यूएई के आर्टिफिशल इंटेलिजेंस मंत्री उमर सुल्तान ओलामा ने पिछले साल अक्टूबर में भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर की तारीफ़ करते हुए कहा था कि यूक्रेन संकट के दौरान उन्होंने भारत की विदेशी नीति को जिस तरह से आगे बढ़ाया, उससे वह काफ़ी प्रभावित हैं।
उमर सुल्तान ओलामा ने कहा था, ''ऐतिहासिक रूप से दुनिया एकध्रुवीय, द्विध्रुवीय या त्रिध्रुवीय रही है। ऐसे में आप किस खेमे को चुनेंगे? मैं भारत के विदेश मंत्री से काफ़ी प्रभावित हूँ। मैंने उनके कई भाषण देखे हैं। एक चीज़ तो स्पष्ट है कि यूएई और भारत को किसी भी गुट में शामिल नहीं होना चाहिए। आख़िरकार जियोपॉलिटिक्स ख़ास गुटों के हितों से तय की जाती है। ऐतिहासिक रूप से अस्तित्व में रहा यह मॉडल अब नहीं है। आज के वक़्त में एक देश को अपने हितों के बारे में सोचना चाहिए।''
इसी साल मार्च में सऊदी अरब के रिसर्चर और राजनीतिक विश्लेषक सलमान अल-अंसारी ने भारत की स्वतंत्र विदेश नीति की तारीफ़ करते हुए कहा था कि भारत ने पश्चिम के भारी दबाव के बावजूद अपने हितों से समझौता नहीं किया।
सलमान अल-अंसारी ने कहा था, ''भारत की विदेश नीति की मैं प्रशंसा करता हूँ। भारत किसी का पिछलग्गू नहीं है। पश्चिम या पूरब के देश क्या चाहते हैं, इसके दबाव में भारत नहीं आता है। मैं मानता हूँ कि सऊदी अरब को भी ऐसी नीतियों को प्रोत्साहित करना चाहिए। मेरा मानना है कि एक संप्रभु देश को ऐसे ही होना चाहिए।''
सलमान अल-अंसारी यूक्रेन-रूस जंग में भारत के रुख़ पर अपनी बात रख रहे थे। अल-अंसारी ने कहा था, ''मेरा मानना है कि सऊदी अरब और भारत दोनों देश यूक्रेन-रूस जंग में ख़ुद को किसी पक्ष में नहीं देख रहे हैं। हम इस जटिल समय में किसी गुट के साथ नहीं होना चाहते हैं। हम गोलबंदी में शामिल होकर तनाव को और हवा नहीं देना चाहते हैं।''
सऊदी पुरानी नीति क्यों छोड़ रहा है?
सऊदी अरब के विदेश मंत्री प्रिंस फ़ैसल बिन-फ़रहान ने पिछले साल दिसबंर में वर्ल्ड पॉलिसी कॉन्फ़्रेंस में कहा था, ''सऊदी अरब की विदेश नीति बिल्कुल स्पष्ट है। सऊदी अरब की विदेश नीति अपने नागरिकों के जीवन में ख़ुशहाली लाने के लक्ष्य से संचालित होती है।"
"हमारी प्राथमिकता यही है कि कैसे सऊदी अरब के लोगों की मुश्किलें कम हों। हमारी विदेशी नीति में दूसरा अहम पहलू है, अपने हितों की रक्षा, साझेदारी बढ़ाना और क्षेत्रीय स्थिरता के लिए काम करना। हम विकासशील देशों के साथ मिलकर काम करना चाहते हैं क्योंकि इनकी आवाज़ नहीं सुनी जाती है।''
भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भी रूस से तेल ख़रीदने पर पश्चिमी देशों की आपत्ति पर जवाब देते हुए कहा था, ''यूरोप अपने हिसाब से रूस से ऊर्जा आयात कम कर रहा है। यूरोप में प्रति व्यक्ति आय 60 हज़ार यूरो है, तब भी यहाँ की सरकारें अपने नागरिकों के लिए महंगाई को लेकर चिंतित हैं। भारत में प्रति व्यक्ति आय 2000 डॉलर है। हमें भी ऊर्जा की ज़रूरत है और हम उस स्थिति में नहीं हैं कि ऊंची क़ीमत देकर तेल ख़रीदें। अगर यूरोप के लिए सिद्धांत इतना ही अहम था तो उसे यूक्रेन पर रूसी हमले के दूसरे दिन यानी 25 फ़रवरी 2022 से ही रूस से तेल लेना बंद कर देना चाहिए था।''
