कोरोना के आने से पहले भी दुनियाभर में यह बहुत बड़ा सवाल था कि आनेवाले दिनों में रोज़गार कैसे मिलेगा, कहां मिलेगा और किस किसको मिलेगा? अर्थशास्त्र में नोबल पुरस्कार पानेवाले दंपती अभिजीत बनर्जी और एस्टर डूफलो तो तभी कह चुके थे कि अब दुनियाभर की सरकारों को अपनी बड़ी आबादी को सहारा देने का इंतज़ाम करना पड़ेगा, क्योंकि सबके लिए रोज़गार नहीं रह पाएगा।
बड़ी बहस इस बात पर चल रही थी कि कृत्रिम मेधा यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के ज़रिए क्या-क्या हो सकता है और कौन से लोग हैं जिनकी नौकरियां किसी कम्प्यूटर या रोबोट के हाथ में नहीं जा पाएंगी। एक तरफ़ दुनियाभर के उद्योगपति कनेक्टेड फ़ैक्टरी और पूरी तरह मशीनों से चलने वाले बिज़नेस के सपने देख रहे थे तो दूसरी तरफ़ समाज और सरकारें इस चिंता में थीं कि लाखों करोड़ों नौजवानों के रोज़गार का इंतज़ाम कैसे किया जाए।
युवाल नोआ हरारी अपनी महत्वपूर्ण किताब 21 Lessons for the 21st century में 21वीं सदी के जो 21 सबक गिनाते हैं, उनमें दूसरे ही नंबर पर है रोज़गार और आज की नई पीढ़ी के लिए यह खौफ़नाक चेतावनी कि- 'जब तुम बड़े होगे तो शायद तुम्हारे पास कोई नौकरी न हो!'
हालांकि वो यह मानते हैं कि निकट भविष्य में कम्प्यूटर और रोबोट शायद बड़े पैमाने पर इंसानों को बेरोज़गार न कर पाएं, लेकिन यह आशंका कोई बहुत दूर की कौड़ी भी नहीं है। वो 2050 की दुनिया की कल्पना कर रहे थे।
डेटा को 'नया तेल' कहने के पीछे वजह क्या है?
इसी तरह एलेक रॉस ने अगले 10 साल की चुनौतियों का हिसाब जोड़ा। उन्होंने इस बात को बारीकी से पढ़ा कि इस दौरान जो नई तकनीक आएगी और जो नई खोज होंगी या इस्तेमाल में लाई जाएंगी, उनसे हमारे घर यानी रहन सहन और हमारा दफ़्तर यानी काम करने का तरीक़ा कैसे-कैसे बदलेगा।
दुनिया कैसे बदलेगी, डेटा को नया तेल क्यों कहा जा रहा है और कम्प्यूटर की प्रोग्रामिंग से बढ़कर इंसान की प्रोग्रामिंग तक का खाका खींचती रॉस की किताब The Industries of the future एक तरह की गाइड है। तेज़ी से बदलती दुनिया में न सिर्फ़ बचे रहने बल्कि तरक्की भी करते रहने के लिए।
इसमें डेटा का दम भी दिखता है, रोबो का डर भी दिखता है, कम्प्यूटर कोड का हथियार की तरह इस्तेमाल होने की आशंका भी है, ज़मीनी या आसमानी लड़ाई की जगह वर्चुअल या साइबर युद्ध का खौफनाक नज़ारा भी है और तीसरी दुनिया या विकासशील देशों के लिए यह चुनौती भी कि वो अमरीका की सिलिकॉन वैली के मुकाबले अपने देशों में वो क्या खड़ा कर पाएंगे, जहां नौजवानों की मेधा और कौशल का सही इस्तेमाल हो सके और वो अपने समाज का भविष्य सुरक्षित करने में मददगार बनें। लेकिन यह सारी कहानी मार्च 2020 में काफ़ी बदल गई।
जो नहीं होना था वो हो चुका है। दुनियाभर के लोग अब तक के इतिहास के सबसे बड़े संकट से जूझ रहे हैं और वो तमाम आशंकाएं सच हो चुकी हैं जिनकी कल्पना की जा रही थी। आधी से ज़्यादा दुनिया एक साथ तालाबंदी की चपेट में आ चुकी है।
दुनियाभर में विमान सेवाएं, होटल, टूरिज्म और ट्रेन या बसें तक एक साथ बंद हो जाना तो कल्पना से भी परे की चीज़ है। इसके साथ ही रोज़ी रोटी का संकट भी गहरा गया और उसके साथ जुड़े सवाल भी। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन यानी ILO लगातार हिसाब लगा रहा है कि कोरोना से दुनियाभर में रोज़गार पर क्या असर पड़ा?
