तालिबान के कब्जे में और मानवीय संकट की गिरफ्त में अफगानिस्तान, संयुक्त राष्ट्र क्या कर रहा है?

BBC Hindi
बुधवार, 18 अगस्त 2021 (08:12 IST)
बात आज से लगभग 76 साल पहले यानी 1945 की है। द्वितीय विश्व युद्ध ख़त्म होने को था। कई देश बर्बाद हो गए थे और दुनिया शांति चाहती थी। तब 50 देशों के प्रतिनिधियों ने मिलकर एक चार्टर पर हस्ताक्षर किए और इस तरह एक नई अंतरराष्ट्रीय संस्था की नींव रखी गई।
 
उम्मीद की गई कि यह संस्था पहले और दूसरे विश्वयुद्ध जैसा कोई तीसरा युद्ध नहीं होने देगी। दुनिया आज इसे युनाइटेड नेशन्स (यूएन) या संयुक्त राष्ट्र के नाम से जानती है। यूएन के बारे में ये जानकारी उसकी आधिकारिक वेबसाइट पर दी गई है।
 
आज जब अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान ने बलपूर्वक क़ब्ज़ा कर लिया है और वहाँ गंभीर मानवीय संकट पैदा हो गया है तब ऐसे में संयुक्त राष्ट्र के उस मक़सद पर एक बार फिर सवाल उठ रहे हैं, जिसके तहत 24 अक्टूबर, 1945 को इसकी स्थापना की गई थी।
 
अगर गूगल ट्रेंड्स और अन्य सोशल मीडिया प्लैटफ़ॉर्म्स पर नज़र डालें तो आम लोगों से लेकर बुद्धिजीवी, कूटनीतिज्ञ और पत्रकार सभी यह सवाल पूछ रहे हैं- यूएन कहाँ है?
 
संयुक्त राष्ट्र कहाँ है?
इस सवाल का जवाब ढूँढने के लिए सबसे पहले संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटेनियो गुटेरेश के हालिया बयानों पर नज़र डाल लेते हैं:
•''न हम अफ़गानिस्तान के लोगों को छोड़ सकते हैं और न ही हमें उन्हें छोड़ना चाहिए।''
•''युद्ध की राह पर चलने वालों के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय का संदेश स्पष्ट होना चाहिए- सैन्यबल के ज़रिए सत्ता हथियाना आपके कमज़ोर इरादों का सूचक है।''
•''मैं तालिबान से अपील करता हूँ कि वो तत्काल प्रभाव से हिंसा रोक दें। मैं उनसे अपील करता हूँ कि वो अफ़गानिस्तान और अफ़गानिस्तान के लोगों के लिए सद्भावना के साथ आगे की बातचीत करें।''
 
गुटेरेश ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) से अफ़गानिस्तान में वैश्विक आतंक के ख़तरों को ख़त्म करने के लिए 'अपने सभी तरीके' इस्तेमाल करने और यह सुनिश्चित करने को कहा कि वहाँ मानवाधिकारों का उल्लंघन न हो।
 
संयुक्त राष्ट्र प्रमुख ने दुनिया के अन्य देशों से कहा कि वो अफ़गान शरणार्थियों को स्वीकार करें और उन्हें युद्ध से जर्जर उनके देश डिपोर्ट न करें।
 
इस बीच संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद अफ़गानिस्तान के मुद्दे पर दो बैठकें भी कर चुका है जिनमें तालिबान से अपील की गई कि वो इस संघर्ष का अंत राजनीतिक हल निकालकर करे और अफ़ग़ानिस्तान को एक बार फिर चरमपंथियों की पनाहगाह ना बनने दे।
 
प्रोफ़ेसर हर्ष वी पंत दिल्ली स्थित थिंक टैंक 'ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन में स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम' के प्रमुख हैं। वो कहते हैं, "यह कितनी विरोधाभास और विडंबना वाली बात है कि संयुक्त राष्ट्र तालिबान से अपील कर रहा है। जो तालिबान सशस्त्र बलों की नहीं सुनता वो भला संयुक्त राष्ट्र की अपील क्यों सुनेगा?"
 