जयशंकर ने कहा था कि यूरोप ने फ़रवरी 2022 से भारत की तुलना में छह गुना ज़्यादा ऊर्जा आयात किया है।
जयशंकर का यह बयान भारत की विदेश नीति में उस निरंतरता को दिखाता है, जो आज़ादी के बाद से चली आ रही है। भारत की विदेश नीति की बुनियाद पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने गुटनिरपेक्षता में रखी थी।
यानी भारत किसी भी गुट में शामिल नहीं होगा। भारत के विदेश मंत्री अब इसी नॉन अलाइनमेंट यानी गुटनिरपेक्षता को को मल्टीअलाइनमेंट यानी बहुध्रुवीय कह रहे हैं। यानी भारत किसी एक गुट के साथ नहीं रहेगा बल्कि अपने हितों के हिसाब से सभी गुटों के साथ अपनी बात रखेगा।
यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद भारत की विदेश नीति के लिए परीक्षा की घड़ी थी। लेकिन भारत ने मुश्किल वक़्त में नेहरू की गुटनिरपेक्षता की नीति में ही समाधान देखा। ऐसे में जयशंकर की टिप्पणी चौंकाती नहीं है। लेकिन सऊदी अरब यूक्रेन संकट में एक तरह से अपनी पुरानी विदेश नीति से बाहर निकलता दिखा और उसे भी गुटनिरपेक्षता में ही समाधान नज़र आया।
शीत युद्ध में भारत न सोवियत संघ के साथ था और न ही अमेरिकी खेमे में लेकिन सऊदी अरब कम्युनिस्ट विरोधी खेमे में था। सऊदी अरब पर्सियन गल्फ़ में अमेरिका के नेतृत्व वाले क्षेत्रीय सिक्यॉरिटी नेटवर्क में शामिल था।
लेकिन सऊदी अरब को अब लग रहा है कि अमेरिका के साथ बंधे रहना उसके हित में नहीं है और अब भारत की गुटनिरपेक्षता की राह पर ही चलता दिख रहा है। सऊदी अरब और अमेरिका के संबंध तेल के बदले सुरक्षा की नीति पर टिका थे। लेकिन यह नीति अब इतिहास में समाती दिख रही है।
सऊदी अरब चीन और रूस के नेतृत्व वाले शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइज़ेशन यानी एससीओ में भी डायलॉग पार्टनर के रूप में शामिल हो गया है। इसके अलावा आने वाले वक़्त में सऊदी अरब ब्रिक्स में भी शामिल हो सकता है। भारत पहले से ही इन दोनों संस्थाओं में पूर्णकालिक सदस्य है। सऊदी अरब के एससीओ में शामिल होने को भी शीत युद्ध वाले अमेरिकी खेमे से पल्ला झाड़ने के रूप में देखा जा रहा है।
दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में पश्चिम एशिया अध्ययन केंद्र के प्रोफ़ेसर अश्विनी महापात्रा का कहना है कि सऊदी गुटनिरपेक्षता की नीति इसलिए पसंद कर रहा है क्योंकि वह सारे अंडे एक टोकरी में नहीं रखना चाहता है। यानी अमेरिका की विश्वसनीयता कमज़ोर पड़ी है, ऐसे में वह उसका पिछलग्गू नहीं बनना चाहता है।
मिडल पावर की रणनीति
भारत, तुर्की, यूएई और सऊदी अरब को 'मिडल पावर' वाले देश के रूप में देखा जाता है। ऐसा माना जा रहा है कि रूस ने यूक्रेन पर हमला कर अमेरिका की अगुआई वाली विश्व व्यवस्था को चुनौती दी है और चीन उसका साथ दे रहा है। ऐसे में मिडल पावर वाले ये देश किसी गुट में शामिल होने के बजाय फ़ायदा उठाना चाहते हैं।
एक तरफ़ भारत यूक्रेन संकट के बाद से रूस से सस्ता तेल आयात बढ़ाता गया तो दूसरी तरफ़ अमेरिका के लाख कहने के बावजूद सऊदी अरब ने तेल उत्पादन नहीं बढ़ाया बल्कि उसमें भारी कटौती कर दी।
