जिस तरह घर में जब कुछ खाने को न हो, तो फ्रिज में और कोने-कांतरों में रखी जूनी-पुरानी चीजें निकल आती हैं, उसी तरह जब बड़ी फिल्में मैदान में न हों, तो छोटी-छोटी ऐसी फिल्में आ जाती हैं, जिनको कोई सूँघने तक को तैयार नहीं था।
रमजान का सेकंड लास्ट शुक्रवार फिर ऐसी ही बासी-तिबासी और उपेक्षित फिल्मों से भरा हुआ है। रिलीज़ कैलेंडर के मुताबिक इस बार पाँच फिल्में रिलीज होना हैं। हो पाएँगी या नहीं, इसका कुछ पक्का नहीं है। जैकी श्रॉफ की फिल्म "कवर स्टोरी" पिछले हफ्ते ही रिलीज होनी थी, मगर अब इसकी रिलीज ३१ को चली गई है, जब बॉडीगॉर्ड भी लग रही है।
तो इस हफ्ते की पहली फिल्म का नाम है "चितकबरे - द शेड्स ऑफ ग्रे"। फिल्म की एकमात्र अच्छी बात जो फिलहाल नजर आ रही है, वो ये कि इसमें रवि किशन हैं। भोजपुरी सितारे रवि किशन बढ़िया अभिनेता हैं।
दूसरी फिल्म है "मिस्टर भट्टी ऑन छुट्टी"। ये कॉमेडी फिल्म है और इसमें मुख्य भूमिका निभाई है अनुपम खेर ने। करन राजदान इसके निर्देशक हैं। करन राजदान कश्मीरी हैं और अनुपम खेर भी। इस नाते दोनों में भाईचारा है। वरना करन राजदान ने बहुत बुरी फिल्में पहले बनाई हैं। मिसाल के तौर पर "गर्लफ्रेंड", "रखैल", "सौतन", "हवस"। प्रियंका चोपड़ा की फ्लॉप फिल्म "लव स्टोरी 2050" का स्क्रीन प्ले लिखने का श्रेय भी उनके खाते में जाता है।
शादी करके घर बसा चुकीं ईशा कोप्पिकर की फिल्म "शबरी" का भी उद्धार कैलेंडर के मुताबिक इसी हफ्ते होना है। इसके निर्देशक रामगोपाल वर्मा के पट्ठे ललित मराठे हैं। पैसा रामू का लगा है।
एक फिल्म का नाम है "स्टैंड बॉय"। इसमें कोई भी सूरत जानी-पहचानी नहीं है। गीत जरूर स्वानंद किरकिरे के हैं। बाकी सब अजनबी हैं। आखिरी फिल्म है "ये दूरियाँ"। फिल्म में हीरोइन दीपशिखा नागपाल हैं, निर्देशक भी दीपशिखा हैं और पैसा भी उन्होंने ही लगाया है। बस हीरो का रोल करने से वे मजबूर रहीं।
इस फिल्म की कहानी भावुकता भरी है। पैंतीस साल की तलाकशुदा औरत दो बच्चों के साथ रहती है। फिर एक मॉडल आता है। फिर ये वादा होता है कि बच्चों को अपना मानना होगा वगैरह...। दीपशिखा नागपाल वही हीरोइन हैं जो नहीं चल पाईं और ये फिल्म एक तरह से उनकी आखिरी उम्मीद है।
ये तो हुई इस हफ्ते की बात। अब पिछले हफ्ते लगी फिल्मों का हाल भी सुन लीजिए। अच्छी फिल्म होने के बावजूद "नॉट ए लव स्टोरी" को दर्शक नहीं मिले। जो दर्शक इसे सराह सकते थे, वे अन्ना हजारे की खबरों में खोए रहे।
"चतुरसिंह टू स्टार" को समीक्षकों ने तो स्टार से महरूम रखा ही, आम जनता ने भी फिल्म को बुरी तरह से नकार दिया। छोटे सेंटरों पर भी फिल्म डिब्बा हो गई। "सही धंधे गलत बंदे" का इंदौर जैसे शहर में केवल एक ही शो पहले दिन हुआ, बाद में सभी शो कैंसल हो गए। सिनेमा वालों को दूसरे ही दिन दूसरी फिल्म लगानी पड़ी।
चतुरसिंह तो खैर बकवास फिल्म ही थी, मगर बकाया दो फिल्मों को दर्शक ही नहीं मिले। दर्शक मिलते तो शायद फिल्म के अच्छे बुरे की भी बात होती। इस शो बिजनेस में गुणवत्ता ही सबकुछ नहीं होती, स्टार पावर भी चाहिए जो लोगों को खींच सके।