अब यहाँ अहम सवाल यह है कि कोई ठोस कार्रवाई के बजाय यूएन बार-बार सिर्फ़ अपील करने पर मजबूर क्यों हो रहा है? इसका एक वाक्य में संक्षिप्त जवाब यह है कि संयुक्त राष्ट्र कोई स्वतंत्र संस्था या एजेंसी नहीं है जो कोई स्वतंत्र निर्णय ले सके। यानी यूएन अगर अभी कोई ठोस क़दम उठाने में अक्षम है तो यह उसकी 'संरचनात्मक समस्या' है।
 
अब इस संरचनात्मक समस्या को थोड़ा विस्तार से समझने की कोशिश करते हैं: अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा और शांति जैसे मुद्दों से निबटने की ज़िम्मेदारी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) की होती है, जो संयुक्त राष्ट्र के छह सबसे महत्वपूर्ण अंगों में से एक है।
 
साल 1945 से लेकर अब तक संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के अनुसार यूएनएससी के पाँच स्थायी सदस्य हैं- अमेरिका, रूस, चीन, फ़्रांस और ब्रिटेन। इन्हें पी-5 के नाम से भी जाना जाता है।
 
इन पाँचों स्थायी सदस्यों को 'वीटो पावर' हासिल है। यानी अगर यूएनएससी कोई प्रस्ताव पारित करना चाहे तो उस पर सभी स्थायी सदस्यों की मुहर लगनी चाहिए।
 
इसका सीधा मतलब यह हुआ कि अगर कोई एक भी सदस्य प्रस्ताव पर आपत्ति ज़ाहिर करते हुए अपने वीटो पावर का इस्तेमाल कर दे तो प्रस्ताव पास नहीं हो पाएगा।
 
यानी कोई भी क़दम उठाने के लिए या किसी भी कार्रवाई के लिए संयुक्त राष्ट्र अपने सदस्य देशों पर निर्भर होता है, ख़ासकर अपने पाँच स्थायी सदस्यों पर।
 
ज़ाहिर है, ऐसा बहुत कम मौकों पर हो पाता है जब यूएनएससी के सभी स्थायी सदस्य किसी मुद्दे पर एकमत हों। यही वजह है कि सुरक्षा परिषद कोई ठोस क़दम उठाने से अक्सर चूक जाता है।
 
इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र के साथ एक और बड़ी समस्या है। हर्ष पंत कहते हैं, "शांति और सुरक्षा से जुड़े मामलों में यूएन के सामने एक अजीब-सी स्थिति पैदा हो जाती है। अगर कहीं पर युद्ध हो रहा है और यूएन उसे रोकना चाहे तो भी वो वहाँ सीधे दख़ल नहीं दे सकता। इसके लिए युद्ध में शामिल सभी पक्षों को यूएन की भूमिका पर राज़ी होना पड़ेगा।"
 
"अगर सभी पक्ष संयुक्त राष्ट्र से कहें कि वो युद्ध ख़त्म करने या शांति कायम करने में उनकी मदद करे तब वो वहाँ शांति सेना भेज सकता है। लेकिन यहाँ भी यूएन का काम सिर्फ़ 'पीसकीपिंग' का होता है, 'पीस इनफ़ोर्समेंट' का नहीं। दोनों में फ़र्क है। यूएन युद्धग्रस्त इलाकों में शांति बहाल करने में मदद कर सकता है, शांति सुनिश्चित करने का दबाव नहीं बना सकता।"
 
अफ़गानिस्तान में दख़ल क्यों नहीं दे सकता यूएन?
अब अगर बात विशेष रूप से अफ़गानिस्तान की करें तो वहाँ स्थिति की जटिलता के कारण संयुक्त राष्ट्र का दख़ल और ज़्यादा मुश्किल हो जाता है।
 
ऐसे जटिल मामलों में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका 'परिस्थितिजन्य' हो जाती है यानी जैसी परिस्थिति हो, उसी से हिसाब से क़दम उठाना पड़ता है। हर परिस्थिति में एक जैसी कार्रवाई नहीं की जा सकती।
 
हर्ष पंत कहते हैं, "जहाँ दुनिया की सबसे बड़ी ताक़तों का दख़ल हो, वहाँ संयुक्त राष्ट्र की भूमिका और ज़्यादा सिमट जाती है। अफ़गानिस्तान का मामला भी कुछ ऐसा ही है।"
 
अमेरिका ने अफ़गानिस्तान में जिस तालिबान के ख़िलाफ़ 20 वर्षों तक सैन्य कार्रवाई की, चीन और रूस उसी तालिबान को स्वीकृति देने की राह पर हैं। अमेरिका के रिश्ते चीन और रूस के साथ अच्छे नहीं हैं, यह भी किसी से छिपा नहीं है।
 
प्रोफ़ेसर पंत एक उदाहरण देकर समझाते हैं, "मान लीजिए कि अगर अभी सुरक्षा परिषद का कोई स्थायी सदस्य तालिबान के ख़िलाफ़ कोई प्रस्ताव लाना भी चाहे तो लगभग तय है कि चीन और रूस उस पर तुरंत वीटो कर देंगे और प्रस्ताव अपने आप ख़ारिज हो जाएगा।"
 
दुनिया की महाशक्तियों के दख़ल से संयुक्त राष्ट्र किस कदर निष्प्रभावी हो जाता है, उसकी मिसाल इतिहास में शीत युद्ध के पन्नों को पलटने से मिलती है।
 
हर्ष पंत कहते हैं, "शीत युद्ध के दौरान जब रूस और अमेरिका वैचारिक युद्ध लड़ रहे थे तब संयुक्त राष्ट्र लगभग डीफ़ंक्ट (निष्क्रिय) हो गया था।"
 
तो फिर संयुक्त राष्ट्र की प्रासंगिकता क्या है?
जब 'शांति का संरक्षक' (गार्डियन ऑफ़ पीस) माना जाने वाला संयुक्त राष्ट्र दुनिया में शांति क़ायम करने के अपने बुनियादी मक़सद में ही नाकाम है तो फिर इसकी प्रासंगिकता क्या रह जाती है?
 
