कंधार (2001) : झकझोरती है अफगानिस्तान की त्रासदी

समय ताम्रकर

शनिवार, 11 सितम्बर 2021 (14:36 IST)
इस समय अफगानिस्तान चर्चा में है जहां पर तालिबान की हुकूमत लौट आई है। कुछ वर्ष पहले भी तालिबान का राज था तब महिलाओं और बच्चों पर खूब जुल्म ढाए गए थे। कराह और सिसकियां सुन पूरी दुनिया सकते में आ गई थी। ईरानी फिल्म निर्देशक मोहसिन मखमलबाफ ने वर्ष 2001 में 'कंधार' नामक फिल्म बनाई थी जो उस दौर को दिखाती है जब तालिबानी क्रूरता चरम पर थी। इस फिल्म ने दुनिया भर को झकझोर कर रख दिया था। 
 
ईरानी फिल्मकारों के पास न ज्यादा आजादी है, न बजट है, न आधुनिक संसाधन हैं, इसके बावजूद पिछले कुछ वर्षों में उन्होंने ऐसी उम्दा फिल्में बनाई हैं जिसे देख दुनिया चकित रह गई। ज़फर पनाही, माजिद मजीदी, मोहसिन मखमलबाफ जैसे फिल्मकारों ने ईरानी फिल्मों का दर्जा अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में ऊंचा कर दिया है। 
 
'कंधार' में अफगान महिलाओं की दास्तां को दर्शाया गया है। औरतों पर हुए अत्याचार और अपाहिजों की कहानी के जरिये वहां के हालात बयां किए गए हैं। 
 
फिल्म का मूल अफगान शीर्षक 'सफर-ए घांदेहर' है, जिसका अर्थ है "कंधार की यात्रा"। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस फिल्म को 'कंधार' के नाम से प्रदर्शित किया गया। फिल्म को ज्यादातर ईरान में फिल्माया गया, लेकिन गुप्त रूप से अफगानिस्तान में भी शूटिंग की गई। ये फिल्म सच्ची घटना पर आधारित है। 
 
कनाडा में रहने वाली नफस, कंधार जाकार बहन को बचाने का फैसला करती है क्योंकि उसकी बहन कुछ दिनों में आत्महत्या करने वाली है। वह एक बूढ़े की बीवी बन कर मंजिल तक पहुंचने की कोशिश करती है। उसके इस सफर के जरिये मलखमबाफ ने अफगानिस्तान की त्रासदी को सेल्यूलाइड पर दिखाया है।
 
लगातार हो रहे युद्ध के कारण अफगानी समाज बरबादी के कगार पर पहुंच गया है। डर के मारे लोग बुरका पहन रहे हैं या नकली दाढ़ी लगा रहे हैं। बिना डिग्री या प्रशिक्षित लोग डॉक्टर बन लोगों का इलाज कर रहे हैं। देश खंडहर में तब्दील हो चुका है और आधुनिकता के नाम पर हथियार ही नजर आते हैं। जिंदा रहने के लिए लूट-खसोट करना ही विकल्प रह गया है। ऐसी कई बातें दृश्यों के जरिये जिंदा की गई है जो हालात की भयावहता का दिखाती है। 
 
हवाई जहाज से नकली पैरों को गिराया जाना और उसको लूटने के लिए लोगों का दौड़ लगाने वाला सीन आंखें नम कर देता है। नकली हाथ-पैर की वेटिंग है इसलिए लोग एडवांस में नकली हाथ-पैर रखना चाहते हैं क्योंकि उन्हें पता नहीं कि कब जरूरत पड़ जाए। इनकी भी कालाबाजारी होती है। 
 
फिल्म कई सवाल खड़े करती है। इन हालातों का जिम्मेदार कौन है? कौन चाहता है कि अफगानी इसी हालात में रहे और यह हालात कभी नहीं सुधरे? मासूम कब तक इसकी कीमत चुकाते रहेंगे? कहीं इन पर दया करने वाले ही तो इस हालात के लिए जिम्मेदार नहीं है?
 
कंधार देखने के बाद हम राहत की सांस लेते हैं कि कितनी अच्छी जिंदगी हम जी रहे हैं। 85 मिनट की इस फिल्म में अफगानिस्तान के हालात देख हम विचलित हो जाते हैं तो वहां रहने वालों की मनोस्थिति का अंदाजा हम कभी नहीं लगा सकते। 

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