चुनाव अभियान में तो नीतीश ही मोदी पर भारी दिखे

अनिल जैन

मंगलवार, 3 नवंबर 2015 (20:12 IST)
बिहार विधानसभा के चुनाव का अंतिम चरण बाकी रह गया है। आठ अक्टूबर को इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों से नतीजें चाहे जो निकले, लेकिन एक बात साफ है कि लगभग डेढ़ महीने के चुनाव अभियान के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भारी पड़े। भीड़ और प्रचार प्रबंधन के लिहाज से बेशक मोदी की रैलियों के आगे नीतीश की रैलियां काफी हलकी थीं लेकिन प्रचार में भाषा, शैली, अंदाज, कथ्य-तथ्य, वार-पलटवार आदि तमाम पहलुओं में मोदी पर नीतीश भारी दिखे। 
नरेंद्र मोदी ने जिस तरह अपने आपको पूरी तरह बिहार के चुनाव में झोंका वह अभूतपूर्व रहा। उन्होंने अपनी ताबड़तोड़ रैलियों और बेहद आक्रामक भाषणों में जिस तरह नीतीश कुमार को अपने निशाने पर रखा उससे उन्होंने न सिर्फ बिहार में अपनी प्रतिष्ठा को दांव पर लगाया बल्कि पूरे चुनाव को नरेंद्र मोदी बनाम नीतीश कुमार की लड़ाई बना दिया। इससे हुआ यह कि पूरा चुनाव अभियान व्यक्ति केंद्रित हो गया और बुनियादी मुद्दे गौण हो गए।  
 
इसमें कोई शक नहीं कि मोदी की अपनी एक विशिष्ट भाषण शैली है, जिसे पसंद-नापसंद करने वाले दोनों तरह के लोग हैं। उसी भाषण शैली के दम पर उन्होंने लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी के प्रचार का भार अपने कंधे पर उठा रखा था। बिहार के चुनाव में भी वे उसी भूमिका में दिखे। लेकिन पूरे चुनाव अभियान के दौरान वे विश्वसनीय तरीके से नीतीश कुमार को कभी घेर नहीं पाए। अपनी लगभग हर सभा में प्रधानमंत्री ने बिजली का सवाल उठाया और नीतीश को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की, जबकि नीतीश कुमार के धुर विरोधी भी मानते हैं कि बिजली और सड.क के मामले में बिहार काफी आगे बढ़ चुका है।
 
मुसलमानों को आरक्षण के सवाल पर तो प्रधानमंत्री ने हद ही कर दी। उन्होंने वह किया, जिसकी अपेक्षा किसी प्रधानमंत्री से नहीं की जा सकती। बक्सर की रैली में उनके भाषण से ऐसा लगा जैसे वे मुसलमानों के खिलाफ हिंदुओं का आह्‌वान कर रहे हों। लोकसभा में नीतीश कुमार के दस साल पुराने जिस भाषण की प्रति मोदी अपनी रैलियों में लहराते रहे और जिसका विज्ञापन अखबारों में छपवाया गया, उससे न सिर्फ उनको फीडबैक देने वाली उनकी टीम की बल्कि खुद प्रधानमंत्री की भी अज्ञानता ही प्रदर्शित हुई। रही सही कसर चुनाव आयोग ने विज्ञापन को प्रतिबंधित कर पूरी कर दी।
 
दरअसल, नीतीश कुमार ने लोकसभा में वह सवाल मुस्लिम और ईसाई दलितों को भी बौद्ध तथा सिख दलितों की तरह आरक्षण का लाभ देने के लिए उठाया था। लेकिन उसको मोदी ने संपूर्ण मुस्लिम समाज के आरक्षण में बदल दिया और नीतीश कुमार को जवाब देने के लिए ललकारा। जब नीतीश ने इस पर पलटवार करते हुए प्रधानमंत्री को बहस की चुनौती दी तो मोदी अपनी बाद की रैलियों में उसका जवाब देने के बजाय मुद्दा ही गोल कर गए।
 
प्रधानमंत्री मोदी की छवि विकास पुरुष की मानी जाती है। सो, उन्होंने बिहार की चुनावी रैलियों में विकास की बात तो की लेकिन शायद उन्हें विकास के मुद्दे पर ज्यादा भरोसा नहीं था, लिहाजा वे संप्रदाय के साथ ही जाति का कार्ड भी खेलने से नहीं चुके। चुनाव के पहले चरण के दौरान उन्होंने अपनी लगभग हर रैली में अपने को पिछड़ी जाति का बताने में कोई संकोच नहीं किया।
 
यही नहीं, दूसरे और तीसरे चरण के मतदान वाले क्षेत्रों में उन्होंने अपने को अति पिछड़ा वर्ग का बताया और चौथे-पांचवें दौर के मतदान वाले क्षेत्रों की चुनाव रैलियों में तो वे दलित मां के बेटे भी बन गए। इससे पहले देश के किसी प्रधानमंत्री ने कभी किसी चुनाव में अपनी जाति का प्रत्यक्ष या परोक्ष उल्लेख नहीं किया, लेकिन नरेंद्र मोदी ने इस मामले में 'कीर्तिमान' रच दिया।
 
नीतीश कुमार की एक औघड़ बाबा से डेढ़ साल पहले हुई मुलाकात के एक वीडियो को प्रधानमंत्री लगातार तीन दिन तक बहुत ही छिछले अंदाज में मुद्दा बनाते रहे लेकिन जब नामी ज्योतिषी बेजन दारूवाला और व्यभिचार के मामलों में जेल की हवा खा रहे आसाराम बापू के साथ उनकी खुद की मुलाकात के वीडियो और चित्र सामने आए और नीतीश कुमार की ओर से इस पर सवाल किया गया तो मोदी ही नहीं उनकी पार्टी के तमाम नेता भी चुप्पी साध गए। 
 
कुल मिलाकर पूरे चुनाव अभियान के दौरान प्रधानमंत्री ने अपने भाषणों से न सिर्फ खुद को हल्का बना लिया बल्कि लोगों को भी निराश ही किया। विधानसभा चुनाव की तारीखें घोषित होने तक किसी को अंदाजा नहीं था कि मुकाबला कांटे का होगा। महागठबंधन के नेता भी आत्मविश्वास खोए हुए से लग रहे थे। ज्यादातर लोगों का यही मानना था कि लड़ाई लगभग एकतरफा रहेगी और भाजपा की अगुवाई वाला गठबंधन दो तिहाई से भी ज्यादा सीटें जीतेगा। लेकिन जैसे-जैसे चुनाव अभियान परवान चढ़ता गया फिजा बदलने लगी। 
 
इस समय हर तरफ से जो संकेत मिल रहे हैं, अगर चुनाव नतीजे भी उन्हीं संकेतों के अनुरूप रहे और भाजपा हार गई तो कहना न होगा कि इसके लिए अन्य कारणों के साथ ही प्रधानमंत्री के भाषण भी कम जिम्मेदार नहीं होंगे। इसके विपरीत अगर भाजपा जीत भी गई तो यह चुनाव उसकी जीत से ज्यादा जीत के 'शिल्पकार' प्रधानमंत्री के स्तरहीन भाषणों के लिए याद रखा जाएगा।

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