कई मौकों पर पूछा जाने वाला यह सवाल एक बार फिर पूछा जा रहा है। सोशल मीडिया पर यूएन को 'यूज़लेस' (बेकार) बताने वाले मीम्स शेयर हो रहे हैं और अफ़गानिस्तान में जारी संकट के बीच इसकी ज़बरदस्त आलोचना हो रही है।
 
मिस्र, सऊदी अरब और ब्रिटेन जैसे देशों में राजदूत के तौर पर अपनी सेवाएं दे चुके पिनाकी चक्रवती संयुक्त राष्ट्र की आलोचना को 'वाजिब' ठहराते हैं।
 
उन्होंने बीबीसी से बातचीत में कहा, "यह तो सच है कि संयुक्त राष्ट्र अफ़गानिस्तान में शांति बहाल करने के लिए कुछ ख़ास नहीं कर पाया है। इसलिए इन आलोचनाओं को ग़लत नहीं ठहराया जा सकता।" वो कहते हैं, "अगर सच कहें तो यूएन एक धीमी मौत मर रहा है।"
 
हालाँकि वो भी ये दोहराते हैं कि संयुक्त राष्ट्र आख़िरकार अपने सदस्य देशों से बना है और उन्हीं के मुताबिक़ काम भी करता है। ऐसे में शांति क़ायम न करने का 'असली दोषी' कोई है तो वो यूएन के पाँच स्थायी सदस्य हैं।
 
पिनाकी चक्रवर्ती संयुक्त राष्ट्र और सुरक्षा परिषद के ढाँचे में सुधार पर ज़ोर देते हैं। वो कहते हैं, "आज 2021 में भी सुरक्षा परिषद के वही पाँच सदस्य हैं जो 1945 में थे। उस वक़्त की दुनिया और आज की दुनिया में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ है। अब पावर शिफ़्ट हो चुका है, अंतरराष्ट्रीय राजनीति में दूसरे देशों की भूमिका का विस्तार हुआ है और नए देश सामने आए हैं। ऐसे में यूएनएससी में कोई बदलाव न होना इसकी सबसे बड़ी कमी है।"
 
चक्रवर्ती कहते हैं, "अफ़गानिस्तान के हालात ये बता रहे हैं कि सुरक्षा परिषद में सुधार का यही वक़्त है। बिना किसी बदलाव के यह 'डायनासोर' जैसा बनता जा रहा है। बिना ढाँचागत बदलाव के संयुक्त राष्ट्र 'पी-5' देशों के निहित स्वार्थ और एजेंडे के आस-पास ही घूमता रहेगा।"
 
यूएनएससी में सुधार भी टेढ़ी खीर
यह पहली बार नहीं है जब संयुक्त राष्ट्र और सुरक्षा परिषद में ढाँचागत सुधार और अन्य देशों को मंच देने की बात होती रही है।
 
जर्मनी, जापान और भारत जैसे कई देश हैं जिन्हें यूएनएससी में स्थायी सीट मिलने के पक्ष में मज़बूत तर्क दिए जाते रहे हैं। लेकिन इस बदवाल या सुधार को लागू करने के रास्ते में भी संयुक्त राष्ट्र की संरचना ही आड़े आती है।
 
यूएनएससी में किसी भी बदलाव के लिए इसके स्थायी सदस्यों को एकमत होना ज़रूरी है यानी यहाँ भी घूम-फिरकर वही समस्या मुंह बाए नज़र आती है।
 
सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य वैसे तो इसमें सुधारों की मौखिक वकालत ख़ूब करते हैं, लेकिन ये कौन से सुधार होने चाहिए, इस पर वो साथ नहीं आ पाते।
 
पिनाकी चक्रवर्ती कहते हैं, "इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि यूएनएससी के स्थायी सदस्य दूसरे देशों के लिए जगह नहीं बनाना चाहते। वो वहाँ अपना एकाधिकार बनाए रखना चाहते हैं।"
 