अप्रैल के अंत में उसने हिसाब जोड़ा कि इस साल की पहली तिमाही यानी जनवरी से मार्च तक दुनियाभर में क़रीब साढ़े 18 करोड़ नौकरियां जा चुकी थीं। यह फुल टाइम नौकरियों का हिसाब है, दिहाड़ी कामगारों का नहीं। लेकिन अगस्त में जारी उसकी कोरोना रिपोर्ट का पांचवां संस्करण और खौफ़नाक तस्वीर दिखाता है।
उनका कहना है कि जैसा सोचा था, जैसा दिख रहा था, हाल उससे कहीं ज़्यादा ख़राब है। साल की दूसरी तिमाही यानी अप्रैल से जून के बीच दुनियाभर में 14 प्रतिशत काम नहीं हो पाया जो 40 घंटे के हफ़्ते के हिसाब से 48 करोड़ नौकरियां जाने के बराबर का नुक़सान है।
इसमें भारत का हिस्सा कितना है ये नहीं बताया गया, लेकिन भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका और बांग्लादेश यानी दक्षिण एशिया में कुल मिलाकर इन तीन महीनों में साढ़े तेरह करोड़ नौकरियां जाने का अंदाज़ा इस रिपोर्ट में लगाया गया है।
अभी आगे क्या क्या हो सकता है?
आईएलओ ने 3 संभावनाएं जताई हैं। अगर सब कुछ अच्छा रहता है यानी कोरोना का संकट हल होने की तरफ़ बढ़ता है और इकोनॉमी पटरी पर लौटने लगती है। तो भी अक्तूबर से दिसंबर के बीच दुनियाभर में 34 लाख नौकरियां जाने जैसा नुक़सान होगा। अगर सब कुछ अच्छा नहीं होता, लेकिन हालात ख़राब भी नहीं हुए, तब यह संख्या 14 करोड़ हो सकती है। अगर हालात बिगड़ते हैं, तब डर है कि 34 करोड़ और लोगों को रोज़गार से हाथ धोना पड़ सकता है। इनमें से कौन सी संभावना सच के ज़्यादा क़रीब है?
इसका जवाब अभी दुनिया में कहीं कोई नहीं दे सकता। जितने जानकारों से पूछो, सबका यही कहना है कि आप हमें बताइए कि कोरोना का ख़तरा कब ख़त्म होगा, उसके बाद हम आपको हर सवाल का जवाब दे सकते हैं। यानी जवाब किसी के पास है नहीं।
इसके बावजूद अंदाज़ा लगाना भी जारी है और अच्छे या ख़राब हालात के हिसाब से तैयारी करना भी। जैसा शुरू में बताया, नई दुनिया में नए अंदाज़ से जीने की तैयारी तो पहले से ही चल रही थी कोरोना ने बस इसकी शिद्दत और रफ़्तार बढ़ा दी है।
तो इस वक़्त सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों की जान कैसे बचाई जाए। और उसके बाद आता है यह सवाल कि लोगों को रोज़गार कैसे दिया जाए या जो लोग रोज़गार में हैं, उनका काम बचाया कैसे जाए? और अगर नौकरी चली ही जाए, तो नए रोज़गार का इंतजाम कैसे हो?
