मस्तराम और अश्लील साहित्य

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अखिलेश जायसवाल ने 'मस्तराम' नामक फिल्म बनाई है। यह एक ऐसे लेखक की कहानी है जो सेक्सी किताबें लिखता है। मस्तराम नामक लेखक ने 80 और 90 के दशक में अनेक पुस्तकें लिखी जो रेलवे और बस स्टेशन के इर्दगिर्द मिलती थी। इस लेखक के बारे में अखिलेश ने पता लगाने की कोशिश की, लेकिन उसका अता-पता नहीं चला। इन किताबों पर भी प्रकाशक या लेखक का पता भी नहीं छपता था। अखिलेश ने मस्तराम को ध्यान में रखकर काल्पनिक कहानी लिखी कि मजबूरीवश उसे इस तरह की कहानियां लिखनी पड़ी जिसमें सिवाय सेक्सी बातों के कुछ नहीं रहता था।

अखिलेश के दिमाग में 'मस्तराम' पर फिल्म बनाने का विचार तब आया था जब वे 11वीं कक्षा में थे। दरअसल उस समय उम्र ही ऐसे दौर से गुजर रही होती है कि इस तरह की किताबों को पढ़ने का मन ललचाता है। आज भी बस और रेलवे स्टेशनों के इर्दगिर्द इस तरह की किताबें मिलती हैं जिनमें सेक्सी भाभी, चाची, मामी के किरदार को केंद्रित कर सेक्सी कहानियां होती हैं। इन किताबों को 'पल्प फिक्शन' कहा जाता है।

स्कूली छात्रों की कल्पनाओं को इस तरह की कहानियां पंख लगा देती हैं। उनकी इसी लालच का फायदा उठाते हुए महंगे दामों में इन किताबों को बेचा जाता है। जब इंटरनेट का जमाना नहीं था तब इस तरह की कहानियों से भरी किताबों का खूब चलन था। हिंदी की किताबें अक्सर 'लगुदीनुमा' कागज पर छपी होती हैं जबकि अंग्रेजी में छपी किताबों के लिए बेहतर और चिकना कागज प्रयुक्त होता है। अंग्रेजी की एबीसी भी नहीं जानने वाले भी इन किताबों को खरीदते हैं और फोटो देख मन बहलाते हैं। होस्टल में रहने वाले छात्र इन किताबों में से फोटो काट दीवार पर चिपकाते हैं।

दरअसल सेक्स से जुड़ी चीजों का व्यवसाय बहुत बड़ा है और संपूर्ण विश्व में फैला है। सेक्स को लेकर जो हौव्वा बनाया गया है उसका लाभ ये लोग उठाते हैं। आए दिन अखबारों में ऐसे विज्ञापन पढ़ने को मिलते हैं जिनमें 'जोश' भरने के दावे किए जाते हैं। सार्वजनिक शौचालयों की दीवारों में झोलाछाप डॉक्टर्स के फोन नंबर लिखे होते हैं। इन विज्ञापनों में ऐसे लक्षण बताए जाते हैं कि हर व्यक्ति को लगता है कि उसमें कुछ 'कमी' है। कई लोग इनके शिकार बनते हैं, लेकिन शरम के मारे वे किसी से ये बात बांट नहीं सकते, लिहाजा इन लोगों का धंधा लगातार फूलता-फलता जा रहा है।

फिल्म वालों ने भी इसका लाभ उठाया है। एक दौर में सिनेमाघरों में भी अश्लील फिल्मों की ऐसी बाढ़ आई थी कि शहर के अस्सी प्रतिशत सिनेमाघरों में अश्लील नामों वाली फिल्में चला करती थीं। इंटरनेट के आने के कारण ये कहानियां और फिल्में अब घर बैठे पढ़ी/देखी जा रही हैं। मस्तराम जैसे कई लेखक पैदा हो गए हैं जिन्हें इंटरनेट पर चाव से पढ़ा जा रहा है।

सेक्स की शिक्षा किस तरह दी जाए, इसका हल अब तक खोजा जा रहा है। उम्र को लेकर भी मतभेद है। इन किताबों और अश्लील फिल्मों के जरिये ज्यादातर लोगों को इस बारे में पता चलता है, लेकिन इस तरह से पाया गया ज्ञान बड़ा ही खतरनाक है। इंटरनेट के कारण अश्लील फिल्मों की पहुंच घर तक हो गई है। यही कारण है कि बच्चे वक्त से पहले जवान हो रहे हैं।

'गैंग्स ऑफ वासेपुर' जैसी फिल्म के लिए अखिलेश ने सह-लेखन किया है। देखना ये है कि 'मस्तराम' के जरिये उन्होंने एक लेखक की मानसिकता को उजागर किया है या फिर 'मस्तराम' के नाम का फायदा उठाता है। सवाल ये है कि क्या मस्तराम को पता है कि उस पर फिल्म बन गई है। शायद शरम के मारे वो रॉयल्टी मांगने में हिचकिचा रहा है।

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