सुरक्षा परिषद में नए देशों को जगह मिलने की माँग के अलावा इसके स्थायी सदस्यों के वीटो के अधिकार की आलोचना भी होती रही है। विदेश नीति के जानकारों का एक तबका वीटो पावर को संयुक्त राष्ट्र का 'सबसे अलोकतांत्रिक हिस्सा' कहता है।
 
आलोचकों का मानना है कि वीटो पावर की वजह से संयुक्त राष्ट्र युद्ध अपराध और मानवाता के विरुद्ध अपराध जैसी स्थितियों में भी अपने स्थायी सदस्यों और उनके सहयोगियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं कर पाता- जैसा कि अभी अफ़गानिस्तान के मामले में हो रहा है।
 
यूएन का हाल भी क्या लीग ऑफ़ नेशन्स वाला होगा?
संयुक्त राष्ट्र की सीमाओं और इसके काम करने के तरीके को देखकर यह आशंका जताई जाने लगी है कि कहीं इसका हाल भी 'लीग ऑफ़ नेशन्स' जैसा न हो जाए।
 
एनडीटीवी के पत्रकार अक्षय डोंगरे ने ट्वीट किया है, "संयुक्त राष्ट्र नया लीग ऑफ़ नेशन्स है। बस इसके सदस्य ज़्यादा हैं।"
 
'लीग ऑफ़ नेशन्स' संयुक्त राष्ट्र की पूर्ववर्ती संस्था थी। यह कई देशों के सहयोग से बनी दुनिया की ऐसी पहली संस्था थी जिसका मक़सद युद्ध रोकना और शांति क़ायम करना था। इसकी स्थापना साल 1920 में पैरिस शांति सम्मेलन के बाद हुई थी, जिसके बाद प्रथम विश्व युद्ध ख़त्म हुआ था।
 
हालाँकि लीग ऑफ़ नेशन्स के होते हुए भी द्वितीय विश्य युद्ध हुआ। यानी ज़ाहिर है कि यह अपने मक़सद में नाकाम रहा।
 
लीग ऑफ़ नेशन्स के असफल होने के पीछे सबसे बड़ी वजह इसकी ढाँचागत कमज़ोरी बताई जाती है। यह भी तभी कोई कार्रवाई कर सकता था जब इसके सदस्य एकमत हों।
 
मौजूदा वक़्त में भी ऐसा शायद ही कोई मुद्दा हो जिस पर सुरक्षा परिषद के सभी सदस्य एकमत हों। यही कारण है कि यह आशंका जताई जा रही है कि कहीं संयुक्त राष्ट्र का अंजाम भी लीग ऑफ़ नेशन्स जैसा न हो जाए।
 
तो क्या यूएन ने अफ़गानिस्तान में कुछ नहीं किया?
यह कहना भी उचित नहीं होगा कि संयुक्त राष्ट्र ने अफ़गानिस्तान में कोई काम नहीं किया है। राजनीतिक हस्तक्षेप या संघर्ष रोकने में यूएन का सीधे भले कोई दख़ल न रहा हो, लेकिन अफ़गानिस्तान में मानवीय मदद मुहैया कराने के लिए इसकी अलग-अलग एजेंसियों ने काफ़ी काम किया है।
 
फिर चाहे वो चिकित्सा मुहैया कराना हो, लड़कियों के लिए शिक्षा का काम करना हो या हिंसा प्रभावित परिवारों के लिए पुर्नवास की व्यवस्था कराना।
 
मगर साथ ही यह समझना भी ज़रूरी है कि किसी देश में लगातार जारी युद्ध और हिंसा से संयुक्त राष्ट्र की तरफ़ से मिलने वाली मानवीय मदद पर भी बुरा असर पड़ता है।
 
मिसाल के तौर पर, अभी अफ़गानिस्तान में यूएन की एजेंसियाँ बहुत कम स्टाफ़ के साथ काम कर रही हैं।
 
वैसे तो तालिबान ने भरोसा दिलाया है कि राहत और बचाव का काम करने वाली एजेंसियों पर किसी तरह का हमला नहीं किया जाएगा, लेकिन यह भरोसा आने वाले वक़्त में कितना बरक़रार रह पाता है, इसका इंतज़ार करना होगा।
 
रही बात अफ़गानिस्तान में अफ़गानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र के प्रत्यक्ष दख़ल की तो अभी के समय में यह स्थायी सदस्यों की राजनीतिक इच्छाशक्ति के बिना यह मुमक़िन नहीं है।
 
कुल मिलाकर अगर अफ़गानिस्तान संकट करने में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका की बात करें तो इसे साल 1997 में तत्कालीन महासचिव कोफ़ी अन्नान की एक टिप्पणी से समझा जा सकता है।
 
उन्होंने कहा था, "ऐसा कहा जा सकता है कि अफ़गानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका, कोई ठोस कार्रवाई न होने के पीछे एक वजह बताने से थोड़ी ज़्यादा है।"
 

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