नई सदी का सिनेमा- दो दशक

समय ताम्रकर

बुधवार, 12 फ़रवरी 2020 (13:43 IST)
नई सदी को आरंभ हुए बीस साल हो चुके हैं और इन 20 वर्षों में कई बदलाव हुए हैं। इंटरनेट ने दुनिया में क्रांति ला दी है और चीजों को आसान बनाने की कोशिशें जारी हैं। कुछ परंपराएं समय के साथ खत्म हो गई। तकनीकी परिवर्तन के कारण कई बातों का महत्व खो गया। लेकिन इन बीस सालों में सिनेमा और जवान हो गया। भारत में जब टीवी आया था तब सिनेमा को खत्म मान लिया गया था, लेकिन सिनेमा न केवल मजबूती से टिका रहा बल्कि आज टीवी के लिए मजबूत बैसाखी साबित हुआ। दरअसल सिनेमा और टीवी धारावाहिकों में ज्यादा भेद नहीं है। यह सिनेमा का ही एक माध्यम है। 
 
इंटरनेट ने दी ऊंचाई 
इंटरनेट ने सिनेमा को नई ऊंचाइयां दी। फिल्मों को आर्थिक रूप से मजबूती दी। आज यू-ट्यूब के जरिये 50 वर्ष पुरानी फिल्मों के जरिये भी पैसा कमाया जा रहा है। 
 
20 साल पहले सिनेमा देखने का माध्यम सिनेमाघर ही था। टेलीविजन पर फिल्मों का इतना जोर नहीं था, लेकिन पिछले बीस वर्षों में सिनेमा देखने के अनेक माध्यम पैदा हो गए। मोबाइल ने तो गजब की क्रांति ला दी। इस साढ़े पांच इंच के हैंडसेट में पूरा सिनेमाघर समाया हुआ है। इंटरनेट ने सिनेमा को पर्सनल बना दिया है। टीवी पर आपको जो फिल्म दिखाई जा रही हो वही देखना पड़ती है, लेकिन इंटरनेट के कारण आप मर्जी के मालिक बन गए हैं। आप जो फिल्म देखना चाहते हैं अपनी मर्जी से देख सकते हैं। यही कारण है कि टीवी की लोकप्रियता कम हो रही है और इंटरनेट पर उपलब्ध प्लेटफॉर्म का मार्केट बढ़ता जा रहा है। इसी कारण वेबसीरिज का उदय हुआ है। यह भी सिनेमा का एक रूप है। 
 
सिनेमा को इसका सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि निर्माता अपनी टारगेट ऑडियंस के मुताबिक फिल्में, टीवी धारावाहिक और वेबसीरिज बनाने लगे हैं। यही कारण है कि सिनेमा हमें विविध रूपों और रंगों में उपलब्ध है। 
 
फॉर्मूलों से आजादी 
आज से 20 साल पहले के समय पर नजर डाले तो सिनेमा फॉर्मूलों में जकड़ कर झटपटा रहा था। पांच फाइट सीन, पांच गाने, पांच कॉमेडी  और पांच इमोशन सीन और फिल्म तैयार, लेकिन आज इस तरह की फिल्मों को देखने वाले बहुत कम लोग हैं। अब फॉर्मूला फिल्में भी बन रही हैं तो उसमें बहुत कुछ नया दर्शकों को देना पड़ता है।
 
20 सालों में यदि फिल्में बेहतर हुई हैं, विभिन्न विषयों पर बन रही हैं, विभिन्न रूपों में बन रही है तो इसका बड़ा कारण है इंटरनेट। इंटरनेट के कारण सिनेमा ज्यादा लोगों तक पहुंचा। इंटरनेट के कारण दर्शक दुनिया भर की फिल्मों से रूबरू हुए और समझदार हुए। उनके समझदार होते ही भारतीय फिल्में भी समझदार हो गई। 
 
