महिलाएं नाज़ुक होती हैं। ऐसा आम तौर पर कहा जाता है। माना जाता है कि जिस्मानी तौर पर वो मर्दों की तरह ताक़तवर नहीं होतीं। लेकिन इस सच्चाई से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि दर्द सहने की क्षमता औरत से ज़्यादा किसी में नहीं है। फिर चाहे वो दर्द शारीरिक हो या जज़्बाती।
दुनिया की हर बालिग़ लड़की को हर महीने माहवारी शुरू होने से पहले दर्द से गुज़रना पड़ता है। कुछ को ये दर्द कम होता है, तो कुछ को नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त। कुछ को दर्द के साथ मितली, उल्टी या बदहज़मी हो जाती है। माहवारी के दौरान मामूली दर्द होना आम बात है। लेकिन हद से ज़्यादा दर्द होना नॉर्मल नहीं है। फिर ये एक तरह की बीमारी है जिसे एंडोमेट्रियोसिस कहते हैं।
असल में माहवारी से पहले बच्चेदानी के पास ख़ून जमा होता है जो कि फ़र्टिलिटी पीरियड के दौरान स्पर्म नहीं मिलने की सूरत में शरीर से बाहर निकल जाता है। कई बार ये ब्लड टिशू बच्चेदानी के साथ-साथ फैलोपियन ट्यूब, आंत, कोख आदि में जमा हो जाते हैं। कुछ ख़ास मामलों में तो ये फेफड़ों, आंखों, दिमाग़ और रीढ़ की हड्डी तक में पाए गए हैं। तिल्ली ही शरीर का ऐसा भाग है, जहां आज तक ये ब्लड टिशू नहीं पाए गए हैं।
एंडोमेट्रियोसिस होने पर माहवारी के दौरिन ख़ून बहुत ज़्यादा आता है, पीरियड शुरू होने से पहले कमज़ोरी और थकान होने लगती है, रीढ़ की हड्डी के निचले भाग और कूल्हे की हड्डी में शदीद दर्द होता है।
रिसर्च पर ध्यान नहीं
दुनिया की हर 10 औरतों में से एक को एंडोमेट्रियोसिस की शिकायत है। माना जाता है कि 17 करोड़ से ज़्यादा महिलाएं इस मर्ज़ से परेशान हैं। आज मेडिकल क्षेत्र में बड़े पैमाने पर रिसर्च हो रही हैं। लेकिन, महिलाओं से जुड़ी बहुत सी बीमारियों पर अभी तक बहुत कम पैसा ख़र्च किया गया है। इन्हीं में से एक है एंडोमेट्रियोसिस।
अमरीका में भी हर 10वीं महिला इसकी शिकार है। फिर भी, यहां महिलाओं से जुड़ी बीमारियों की रिसर्च पर महज़ 60 लाख डॉलर सालाना की रक़म ही ख़र्च की जा रही है। जबकि नींद पर रिसर्च के लिए इस रक़म का 50 गुना अधिक पैसा ख़र्च किया जा रहा है।
एक रिसर्च के मुताबिक़ एंडोमेट्रियोसिस की शिकार महिला ना सिर्फ़ हर महीने दर्द बर्दाश्त करती है, बल्कि अच्छी ख़ासी रक़म इलाज पर भी ख़र्च करती है। यही नहीं कई बार एंडोमेट्रियोसिस की वजह से बांझपन भी हो जाता है। ये दर्द मरीज़ में अन्य किसी दर्द को सहने की ताक़त को भी कमज़ोर करता है।
कहा जाता है कि सबसे पहले चेक वैज्ञानिक कार्ल फ़ोन रोकितांस्की ने 1860 में एंडोमेट्रियोसिस की पहचान की थी। हालांकि, इसे लेकर कई तरह के मतभेद हैं। कहा जाता है कि ये रिसर्च बहुत बुनियादी माइक्रोस्कोप से की गई थी।
जिस तरह के लक्षण एंडोमेट्रियोसिस में नज़र आते हैं, वैसे ही लक्षण मिर्गी की बीमारी में भी नज़र आते हैं। इसे अंग्रेज़ी में हिस्टीरिया कहते हैं। हिस्टीरिया शब्द लैटिन शब्द से बना है जिसका मतलब है 'पेट से जुड़ा'। इसी आधार पर एंडोमेट्रियोसिस का संबंध हिस्टीरिया से बता दिया जाता है। हालांकि, कोख के दर्द पर की गई बहुत सी रिसर्च इसे ख़ारिज करती हैं।
एंडोमेट्रियोसिस को लेकर ग़लतफ़हमियां पहले भी थीं और आज भी हैं। इसकी बड़ी वजह है इस क्षेत्र में रिसर्च का ना होना। कम जानकारी होने की वजह से कई बार ये बीमारी दशकों तक पकड़ में नहीं आ पाती। एक वजह ये भी है कि महिलाओं को होने वाले दर्द को मामूली दर्द मानकर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है।
एंडोमेट्रियोसिस को लेकर अगंभीरता
