11 मई से सुप्रीम कोर्ट में ट्रिपल तलाक़ के मुद्दे पर सुनवाई शुरू होगी। जनवरी, 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में स्वत: संज्ञान लिया, क्योंकि ऐसा समझा गया कि मुस्लिम महिलाओं के हितों की रक्षा करने के लिए सदियों से चली आ रही इस परंपरा में दख़ल दिए जाने की ज़रूरत है क्योंकि ये प्रथा कई मुस्लिम महिलाओं की दुर्दशा के लिए ज़िम्मेदार है।
सर्वोच्च न्यायालय के सामने इस मुद्दे पर तीन पार्टियां हैं- 1.पहले तो सरकार है, जिसने इस प्रथा की सताई महिलाओं की हिफ़ाज़त करने की ज़िम्मेदारी ली है। 2.दूसरी पार्टी ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और जमाते उलेमा-ए-हिंद है, इन लोगों ने ख़ुद किसी भी क़ीमत पर शरीयत की सुरक्षा का बीड़ा उठाया है क्योंकि उनके मुताबिक़ 'ये अल्लाह का क़ानून' है और कोई सरकार इसमें दख़ल नहीं दे सकती है। 3.तीसरी पार्टी हैं कुछ मुस्लिम महिला संगठन जो इस्लाम में महिलाओं के अधिकार की वकालत करते हुए सरकार से कुछ मुद्दों पर असहमति के बावजूद उसके साथ खड़े हैं।
17 साल पहले, राष्ट्रीय महिला आयोग की सदस्या के तौर पर साल 2000 में, मैंने एक रिपोर्ट लिखी थी- 'भारत में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति- बेज़ुबानों की आवाज़'। ये रिपोर्ट देश भर के 18 राज्यों की मुस्लिम महिलाओं के बीच हुई जनसुनवाई पर आधारित थी, इसमें हज़ारों मुस्लिम महिलाएं शामिल हुई थीं।
मुस्लिम महिलाओं की समस्या : इन महिलाओं की सबसे बड़ी समस्या ग़रीबी थी और इसके बाद पर्सनल लॉ के तीन मामलों पर उनकी चिंता थी- एकतरफ़ा एक साथ दिए जाने वाले तीन तलाक़ से, कई शादियों से और मेहर और गुज़ारा भत्ता नहीं मिलने से। इन निष्कर्षों के आधार पर, सरकार, मुस्लिम धर्मगुरुओं और सिविल सोसायटी को इस समस्या को सुलझाने के लिए अनुशंसा भेजी गई थी।
ये समुदाय के लिए ज़रूरी है कि वो मुस्लिम महिलाओं की स्पष्ट और तेज़ आवाज़ को सुनें। मुस्लिम महिलाएं एक झटके से एक साथ कहे गए एकतरफ़ा तीन तलाक़ को लेकर बेहद डरी हुईं थीं, उनमें अपने पति के फिर से शादी करने को लेकर डर था, क्योंकि बिना मेहर और गुज़ारा भत्ता के रहने की कल्पना डराने वाली है।
इस रिपोर्ट में मैंने मुसलमानों की धार्मिक किताब 'क़ुरान' का सीधा संदर्भ देते हुए बताया था कि तलाक़ और दोबारा शादी करने की शर्तें बहुत मुश्किल हैं। शरिया क़ुरान के कुछ हिस्सों को लेकर बना है, ऐसे में क़ुरान को ही अंतिम सत्य माना जाना चाहिए। वास्तविकता ये है कि इस्लाम में औरतों को 1400 साल पहले तब अधिकार दिए गए थे जब दुनिया इस मामले में बहुत पिछड़ी हुई थी, जो इस बात का संकेत भी था कि समय के साथ महिलाओं के अधिकारों में बढ़ोत्तरी होगी और वो एक दिन पुरुषों के स्तर पर आ जाएंगी।
मेरी रिपोर्ट में इस बात पर ज़ोर था कि ये मुस्लिम समुदाय का दायित्व है कि वो शरीया के सभी क़ानूनों का पालन करते हुए इस्लाम की गरिमा को सुनिश्चित रखें। इस रिपोर्ट को महिलाओं की सबसे बड़ी संस्था ने तैयार किया था, उसके बावजूद ये रिपोर्ट बाक़ी रिपोर्टों की तरह कहीं दब गई।