अमेरिका चाहता था कि भारत, सऊदी अरब, तुर्की और यूएई रूस के ख़िलाफ़ प्रतिबंध में शामिल हों लेकिन सबने इनकार कर दिया। इसी महीने सऊदी अरब तेल उत्पादन में कटौती का फ़ैसला किया था। सऊदी अरब चाहता है कि तेल की क़ीमत ऊंची रहे। सऊदी अरब लगातार कोशिश कर रहा है कि उसकी अर्थव्यवस्था की निर्भरता तेल से कम हो।
अमेरिका को नाराज़ करते हुए सऊदी अरब ने तेल उत्पादन में कटौती का फ़ैसला लिया तो अमेरिकी अख़बार वॉल स्ट्रीट जर्नल ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था, ''सऊदी ने तेल उत्पादन में कटौती कर साफ़ संकेत दे दिया है कि तेल की क़ीमत मुनाफ़े के स्तर पर रखने के लिए जो भी ज़रूरत होगी, उसे वह करेगा। सऊदी अरब के ऊर्जा मंत्री अब्दुल अज़ीज़ बिन सलमान सऊदी फ़र्स्ट की नीति पर काम कर रहे हैं।''
''मध्य-पूर्व में जब महाशक्तियों की प्रतिद्वंद्विता बढ़ रही है, ऐसे समय में सऊदी अरब अमेरिकी खेमे से बाहर निकलता दिख रहा है। प्रिंस मोहम्मद ने पिछले साल अपने सहयोगियों से कहा था कि सऊदी अब अमेरिका को ख़ुश रखने में कोई दिलचस्पी नहीं रखता है। उन्होंने कहा था कि अमेरिका को हम जो कुछ भी देंगे उसका रिटर्न चाहिए।''
भारत और सऊदी से रूस को फ़ायदा
भारत का भी रूस से तेल आयात लगातार बढ़ रहा है। ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट के अनुसार, मार्च महीने में रूस से भारत का तेल आयात प्रति दिन 10।64 लाख बैरल पहुँच गया था। भारत ने इससे पहले रूस से इतनी मात्रा में तेल आयात कभी नहीं किया था। फ़रवरी में भारत रूस से हर दिन 10।62 लाख बैरल तेल आयात कर रहा था। इसके साथ ही रूस पिछले छह महीने से भारत में तेल आपूर्ति करने वाला शीर्ष का देश है।
पिछले साल मार्च में भारत रूस से हर दिन महज़ 68 हज़ार 600 बैरल तेल आयात कर रहा था जो कि अभी से 24 गुना कम था। मार्च में भारत के कुल तेल आयात में रूस की हिस्सेदारी 34 प्रतिशत रही। यह आँकड़ा भारत में शीर्ष के तेल आपूर्तिकर्ता देश इराक़ से दोगुना है।
पश्चिमी देशों का कहना है कि भारत रूस से तेल आयात कर राष्ट्रपति पुतिन को मदद कर रहा है। पश्चिम को लग रहा है कि रूस के ख़िलाफ़ उसके प्रतिबंध इसलिए प्रभावी नहीं हो रहे हैं क्योंकि भारत और चीन जमकर रूसी तेल ख़रीद रहे हैं। इसी तरह सऊदी अरब और उसके सहयोगी देश यूएई, इराक़ और कुवैत ने तेल उत्पादन में हर दिन 10 लाख बैरल से ज़्यादा की कटौती की घोषणा की तो तेल की क़ीमत 79 डॉलर प्रति बैरल से 85 डॉलर प्रति बैरल हो गई थी।
ऑक्सफर्ड इंस्टिट्यूट फोर एनर्जी स्टडीज़ के सीनियर रिसर्च फेलो अदी इम्सिरोविक ने फ़ाइनैंशियल टाइम्स से कहा कि सऊदी अरब के तेल उत्पादन में कटौती के फ़ैसले से सीधा फ़ायदा रूस को मिल रहा है।
उन्होंने कहा, ''यह पुतिन के लिए मेगा गिफ़्ट है। आर्थिक और सैन्य रूप से रूस बदहाल है और आप अचानक से उसे प्रति बैरल 10 डॉलर अतिरिक्त देने लगते हैं। सऊदी का यह गिफ़्ट बाकी दुनिया को भी देना होगा।"
