गुलज़ार : ऐ शाइर, क्या ही रंज है के तुम मशहूर हो!

ज़बान ज़बान की बात है, ज़बान ज़बान में फ़र्क होता है!
 
मसलन, उर्दू के मशहूर लेखक मुल्ला रमूजी ने एक किताब लिखी है : "गुलाबी उर्दू!" वे भोपाल की उर्दू को "गुलाबी उर्दू" कहा करते थे। कहने वाले यह भी कहते हैं के लखनऊ की उर्दू "जनानी" है और भोपाल की "मर्दानी"! के लखनऊ की उर्दू में "शहद" है, भोपाल की उर्दू में "नमक"।
 
इस लिहाज़ से "पंजाबी उर्दू" को क्या कहें! शोख़ और अल्हड़ और शायद आटे में नमक जित्ती बदतमीज़ भी! रावी पार का लहज़ा जिसमें होंठों पर गुड़ की चाशनी की तरह चिपका हो। और चाहें तो उसको "पाजी ज़बान" भी कह सकते हैं!
 
ये बेबुनियाद नहीं है कि "उर्दू अदब" की ज़ेहनियत के साथ ही पंजाब की बोली-बानी से गहरा ताल्लुक़ रखने वाले सम्पूरन सिंग कालरा उर्फ़ गुलज़ार ने "पाजी नज़्में" कही हैं। गुलज़ार के यहां शाइरी के इतर ये जो "पाजीपन" है, ये जो बांकपन है, बेतक़ल्लुफ़ी है, वही ख़ासो-ख़ुसूस है, वग़रना "बहर" में शेर तो कोई भी कह सकता है!
 
ख़ुदावंद से यह पूछने की गुस्ताख़ी गुलज़ार ही कर सकता था कि "दुआ में जब मैं जमुहाई ले रहा था / तुम्हें बुरा तो लगा होगा?" और यह कि "चिपचिपे दूध से नहलाते हैं तुम्हें / इक ज़रा छींक ही दो तो यक़ीं आए / के सब देख रहे हो।"
 
तआर्रुफ़ की ये बेतक़ल्लुफ़ तरबियत, संबोधन की यह अनौपचारिक चेष्टा ही तो मुक़म्मल गुलज़ारियत है!
 
अंग्रेज़ी कविता में सन् 1798 में जब वर्ड्सवर्थ और कॉलरिज के "लिरिकल बैलेड्स" शाया हुए तो उसी से "रोमांटिक" कविता की इब्तिदा मानी गई। ये कवि क़ुदरत से यूं मुख़ातिब होते थे, जैसे वह कोई जीता-जागता शख़्स हो। फिर शेली और कीट्स ने प्रत्यक्ष-संबोधन के कई "ओड्स" लिखे! कीट्स के "ओड टु ऑटम" में तो पतझड़ के लंबे-लंबे बाल हवा में लहराते हैं। प्रकृति के "मानवीकरण" और काव्य में उसके "उद्दीपन-आलंबन" की छटा फिर हमारे यहां छायावादी कविता में भी नज़र आई, जब सुमित्रानंदन पंत ने "पल्लव" में 'छाया" से पूछा : "कौन-कौन तुम परिहत-वसना, म्लान-मना भू-पतिता-सी?"
 
गुलज़ार की कविता का लुत्फ़ उठाने के लिए इस 'परसोनिफ़िकेशन" को, चीज़ों की इस परस्पर "सादृश्यता" को समझना बेहद ज़रूरी है, क्योंकि शायद ही कोई शाइर होगा, जो अपने परिवेश से उनके सरीखी बेतक़ल्लुफ़ी के साथ मुख़ातिब होता हो।
 
चांद तो ख़ैर गुलज़ार का पड़ोसी है!
 
रात को वे कभी भी घर से भागी लड़की बता सकते हैं, जिसे सुबह के मेले में जाना है!
 
बारिश उनके यहां पानी का पेड़ है!
 
झरने झुमकों की तरह कोहस्तानों में बोलते हैं!
 
दिन "ख़र्ची" में मिला होता है!
 
आसमान कांच के कंचों की तरह स्कूली बस्ते में रखा होता है, जिसमें जब बादल गहराते हैं तो किताबें भींज जाती हैं!
 