बीतते समय के साथ, दुनिया भर में इस्लाम की पहचान महिलाओं को सबसे ज़्यादा अधिकार और सम्मान देने वाले मज़हब के बजाय एक ऐसे मज़हब की बन गई जो महिला विरोधी है।
वर्चस्व क़ायम रखने का खेल
मैंने अपने घर के उदारवादी और पढ़े लिखे पुरुषों और महिलाओं से क़ुरान की शिक्षा ली है, उसे पढ़ा है, समझा है और सीखा है। ये वे लोग हैं जो अपने प्रोफ़ेशन में बेहद कामयाब हैं साथ ही इस्लाम के अच्छे जानकार भी हैं। उन लोगों ने मुझे बताया, "अल्लाह के शब्दों को अपनी रोशनी में देखना और समझना चाहिए।"
इस्लाम जैसे धर्म में बिचौलियों की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि इस्लाम के पास संगठित चर्च, पोप और आर्चबिशप मौजूद नहीं हैं। उन्होंने मुझे ये भी समझाया कि इस्लाम की ये ताक़त पैग़ंबर मोहम्मद और उनके चार ख़लीफ़ाओं के बाद जल्द ही ख़त्म हो गई। हम इस्लाम की मूल भावना जो सहज भी है और अच्छी भी, उसे ही भूल गए। ऐसे में इस्लाम को मानने वाली के नाते मैं कह सकती हूं कि जो लोग इस्लाम को विश्लेषित करने का दावा कर रहे हैं, उनका कोई काम नहीं है।
मौजूदा मामले, में, बस दो दिनों के बाद अदालत में सुनवाई शुरू होगी। ये भी कहा जा सकता है कि निर्दोषों की क़ीमत पर वर्चस्व क़ायम रखने का खेल शुरु होगा। सरकार सर्वोच्च न्यायालय में ट्रिपल तलाक़ को ख़त्म करने की दलील देगी, क्योंकि सताए लोगों के अधिकारों की रक्षा करने का दायित्व सरकार का है।
वहीं मुस्लिम संगठन ये दलील देंगे कि किसी भी धार्मिक समुदाय के पर्सनल लॉ में किसी तरह का दख़ल संविधान का उल्लंघन होगा, लिहाज़ा याचिका ख़ारिज की जाए। मुस्लिम महिलाओं का समूह, सरकार का पक्ष लेगा लेकिन सवाल तो सरकार के उद्देश्य को लेकर बना रहेगा कि वह अचानक से मुस्लिम महिलाओं की मसीहा बनने की कोशिश क्यों कर रही है।
कहां रह जाएंगी मुस्लिम महिलाएं?
हालांकि ये शीर्ष ख़बर रहेगी और मामले के सभी पक्ष चर्चा में भी आ जाएंगे। लेकिन इन सबसे शायरा बानो को क्या मिलेगा। उत्तराखंड की रहने वाली शायरा बानो ने ही सबसे पहले सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाख़िल की थी। लेकिन क्या इससे हज़ारों मुस्लिम महिलाओं की मुश्किलें दूर होंगी? उनकी ग़रीबी और आजीविका का क्या होगा?
इन दिनों जिस तरह से सांप्रदायिक तनाव की आंच में देश के मुस्लिम रह रहे हैं उन पर क्या असर होगा?
ये सब के सब ट्रिपल तलाक़ की बहस और बहस की चुनौती देने वाली दलीलों में पिस जाएंगे, मानो ट्रिपल तलाक़ ही उनके जीवन की इकलौती चुनौती रह गई है। जब एक दूसरे पर शब्दों के तीर चलाने का खेल ख़त्म होगा तो संभावना यही है कि मुस्लिम महिलाएं वहीं रह जाएंगी, जहां वे आज हैं।
(सैय्यदा हमीद मुस्लिम विमेंस फ़ोरम की संस्थापिका हैं और योजना आयोग की पूर्व सदस्या हैं। आलेख में उनके निजी विचार हैं।)