फिल्मी दुनिया का हिस्सा बनने के बाद आदमी को शोहरत में रहने की लत पड़ जाती है। शोहरत में नहीं तो इंडस्ट्री में ही चर्चा में बना रहना हर कोई चाहता है। फिल्म इंडस्ट्री में असफल आदमी को बड़ी हिकारत से देखा जाता है। यही वजह है कि जिन लोगों को इंडस्ट्री में काम मिलना बंद हो जाता है, वो थोड़े दिन रास्ता देखते हैं। फिर जब उन्हें पता चलता है कि अब न अखबारों में उनकी चर्चा है, ना उन्हें नई फिल्म की रिलीज़ पार्टी में बुलाया जा रहा है, ना जन्मदिन की पार्टियों में और ना ही कहीं और, तो वे मन ही मन कटकर रह जाते हैं।
शोहरत की चाह भी एक बीमारी है और इसी बीमार मानसिकता को उजागर करने वाला शेर कहा है इंदौर के शायर जावेद अर्शी ने- गुमनामी से अच्छा है कि ज़हर ही पी लें/ मर कर भी तो नाम कमाया जा सकता है।
फिल्मी दुनिया के कुछ उपेक्षितों ने आत्महत्या भी की है, पर अधिकतर लोग ऐसा कोई उल्टा-सीधा काम नहीं करते, बल्कि अधिकतर असफल लोग, बेकार लोग प्रोड्यूसर बन जाते हैं। वे समझते हैं कि फिल्म इंडस्ट्री में उनकी जान-पहचान है। लोग उनसे मुरव्वत करेंगे। वे सस्ते में अच्छी फिल्म बना लेंगे। फिर वे जमा-पूँजी इकट्ठी करते हैं, कर्ज़ लेते हैं, उधारियाँ करते हैं, वादे करते हैं, मकान गिरवी रखते हैं और फिल्म बनाने लगते हैं। विनाश काल में किसी की बुद्धि और ज्यादा विपरीत हो जाए तो वो निर्देशक भी खुद बन जाता है।
ताज़ा मामला संगीतकार श्रवण का है, जिन्होंने पिछले दिनों एक फिल्म बनाई थी। फिल्म का नाम था "काश मेरे होते"। यह फिल्म केवल १६० सिनेमाघरों में ही रिलीज़ हो पाई थी। इस फिल्म को बनाने का अनुभव श्रवण के लिए बहुत बुरा रहा। उनका कहना है कि मैंने फिल्म नहीं बनाई लोहे के चने चबाए हैं।
वे कहते हैं कि इस दौर में उन्होंने अच्छे-बुरे, अपने-पराए की पहचान कर ली है। मगर सवाल यह है कि श्रवण राठौर ने फिल्म बनाई ही क्यों? उनका काम संगीत देना है, फिल्म बनाना नहीं। क्या ज़रूरी है कि अच्छे-बुरे और अपने-पराए की पहचान के लिए फिल्म ही बनाई जाए? मगर श्रवण के लिए फिल्म बनाना आर्थिक लाभ का मामला नहीं था। वे चाहते थे कि जिस फिल्म इंडस्ट्री ने उन्हें उपेक्षित-सा कर रखा है, उस फिल्म इंडस्ट्री को वे बता दें कि उनके दिन अभी खत्म नहीं हुए हैं।
वे करोड़ों रुपए के फ्लैट में रहते हैं, जो लोखंडवाला में है। उनके पास छुट-पुट काम भी हैं। रियलिटी शो में जज भी वे बने हैं। यानी मामला रोज़ी-रोटी का नहीं है। वे वापस वही सम्मान चाहते हैं, जो उन्हें पहले मिला करता था। श्रवण अपना शिखर याद रखना चाहते हैं, उद्गम नहीं। उनकी पहली भोजपुरी फिल्म का नाम था "दंगल"।
अगर वे याद करें कि उनके शुरुआती दिन क्या थे, तो उन्हें यह सोचकर शांति मिलेगी कि आज वे काफी अच्छी हालत में हैं। पर वे शिखर दिनों को याद करते हैं और उन दिनों को ही फिर से पलटाकर लाना चाहते हैं।
अब वे फिर एक फिल्म बनाने की योजना बना रहे हैं। इस बार फिल्म रोमांटिक नहीं कॉमेडी होगी। कहानी ढूँढी जा रही है। उनके शुभचिंतकों को दुआ करनी चाहिए कि उन्हें कोई कहानी नहीं मिले, क्योंकि वक्त बेवफा होता है। वे प्रतिभावान हैं पर फिल्म बनाना उनके बस का नहीं। हाँ संगीत में उनका दौर फिर आने की शुभकामना रखी जा सकती है।
साँप का काटा तो फिर भी पानी वगैरह माँगता है, मगर फिल्म इंडस्ट्री का काटा पानी भी नहीं माँगता। वो बस शोहरत माँगता है। शोहरत के चक्कर में वो गलत दिशा में दौड़ पड़ता है। आखिर में थककर टूट जाता है, टूटकर बिखर जाता है। श्रवण राठौर के साथ सब शुभ होना चाहिए क्योंकि वे दिल के बहुत ही भले आदमी हैं।