आम तौर पर डॉक्टर भी इस दर्द को बहुत गंभीरता से नहीं लेते। कैटलिन कोनेयर्स की उम्र 24 साल है। वो माई एंडोमेट्रियोसिस डायरी नाम का ब्लॉग चलाती हैं। उन्हें माहवारी के दौरान ना सिर्फ़ तेज़ दर्द होता था बल्कि ख़ून भी ख़ूब आता था।
अपनी हालत के मुताबिक़ उन्होंने नेट पर जानकारी हासिल की। उनकी रिसर्च इस नतीजे पर पहुंची कि उन्हें एंडोमेट्रियोसिस है। उन्होंने अपने डॉक्टर से कहा भी कि हो सकता है उन्हें एंडोमेट्रियोसिस हो लेकिन उनकी बात को ख़ारिज कर दिया गया।
ऑक्सफ़ोर्ड के विंसेंट का कहना है कि जेंडर इसमें बहुत बड़ा रोल निभाता है। आम तौर पर शुरूआती जांच में डॉक्टर भी दर्द की वजह से होने वाले घावों को देख नहीं पाते। ऐसे बहुत से केस हैं जब एंडोमेट्रियोसिस के स्कैन में अल्ट्रासाउंड नेगेटिव आए हैं।
इसके अलावा मरीज़ की नावाक़फ़ियत की वजह से भी मर्ज़ समझने में देरी होती है। किशोरावस्था शुरू होने से पहले लड़कियों को ये तो समझाया जाता है कि पीरियड के दौरान दर्द होता है लेकिन ये दर्द किस शिद्दत का होगा, नहीं बताया जाता। इसीलिए बहुत ज़्यादा दर्द को भी सामान्य मान लिया जाता है।
एंडोमेट्रियोसिस को लेकर अब सारी दुनिया में जागरूकता की मुहिम चलाई जा रही है। 2017 में ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने इस मक़सद से नेशनल एक्शन प्लान फ़ॉर एंडोमेट्रियोसिस शुरू किया। इसके तहत एंडोमेट्रियोसिस के लिए नई गाइडलाइन बनाई गईं और इन्हें प्राइमरी हेल्थकेयर एजुकेशन का हिस्सा बनाया गया। इसके लिए सरकार ने 25 लाख डॉलर का फंड भी बनाया।
इसी तरह का एक प्रोग्राम साल 2017 में ब्रिटिश सरकार ने भी शुरू किया था। वर्ल्ड एंडोमेट्रियोसिस सोसायटी की चीफ एग्जीक्यूटिव का कहना है कि इस तरह के अभियानों से लोगों में जागरुकता तो बढ़ी है। लेकिन, इस बीमारी से बचने के लिए सबसे बड़ा मसला स्पेशलिस्ट क्लीनिक और डॉक्टरों की कमी है।
बीमारी को लेकर भ्रांतियां
एंडोमेट्रियोसिस को लेकर अभी तक जितनी रिसर्च हुई हैं, उनसे इतना फ़ायदा तो ज़रूर हुआ है कि कुछ वक़्त बाद ही सही लेकिन बीमारी पकड़ में तो आ जाती है। लेकिन, इसे लेकर भ्रांतियां अभी बरक़रार हैं। अभी भी डॉक्टर इस बीमारी से बचने का एक उपाय प्रेगनेंसी बताते हैं। जबकि ये राहत सिर्फ़ गर्भावस्था तक के लिए होती है। उसके बाद जब दोबारा माहवारी की प्रक्रिया शुरू होती है तो तकलीफ़ भी शुरू हो जाती है। कुछ का तो ये भी कहना है कि एंडोमेट्रियोसिस की वजह से बांझपन भी हो जाता है।
इस बीमारी को लेकर अभी तक पुख़्ता इलाज सामने नहीं आ सका है। हालांकि, सर्जरी इसका एक उपाय बताया जाता है लेकिन वो भी यक़ीनी इलाज नहीं है। ऑपरेशन के बाद दर्द की शिकायत बरक़रार रह सकती है।
एंडोमेट्रियोसिस के ज़ख़्मों को ओएस्ट्रोजन और हार्मोनल ट्रीटमेंट के ज़रिए भी ठीक करने की कोशिशें जारी हैं। लेकिन, जानकारों का कहना है कि ओएस्ट्रोजन के इस्तेमाल से महिलाओं में डिप्रेशन की समस्या बढ़ जाती है। 2016 में डेनमार्क में हुई रिसर्च से ये बात साबित भी हो चुकी है।
मेडिकल मीनोपॉज़ भी एक विकल्प हो सकता है। लेकिन, इसकी वजह से हड्डियां कमज़ोर होने लगती हैं। कई बार एक्सिडेंटल फ़ुल मीनोपॉज़ भी हो सकता है। पेन किलर से दर्द को रोका तो जा सकता है लेकिन स्थाई रूप से ख़त्म नहीं किया जा सकता। दूसरे, लंबे वक़्त तक दर्द निवारक दवाएं लेने से ख़ून की कमी और हाइपरटेंशन की शिकायत हो जाती है।
बहरहाल एंडोमेट्रियोसिस को लेकर रिसर्च जारी हैं और जागरूकता भी फैलाई जा रही है। लेकिन, जब तक रिसर्च का कोई ठोस नतीजा नहीं निकल आता, तब तक हार्मोन कंट्रोल मेडिसिन और लेप्रोस्कोपी ही इसके इलाज हैं। ये इलाज भी तभी संभव हैं जब बीमारी को ठीक तरीके से समझा जाए।