कोरोना के बाद यह सवाल और गंभीर इसलिए भी हो गया है क्योंकि बहुत से कारोबार तो बिल्कुल ठप ही हो गए हैं। जब शुरू भी होंगे तो कितना चलेंगे, इस पर शक है। और जो चलने लगे हैं, उनमें भी कहां कितनी नौकरियां निकलेंगी और किस तरह के लोगों को काम मिलेगा, इसी पर इस वक़्त सबसे ज़्यादा चिंता और विचार विमर्श हो रहा है।
जितनी भी रिसर्च रिपोर्ट आ रही हैं, उन सबमें एक लिस्ट है कोविड प्रूफ़ जॉब्स यानी ऐसे कामों की जिन पर कोरोना संकट का कोई बुरा असर नहीं हुआ। इनमें ज़्यादातर एफ़एमसीजी, एग्रो केमिकल, केमिकल, ई कॉमर्स, हेल्थकेयर, हाईजीन, लॉजिस्टिक्स, ऑनलाइन ट्रेनिंग और एजुकेशन और आईटी शामिल हैं। इन सबके साथ सरकारी नौकरियों को तो रख ही लीजिए। ख़ासकर भारत में।
लेकिन इसके साथ आप एक लिस्ट औऱ देख सकते हैं। वो उन कामों की यानी जॉब्स की है, जो इस वक़्त बेहद ज़रूरी हैं यानी उनमें काम कर रहे लोगों की नौकरी को तो कोई ख़तरा नहीं है, लेकिन उनकी ज़िंदगी ही ख़तरे में है। वो भी काम की वजह से।
इसमें वो सारे लोग शामिल हैं, जो कोरोना के ख़िलाफ़ लड़ाई में अगले मोर्चे पर हैं। यानी डॉक्टर, नर्स, हॉस्पिटल स्टाफ़, पुलिस, सफ़ाई कर्मचारी, पैथोलॉजी या डायगनोस्टिक टेस्ट सेंटर में काम करनेवाले लोग और फ़ील्ड में काम करने वाला सरकारी अमला भी। यहां लोगों की मांग भी है, उन्हें बनाए रखने के लिए अच्छे ऑफ़र भी दिए जा रहे हैं, लेकिन जोख़िम भी बड़ा है।
लगातार बढ़ रही है अनिश्चितता
बार-बार कहा जा रहा है कि अभी किसी भी नतीजे पर पहुंचने का वक़्त नहीं आया है। लेकिन हर बार ये सुनते ही पता चल जाता है कि अनिश्चितता लगातार बढ़ रही है यानी और ज़्यादा रोज़गार या नौकरियों पर तलवार लटकने लगी है।
हालांकि भारत की सबसे बड़ी स्टाफिंग कंपनी टीमलीज़ के चेयरमैन मनीष सभरवाल कहते हैं, "लॉकडाउन के दौर में बेरोज़गारी के आंकड़े का हिसाब लगाना ही सही नहीं है। ऐसे देखें तो संडे की दोपहर को तो बेरोज़गारी हमेशा सबसे ऊपर होती है।"
कहने का मतलब यह है कि बेरोज़गारी का असली हिसाब तभी लग पाएगा, जब सारे काम-धंधे दोबारा शुरू हो जाएं और उसके लिए ज़रूरी है कि कोरोना ख़त्म हो जाए। उसका इलाज मिल जाए या फिर टीका आ जाए। लेकिन एक बात अब तय है। दुनिया पहले जैसी नहीं रहेगी।
कोरोना का ख़तरा टल भी गया तो आने वाले कई साल तक हमारे दिमाग़ पर और हमारे रहन-सहन और कामकाज के तौर-तरीक़ों पर ये छाया रहेगा। यानी सब कुछ बदलने जा रहा है। और इस बदलाव के बाद कौन से काम-धंधे तेज़ होंगे। कौन से मंदे पड़ेंगे। यह समझना बेहद ज़रूरी है।
हालात कितने चिंताजनक हैं, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाइए कि टीमलीज़ पिछले कई साल से जो इंप्लॉयमेंट आउटलुक रिपोर्ट बनाता रहा है, लेकिन इस बार उसे पढ़ने का तरीक़ा बदल दिया गया है। इसमें नौकरी देनेवाली कंपनियों से पूछा जाता है कि वो कितने लोगों को नौकरी देने की सोच रहे हैं। अब तक ये देखा जाता था कि कंपनी ने पिछले साल इसी छमाही के दौरान जितनी नौकरियां दीं, इस बार उससे कितनी ज़्यादा या कितनी कम नौकरियां देने की सोच रही है।