पिछले साल मार्च में वॉल स्ट्रीट जर्नल में एक रिपोर्ट छपी थी कि सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन-सलमान और यूएई के राष्ट्रपति मोहम्मद बिन ज़ायद अल-नाह्यान से अमेरिकी राष्ट्रपति दो बाइडन बात करना चाहते हैं लेकिन दोनों ने बात करने से इनकार कर दिया था।
यूरोप में भी अमेरिका को लेकर सवाल
अमेरिकी नेतृत्व को लेकर सवाल केवल पश्चिम एशिया में नहीं उठ रहा है बल्कि यूरोप में भी इसकी सुगबुगाहट शुरू हो गई है। फ़्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों पाँच से सात अप्रैल तक चीन के दौरे पर थे।
चीन दौरे के बाद मैक्रों ने यूरोपीय अख़बार पॉलिटको को दिए इंटरव्यू में कहा था कि यूरोप को अमेरिका का पिछलग्गू बनने से पहले ख़ुद को रोकना चाहिए। मैक्रों ने यह भी कहा था कि ताइवान कोई यूरोप से जुड़ी समस्या नहीं है और अमेरिका-चीन की लड़ाई में यूरोप को किसी का पक्ष नहीं लेना चाहिए। फ़्रांस के राष्ट्रपति ने कहा था कि यूरोप यूक्रेन संकट का हल निकालने में नाकाम रहा तो ताइवान में क्या समाधान दे पाएगा?
मैक्रों के इस बयान की यूरोप में काफ़ी आलोचना हुई। मैक्रों की टिप्पणी पर वॉल स्ट्रीट जर्नल ने संपादीय में लिखा था, ''फ़्रांस के राष्ट्रपति को इस टिप्पणी से कोई मदद नहीं मिलने वाली है। मैक्रों के इस बयान से वेस्टर्न पैसिफिक में चीन के ख़िलाफ़ जापान और यूएस का प्रतिरोध कमज़ोर होगा। इसके साथ ही अमेरिका में वैसे नेताओं की उस मुहिम को बल मिलेगा, जिसमें वे मांग करते हैं कि अमेरिका को यूरोप में अपनी प्रतिबद्धता कम करनी चाहिए। जो बाइडन को मैक्रों से पूछना चाहिए कि क्या वह डोनाल्ड ट्रंप को अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में फिर से देखना चाहते हैं?''
पुतिन भी शुरुआती दौर में यूरोप से मेल जोल का रिश्ता चाहते थे लेकिन अमेरिका और नेटो की एंट्री के बाद से चीज़ें और जटिल हो गईं। यूक्रेन को नेटो की सदस्यता देने को लेकर जर्मनी से लेकर फ्रांस तक ख़िलाफ़ में रहे हैं। पिछले साल अप्रैल महीने में यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की ने कहा था कि यूक्रेन पर रूसी हमले के लिए आंशिक रूप से एंगेला मर्केल भी ज़िम्मेदार हैं क्योंकि उन्होंने ही इसे 2008 में नेटो में शामिल होने से रोका था।
मर्केल के दफ़्तर ने इसका लिखित जवाब दिया था और अपने फ़ैसले का बचाव किया था। मर्केल ने कहा था कि उन्होंने इसलिए नेटो में शामिल होने से रोका था क्योंकि यूक्रेन बुरी तरह से बँटा हुआ था और वहां व्यापक भ्रष्टाचार था।
यूक्रेन पर रूसी हमले का 14वां महीना चल रहा है और यूरोप में बहस हो रही है कि इसका समाधान क्या होगा। ऐसा लग रहा था कि यूक्रेन को लेकर पूरा पश्चिम अमेरिका के नेतृत्व में एकजुट है। लेकिन अमेरिका को लेकर भी अब सवाल उठने लगे हैं। इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले पाँच महीनों में यूरोप के तीन अहम देशों के राष्ट्राध्यक्ष चीन के दौरे पर गए। जर्मन चासंलर पिछले साल नवंबर महीने में चीन गए थे। स्पेन के प्रधानमंत्री इस साल मार्च में और फ्रांस के राष्ट्रपति पिछले हफ़्ते चीन के दौरे पर गए थे।