मेरा मानना है कि पिछले बीस वर्षों में भारतीय सिनेमा ने यदि बेहतरी की राह पकड़ी है तो इसका कारण है दर्शकों का समझदार होना और इसमें इंटरनेट का महत्वपूर्ण रोल है। 
 
यदि आप देखें तो पैरेलल और कमर्शियल फिल्मों की लाइन ब्लर होने लगी है। समानांतर सिनेमा वर्षों पहले भी बनता था, लेकिन मुंबई, दिल्ली, कोलकाता जैसे बड़े शहरों में इन फिल्मों के कुछ शो दिखाए जाते थे। इंदौर या भोपाल जैसे छोटे शहरों में फिल्म सोसायटी इनके शो आयोजित करती थी। 
 
लेकिन अब हर तरह की फिल्मों को सिनेमाघर मिलने लगे हैं क्योंकि इन फिल्मों को दर्शक उपलब्ध होने लगे हैं। यही कारण है कि कंटेंट ड्रिवन फिल्मों का मार्केट बढ़ता जा रहा है। स्टारडम अभी भी है, लेकिन सितारों की चमक फीकी होने लगी है। 
 
कौन है सुपरस्टार? 
आज के सुपरस्टार कौन हैं? आमिर खान, सलमान खान, शाहरुख खान, अक्षय कुमार, अजय देवगन? ये सब बीस साल से पुराने हैं। रितिक रोशन को भी 20 से ज्यादा साल हो गए। पिछले बीस सालों में कितने सुपरस्टार सामने आए हैं? रणबीर कपूर और रणवीर सिंह। पर अभी इन्हें सुपरस्टार कहना जल्दबाजी है। बीस साल में यदि दो सितारे मिले है तो यह बात साफ-साफ दिखाई देती है कि लोग सितारे के बजाय कंटेंट को महत्व देने लगे हैं। 
 
यही कारण है कि सितारे भी कंटेंट वाली फिल्म करने लगे हैं। उन्हें भी पता चला गया है कि यदि वे कुछ नया नहीं देंगे तो दर्शक उनकी फिल्म भी देखने को नहीं आएंगे। आमिर खान दंगल, थ्री इडियट्स, पीके जैसी फिल्में करते हैं। सलमान खान बजरंगी भाईजान या सुल्तान करते हैं। अक्षय कुमार टॉयलेट एक प्रेम कथा और पैडमैन जैसी फिल्में करते हैं। आज से बीस साल पहले इन फिल्मों की पटकथा यदि इन स्टार्स तक लेकर कोई पहुंचता तो वे उसे तुरंत दरवाजा दिखा देते। 
 
तो नई सदी में सिनेमा में जो बड़े परिवर्तन देखने को मिले उसमें से एक बड़ा परिवर्तन यह रहा कि सितारों की फिल्मों में भी कहानी, स्क्रिप्ट और संदेशों को महत्वपूर्ण माना गया। स्टार्स ने भी यह बात ठीक से समझ ली कि यदि टिके रहना है तो दर्शकों को कुछ अलग और अनोखा देना होगा। 
 
इसी कारण कई उम्दा फिल्में देखने को मिली। इसी कारण राजकुमार राव, आयुष्मान खुराना, इरफान खान, नवाजुद्दीन सिद्दीकी भी सितारे बन गए। आर्टिकल 15, बाला, बधाई हो, अंधाधुन, स्त्री, शाहिद जैसी फिल्में सामने आईं। ये फिल्मों की सफलता से बॉलीवुड के तथाकथित पंडित भी चकित रह गए। 
 