लेकिन इस बार यह सवाल बदल कर सिर्फ़ इतना भर रह गया है कि कंपनियां किसी को भी नौकरी देने पर विचार कर रही हैं या नहीं। और ऐसे में सबसे ज़रूरी बात यह हो जाती है कि कौन लोग, कौन सी नौकरियां देंगे और किसे देंगे। तो इसका जो जवाब आपको अपनी आंखों से दिख रहा है, वही सभी कंसल्टेंसी कंपनियों और अध्ययन संस्थानों की रिपोर्ट में भी है। यानी सबसे पहले और सबसे तेज़ी से नौकरियां वहां मिलेंगी, जो धंधे तेज़ी से चल रहे हैं। ख़बर है कि अमेजॉन ने मई के महीने में ही 50 हज़ार लोगों को टेंपरेरी काम पर रखा। इससे पहले कंपनी एलान कर चुकी है कि 2025 तक वो भारत में 10 लाख लोगों को काम देगी।
लॉकडाउन में जिस रफ़्तार से लोग घर से ही ख़रीदारी कर रहे हैं, उसका असर ई कॉमर्स पर, फूड डिलिवरी करने वाले ऐप चलाने वाली कंपनियों पर तो पड़ना ही है। खाने पीने के सामान और साबुन तेल जैसी जिन चीज़ों के बिना आप रह नहीं सकते, उन्हें बनाने वाली कंपनियों को भी स्टाफ़ की ज़रूरत बनी हुई है।
इसी तरह वर्क फ्रॉम होम के लिए आपको जो कुछ चाहिए, उस सबके लिए लोगों की ज़रूरत है। इंटरनेट और फ़ोन का इस्तेमाल बढ़ना टेलीकॉम कंपनियों के लिए अच्छी ख़बर भी है और वहां रोज़गार के मौक़े भी हैं। तमाम कंपनियां इस वक़्त पैसा बचाना चाहती हैं, तो उन्हें कंसल्टेंट्स की ज़रूरत है।
नेटवर्किंग प्लेटफॉर्म लिंक्डइन ने एक ब्लॉग में 10 ऐसे चुनिंदा कामों की लिस्ट बनाकर लगाई है जिनमें आज भी लोगों की ज़रूरत है और आने वाले वक़्त में भी इनमें तरक्की की गुंज़ाइश बनी रहेगी। ये हैं- सॉफ्टवेयर इंजीनियर, सेल्स रिप्रेजेंटेटिव, प्रोजेक्ट मैनेजर, आईटी एडमिनिस्ट्रेटर, कस्टमर सर्विस स्पेशलिस्ट, डिजिटल मार्केटियर, आईटी सपोर्ट या हेल्प डेस्क, डेटा एनालिस्ट, फ़ाइनेंशियल एनालिस्ट और ग्राफिक्स डिज़ाइनर।
इस लिस्ट में जोड़-घटाने की गुंज़ाइश हमेशा बनी रह सकती है। लेकिन हाल फ़िलहाल ये वो काम हैं जिनमें लगे लोग चैन की बंसी बजा सकते हैं। या नए लोग इन कामों को सीखने पर ज़ोर दे सकते हैं। लेकिन ये फ़िलहाल की कहानी ही है। इसमें आप हेल्थकेयर, ऑनलाइन एजुकेशन या ट्रेनिंग और ई कॉमर्स के सभी काम जोड़ सकते हैं। साथ ही लॉजिस्टिक्स यानी ट्रक, ट्रेन और हवाई जहाज़ से लेकर शहर के भीतर खाना, किराना और शराब की बोतलों की सप्लाई से लेकर एक जगह से दूसरी जगह पार्सल या डॉक्यूमेंट पहुंचाने का काम भी अभी काफ़ी तेज़ होने वाला है।
लेकिन लंबे दौर में इसमें से कितना काम रोबोट या कम्प्यूटरों के हाथों चला जाएगा पता नहीं। तब की सोचनी है तो अतुल जालान की किताब Where will Man take us? मनुष्य और उसकी बनाई टेक्नोलॉजी के बीच द्वंद्व पर एक शानदार टिप्पणी है और यह भी आनेवाली दुनिया का एक ऐसा खाका खींचती है जो आपको थोड़ा डराता भी है और थोड़ा हौसला भी देता है।