अपने आसपास के मौसम को इस भरपूर अपनेपन के साथ अपनी कहन में उतार लेने के लिए एक निहायत मुख़्तलिफ़ शाइराना मिज़ाज चाहिए। फिर गुलज़ार की शाइरी में तो एक ख़ास क़िस्म का 'पेंच" भी है। उन्हें ग़ालिब का गंडाबंध चेला आप मान सकते हैं, क्योंकि आंख दबाकर शेर कहने का वो अंदाज़ ग़ालिब के यहां ख़ूब मिलता है। पर गुलज़ार में मंटो और अहमद नदीम क़ासमी भी बराबर आवाजाही करते मालूम होते हैं। मंटो की मुंहफटी में मीर की पुरदर्द हैरानियां जोड़िए और उसे ग़ालिब की ज़िंदादिल फ़लस्फ़ाई उठानों का मुलम्मा चढ़ाइए तो शायद हम ख़ुद को गुलज़ार के क़द से वाबस्ता पाएंगे।
 
ये आबशारों का-सा क़द है : पहाड़ पर पानी के स्मारक सरीखा भव्य और उन्मत्त!
 
अचरज होता है, "समंदर को ज़ुराबों की तरह खेंचकर पहनने वाले जज़ीरे" यानी बंबई में यह शख़्स अपने शफ़्फ़ाक़ कुर्ते को सालों से बेदाग़ बनाए हुए है, बशर्ते बाज़ार में ख़ुद को बारम्बार बेच आने को आप कोई तोहमत ना मानें।
 
और ऐन इसी नुक़्ते पर मैं कहना चाहता हूं के ऐ शाइर, क्या ही रंज है के तुम इत्ते मशहूर हो!
 
क्योंके केवल मीडियोकर ही इत्ते मशहूर होते हैं! या फिर, शोहरत जो है, वो आपको मीडियोकर बना देती है!
 
तुम इससे बचे नहीं हो, मैं इससे बचा नहीं हूं। के शोहरत आपके कान उमेंचकर आपसे वो चीज़ें करवाती है, जो आपने ऐसे हरगिज़ नहीं करना था। फिर भी मुझको ये पसंद आता है के तुमने अपने मिजाज़ की वो तुर्शी, वो बांकपन, वो अदा, वो सिफ़त क़ायम रक्खी है। के तुम बाज़ार में ज़रूर खड़े हो, लेकिन बाज़ार की शर्तों को अपने हिसाब से बदल रहे हो और लोग तुम्हारी नक़लें उतारकर ख़ुद का कैरीकेचर बने जा रहे हैं, मुझको तुम्हारी ये बात पसंद है।
 
गुलज़ार वो आदमी है, जिसने हिंदी सिनेमा में गीत लेखन का पूरा मुहावरा ही बदल दिया। गुलज़ार ने कहीं कहा था कि गानों में जुमलों के लिए जगह बनाना ज़रूरी होती है और ये हुनर मैंने ट्रकों के पिछवाड़े पर लिखे वनलाइनर्स से हासिल किया है। "बरबाद हो रहे हैं जी, तेरे अपने शहर वाले" और "दोनों तरफ़ से बजती है हाय रे ज़िन्दगी क्या ढोलक है" जैसे मुहावरे ऐसे ही चल निकलते हैं। जहान-आलम की बारीक़ियों पर मुस्तैद नज़र रखकर उन्हें एक एक असरदार मुहावरे में बदल देने का शऊर कम ही के पास होता है।
 
गुलज़ार के मज्मुए "रात पश्मीने की" में "जंगल" नाम की एक नज़्म है, जिसमें ये सतरें आती हैं : "घनेरे काले जंगल में / किसी दरिया की आहट सुन रहा हूं मैं / कभी तुम नींद में करवट बदलती हो / तो बल पड़ता है दरिया में!" नदी की बांक सरीखी नींद में बदली गई करवट का भाव-अमूर्तन गुलज़ार ही रच सकते थे! इस एक बिम्ब पर हज़ार बार फ़िदा।
 
गुलज़ार अपनी अनूठी काव्य-प्रतिभा की अन्यतम पूर्णता को अर्जित करें और अप्रत्याशित बिम्ब-योजनाओं के नए वितान रचते रहें, इन दुआओं के साथ ही उन्हें आज सालगिरह पर मुबारक़बाद दी जा सकती है।
आमीन!
 

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