिए बॉर्डर के दूसरी तरफ़ इन दोनों देशों में जाकर पनाह ली है।
 
ताजिक सीमा के साथ लगता अफगानिस्तान एक बड़ा इलाका तालिबान के नियंत्रण में आ गया है। इसी के कारण ताजिकिस्तान 20 हज़ार रिज़र्व सुरक्षा बलों को अफगानिस्तान बॉर्डर पर तैनात कर रहा है।
 
उज़्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान जैसी चिंताएं तुर्कमेनिस्तान की भी हैं। तुर्कमेनिस्तान की 804 किलोमीटर लंबी सीमा अफगानिस्तान से लगती है और उसे भी यही आशंका है कि आने वाले दिनों में उसकी सीमाओं पर एक मानवीय और सुरक्षा संकट खड़ा हो सकता है लेकिन तुर्कमेनिस्तान शंघाई सहयोग संगठन का सदस्य नहीं है।
 
कज़ाकस्तान और किर्गिस्तान
रूस और चीन की ही तरह कज़ाकस्तान और किर्गिस्तान की अफगानिस्तान को लेकर बड़ी चिंता इस्लामी चरमपंथ को लेकर है।
 
इन दोनों देशों की सीमा भले ही अफगानिस्तान से न लगती हो लेकिन उन्होंने अपने देशों में हुए हमलों को अक्सर अफगानिस्तान से जोड़कर देखा है। किर्गिस्तान को इस्लामिक मूवमेंट ऑफ़ उज़्बेकिस्तान जैसे चरमपंथी संगठन सहित इस्लामी विद्रोही आंदोलनों से गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ा है।
 
कज़ाकस्तान काफी समय से अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में शामिल रहा है और आर्थिक रूप से मदद करता रहा है। कज़ाकस्तान नॉर्दर्न डिस्ट्रीब्यूशन नेटवर्क (एनडीएन) का भी भागीदार है। इस नेटवर्क के तहत अमेरिका, रूस, मध्य एशिया और काकेशस देशों के बीच अफगानिस्तान में रेल और ट्रक के माध्यम से सप्लाई होती है।
 
अफगानिस्तान में शांति की स्थापना का एक बड़ा असर ये हो सकता है कि मध्य एशिया के देश अपने प्राकृतिक गैस, तेल और कोयले जैसे संसाधनों को दक्षिण एशिया के भारत-पाकिस्तान जैसे देशों तक पहुंचा सकते हैं और यही वजह है कि इन मध्य एशियाई देशों की नज़रें अफगानिस्तान में उभर रही राजनीतिक स्थिति पर टिकी हैं।
 
क्या है शंघाई सहयोग संगठन?
अप्रैल 1996 में शंघाई में हुई एक बैठक में चीन, रूस, कज़ाकस्तान, किर्गिस्तान और ताजिकिस्तान आपस में एक-दूसरे के नस्लीय और धार्मिक तनावों से निबटने के लिए सहयोग करने पर राज़ी हुए थे। इसे शंघाई फ़ाइव कहा गया था।
 
शंघाई फ़ाइव के साथ उज़बेकिस्तान के आने के बाद इस समूह को शंघाई सहयोग संगठन कहा गया।
 
जुलाई 2005 में अस्ताना शिखर सम्मेलन में भारत, ईरान और पाकिस्तान को पर्यवेक्षक का दर्जा दिया गया। जुलाई 2015 में रूस के ऊफ़ा में शंघाई सहयोग संगठन ने भारत और पाकिस्तान को पूर्ण सदस्य के रूप में स्वीकार करने का फैसला किया।

भारत और पाकिस्तान ने जून 2016 में उज़्बेकिस्तान के ताशकंद में दायित्वों के ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए जिससे पूर्ण सदस्यों के रूप में एससीओ में शामिल होने की औपचारिक प्रक्रिया शुरू हुई और 9 जून 2017 को अस्ताना में एक ऐतिहासिक शिखर सम्मेलन में भारत और पाकिस्तान आधिकारिक तौर पर पूर्ण रूप से एससीओ में शामिल हो गए।
 
मंगोलिया, बेलारूस, अफगानिस्तान और ईरान शंघाई सहयोग संगठन में पर्यवेक्षक हैं, जबकि आर्मेनिया, अजरबैजान, तुर्की, कंबोडिया, नेपाल और श्रीलंका को संवाद भागीदार का दर्जा मिला है।
 

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