दर्शक हुए डिमांडिंग 
इस समय सभी रोजाना फिल्म देखते हैं। चाहे वे टिकटॉक पर आने वाली 15 सेकंड की फिल्म ही क्यों न हो। शॉर्ट फिल्म, टीवी पर दिखाई जाने वाली फिल्में, टीवी धारावाहिक, वेबसीरिज, सिनेमाघर में दिखाई जाने वाली फिल्में, यू-ट्यूब पर उपलब्ध फिल्में, विभिन्न कंपनियों की लाइब्रेरी में उपलब्ध फिल्में, हॉलीवुड मूवीज़, वर्ल्ड मूवीज़। इससे भी मन न भरे तो टिकटॉक जैसे एप जहां पर लोग ही वीडियो बना बना कर पोस्ट कर रहे हैं और कुछ तो बेहतरीन काम कर रहे हैं। कहने का मतलब ये कि चारों ओर फिल्में उपलब्ध है। इस वजह से दर्शक बेहद डिमांडिंग हो गए हैं। उन्हें हर चीज उच्चतम स्तर पर चाहिए। इसीलिए फिल्मों का स्तर भी ऊंचा उठा है। 
 
पिछले बीस वर्षों में ऐसा सिनेमा बना है जो पहले कभी नहीं बना करता था। आनंद कुमार जैसे एक आम से दिखने वाले आदमी की बायोपिक बनने लगी है और खास बात यह है कि दशक का सबसे हैंडसम सितारा उनकी भूमिका को निभा रहा है। बीस साल पहले तो इस तरह के आम आदमी पर फिल्म बनाने की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। यह है नई सदी का सिनेमा। एक से बढ़ कर एक बायोपिक हमें देखने को मिली है। सरबजीत, नेताजी सुभाष चंद्र बोस : द फॉरगॉटन हीरो, पान सिंह तोमार, मांझी द माउंटनमैन, नीरजा, रंग रसिया, पैडमैन, अलीगढ़ नई सदी की फिल्में हैं। 
 
नई सदी में खेल और खिलाड़ी भी सिनेमा में आ गए और दर्शकों ने इन्हें हाथों हाथ लिया। मैरीकॉम, एमएस धोनी द अनटोल्ड स्टोरीज, बुधिया सिंह बोर्न टू रन, चक दे इंडिया जैसी खेलों पर आधारित फिल्मों ने दर्शकों का मन मोहा। 
 
ध्वस्त हुई मान्यताएं 
सन 2000 के पहले यह माना जाता था की नायिका प्रधान फिल्में नहीं चलती। यदि नायिका प्रधान फिल्में बनती भी तो वे बदला लेने वाली फिल्में होती थीं। 2000 के बाद यह स्थापित मान्यता ध्वस्त होने लगी। यह हवा के ताजे झोंके के समान था। तनु वेड्स मनु रिटर्न्स और राजी जैसी नायिका प्रधान फिल्में भी सौ करोड़ क्लब में शामिल होने लगी। इन फिल्मों को ज्यादा से ज्यादा लोग स्वीकारने लगे। कहानी, दीपिका पादुकोण, करीना कपूर, प्रियंका चोपड़ा आलिया भट्ट भी अपने बूते पर सफल फिल्में देने लगीं।
 
नीरजा, कहानी, तुम्हारी सुलु, इश्किया, बेगम जान, नो वन किल्ड जेसिका, मर्दानी, वीरे दी वेडिंग, सात खून माफ जैसी फिल्में नई सदी में ही जगमगाई।  
 
पिछले 20 सालों में राजकुमार हिरानी जैसे फिल्मकार ने सर्वाधिक कामयाब फिल्में दी हैं। मुन्नाभाई सीरिज की दो फिल्में, पीके और थ्री इडियट्स किसी भी एंगल से कमर्शियल फिल्में नहीं लगती हैं। ऋषिकेश मुखर्जी, गुलजार और बासु चटर्जी जो मध्यमार्गी सिनेमा के हिमायती थे और उसी लाइन को हिरानी ने आगे बढ़ाया और सफलता पाई। मनोरंजन की मीठी चाशनी में हिरानी ने कड़वी बात दर्शकों के गले उतारी। दर्शकों ने इसे स्वीकार कर दिखाया कि वे इस तरह की फिल्मों के लिए तैयार हैं। 
 