दुनिया की सबसे बड़ी कंसल्टिंग कंपनियों में से एक गार्टनर का कहना है कि कोविड के बाद काम का तौर तरीक़ा तो बदलने ही जा रहा है। कंपनियां ज़्यादा से ज़्यादा काम अब टेंपरेरी स्टाफ से करवाएंगी। पक्की नौकरियां कम से कम होती जाएंगी। कोरोना के बाद के हालात पर उनकी एक रिसर्च रिपोर्ट के अनुसार 32 प्रतिशत कंपनियां पैसा बचाने के लिए अपने स्टाफ़ की छंटनी करके उनकी जगह टेंपररी या गिग वर्कर रख रही हैं।
साइकी (SCIKEY) ऐसे ही लोगों के लिए एक टैलेंट कॉमर्स प्लेटफ़ॉर्म है। यानी जॉब पोर्टल का नया अवतार। वो भी यही हिसाब लगा रहा है और उसने भी पाया कि अब पक्की नौकरियां बहुत कम हो जाएंगी और एसाइनमेंट का पैसा लेकर काम करनेवाले गिग वर्कर ही असली कामगार हो जाएंगे। डिज़िटल और रिमोट वर्क तो तेज़ होगा लेकिन साथ में अब तनख्वाह भी फ़िक्स नहीं रहेगी, ऊपर नीचे होती रहेगी।
चीन के अलावा एशिया के दूसरे देशों में इंडस्ट्रियल वर्कर के लिए भी बहुत से रोज़गार भी पैदा हो सकते हैं, अगर चीन से निकलने वाली फ़ैक्टरियां यहां आ जाएं। इसके अलावा भी कई तरह के नए रोज़गार सामने आएंगे और आगे कंपनियों का ज़ोर कैंडिडेट की डिग्री या सर्टिफ़िकेट देखने से ज़्यादा इस बात पर होगा कि वो उनकी ज़रूरत पर खरे उतरते हैं या नहीं।
इसी के साथ पुराने लोगों के लिए बार-बार लगातार नई चीज़ें सीखते रहना ज़रूरी हो जाएगा। और सीधे कॉलेज या विश्वविद्यालय से आ रहे नौजवानों को भी काम के लिए ज़रूरी हुनर ख़ुद ही सीख कर आना पड़ेगा, ये रिवाज़ अधिक दिन तक नहीं चलनेवाला है कि कंपनियां नौकरी देने के बाद साल दो साल तक काम भी सिखाएंगी।
इसकी तैयारी भी चल रही है। अप्रैल में लिंक्डइन के एक सर्वे में पता चला कि नौकरी कर रहे 63% लोग ई लर्निंग पर अधिक समय बिता रहे हैं। 60 प्रतिशत जिस इंडस्ट्री में हैं, उसके बारे में अपनी जानकारी बढ़ाना चाहते हैं, जबकि 57 प्रतिशत अपनी तरक्की के गुर सीखना चाहते हैं। यहीं 45% लोग ऐसे भी हैं, जो अपनी बात सही तरीक़े से रखने या कम्युनिकेशन स्किल में सुधार करने की कोशिश में जुटे हैं।
उनकी कोशिश कितना रंग लाएगी, ये निर्भर करता है उन कंपनियों पर, जहां वो काम करते हैं। डिलॉयट ने उन कंपनियों के लिए इस साल एक बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है। उसका कहना है कि कंपनियों को अपने गिरेबान में झांककर देखना होगा कि आज जब इंसान और टेक्नोलॉजी आमने-सामने खड़े दिख रहे हैं तो टेक्नोलॉजी की होड़ में जुटी दुनिया के बीच भी कोई कंपनी कैसे अपनी इंसानियत को बनाकर रख सकती है।
और शायद इसी से आने वाली दुनिया की वो कंपनियां भी सामने आएंगी, जो कमाई करने के साथ साथ कुछ ऐसा भी करती रहें, जो उन्हें 'ग्रेट प्लेसेज़ टू वर्क' बनाकर रख सके।