बदला कहानी कहने का अंदाज 
नई सदी की फिल्मों के प्रस्तुतिकरण में भी बहुत बदलाव देखने को मिला। कहानी कहने का तरीका बदल गया है। जब हम अनुराग कश्यप की देव डी, अनुराग बसु की बर्फी, नीरज पांडे की स्पेशल 26, श्रीराम राघवन की अंधाधुन देखते हैं तो पाते हैं कि अपनी तकनीकी कौशल के बूते पर वे कहानी को बहुत ही अलग तरीके से पेश करते हैं। रंगों का संयोजन, सिनेमाटोग्राफी, संपादन, साउंड डिजाइनिंग का तरीका बहुत बदल गया है। हालांकि अभी भी तकनीक पर कंटेंट भारी है और यह हमेशा रहना भी चाहिए क्योंकि कांटेंट के बिना फिल्म की आत्मा ही मर जाती है। 
 
कम हुई दूरियां 
हिंदी और क्षेत्रीय भाषा के सिनेमा की दूरियां भी कम हुई हैं। आज प्रभाष जैसे दक्षिण भारतीय सितारे की फिल्म बाहुबली के रूप में अखिल भारतीय सफलता पाती है। केजीएफ चेप्टर 1 या सई नरसिम्हा रेड्डी की रिलीज हिंदी फिल्मों की तरह होती है। इसमें मल्टीप्लेक्स का भी अहम योगदान है। मल्टीप्लेक्स के कई स्क्रीन होने के कारण दूसरी भाषाओं की उल्लेखनीय फिल्मों का प्रदर्शन भी अब हिंदी भाषी क्षेत्रों में होने लगा है और इस वजह से अच्‍छी फिल्मों की तलाश में भटक रहे दर्शकों की कुछ हद तक प्यास बुझ जाती है। 
 
अनोखे विषय पर फिल्में 
बीस साल की फिल्मों पर गौर किया जाए तो परिवर्तन यह भी देखने को मिलता है कि फिल्में वास्तविकता के ज्यादा नजदीक हो गई हैं। दर्शक अब इम्पर्फेक्ट किरदारों को ज्यादा पसंद करने लगे हैं। खुलापन बढ़ा है। राजनेताओं को लेकर भी फिल्म बनने लगी हैं। छद्म देशभक्ति की फिल्में अब देखने को नहीं मिलती है। फिल्म परंपरागत दर्शकों और नए दर्शकों को संतुलित कर के बन रही हैं। टीवी परंपरागत दर्शकों के लिए कार्यक्रम बना रहा है और वेबसीरिज नए दर्शकों को लुभा रही है। कलाकारों और तकनीशियनों के लिए मौके बढ़ गए हैं। नए लेखकों को भी अवसर मिल रहे हैं। सिनेमा भी नयापन लिए हुए है। अस्सी और नब्बे के दशक हिंदी फिल्मों के लिहाज से सबसे खराब माने जाते हैं। उस दौर से नई सदी में मुक्ति मिल गई। 
 
विकी डोनर, मद्रास कैफ, आई एम, इंग्लिन विंग्लिश, पान सिंह तोमर, गैंग ऑफ वासेपुर, अलीगढ़, बर्फी, लंच बॉक्स, क्वीन, हैदर, पीकू, पिंक, मसान, एनएच 10, उड़ान, नील बटे सन्नाटा, न्यूटन, मुक्ति भवन, आंखों देखी जैसी बेहतरीन फिल्में हमें देखने को मिली। इनके विषय इतने अनोखे थे जिन पर फिल्म बनाने की 20 वर्ष पहले कोई सोच भी नहीं सकता था। 
 
बड़े बजट की फिल्में भी देखने को मिली। निर्माता अब 300 करोड़ या 500 करोड़ की फिल्में भी बनाने लगे हैं क्योंकि विभिन्न राइट्स से रकम वसूल हो जाती है। चीन सहित कई देशों में भारतीय फिल्म अच्छा व्यवसाय करने लगी हैं। 
 
कुल मिलाकर नई सदी का सिनेमा न केवल सराहा जा रहा है बल्कि बॉक्स ऑफिस पर भी फल फूल रहा है।

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