1939 का वर्ष था। मुंबई के अँधेरी स्थित प्रकाश स्टूडियो में एक फिल्म की शूटिंग चल रही थी। निर्देशक थे, विजय भट्ट। 7 साल की एक बच्ची आज पहली बार कैमरे का सामना करने जा रही थी। चारों ओर चौंधियाँ देने वाली रोशनी थी। लाइट्स, कैमरा, एक्शन....... दृश्य पूरा हुआ और रातोंरात वह नन्ही अदाकारा माहज़बीं से मीना कुमारी बन गई।
बचपन अपनी पूरी उम्र जीने से पहले ही खत्म हो गया। जवानी कभी आई ही नहीं। उस मामूली-तंग खोली को छूकर गुजरती हवाओं को भी खबर नहीं हुई कि परिवार की आर्थिक जरूरतों को पूरा करती नन्ही माहजबीं कब एकाएक वयस्क हो गई।
आँसू, दर्द और अकेलेपन से मीना कुमारी की झोली लबरेज थी। उसकी पीड़ाओं की शुरुआत वहीं से हो गई थी, जब घर की गरीबी और तंगहाली की वजह से पैदा होते ही उसे एक अनाथालय में छोड़ दिया गया था, लेकिन फिर कुछ घंटों बाद जाने क्या सोचकर पिता अली बख्श उसे वापस ले आए। खुर्शीद और मधु के बाद घर में तीसरी लड़की जन्मी थी। माँ-बाप को उसके जन्म की कुछ खास खुशी न थी, और तब तक वह परिवार पर एक बोझ की ही तरह रही, जब तक फिल्म इंडस्ट्री की नजर उस नगीने पर नहीं पड़ी और वह परिवार के लिए अच्छी आमद का जरिया नहीं बन गई।
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औरत का जीवन यूँ भी आसान नहीं होता, चाहे वह किसी देश-काल-वर्ग में क्यूँ न हो। वह बार-बार टूटती है, लेकिन हर बार भरोसा करती है। प्यार की एक उम्मीद तमाम अँधेरों के बावजूद हर घड़ी रौशन रहती है। मीना के भीतर भी वह उम्मीद कहीं रौशन थी। कमाल अमरोही उस समय इंडस्ट्री का एक बड़ा नाम थे। उनमें मीना को अपने अधूरे ख्वाब पूरे होते नजर आए। नेह के अंकुर फूटे और मीना को भरोसा हो चला कि ये अकेलापन, ये वेदना अब कुछ ही घड़ी के मेहमान हैं। इसी भरोसे पर मीना ने एक विवाहित और तीन बच्चों के पिता कमाल अमरोही से छिपकर शादी की थी। तब मीना को भी इस बात का अंदाजा नहीं था कि कमाल के घर में कौन-सी जिंदगी उसका इंतजार कर रही है। प्रेम और कोमलता के सारे फूल तो उसी दिन मसल-कुचल दिए गए, जब मीना ने उस घर में पहली बार कदम रखा।
अब हर दिन एक अकेली, उदास जिंदगी थी। कमाल ज्यादातर बाहर रहते, लेकिन मीना के पल-पल की खबर रखी जाती थी। यहाँ ढेर सारी पाबंदियाँ और नियम थे। नहीं था तो प्यार भरे किसी कंधे का सहारा, दो घड़ी बैठकर कोई बात करने वाला। सिर्फ एक नर्म, रेशमी तकिया था, जिसमें मुँह छिपाकर वह जी भर रो सकती थी और एक नौकरानी थी, गवाह उन तमाम पलों की, जब करोड़ों दर्शकों के दिल की मल्लिका और अपने दौर की सबसे नामी अदाकारा को उसने बंद दरवाजों के भीतर घुटते-तड़पते देखा था।
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जब पहली बार मीना की माँ बनने की तमन्ना पूरी होने जा रही थी, तो कमाल ने उसे डॉक्टर के पास ले जाने के बहाने धोखे से बेहोश करके उसका हमल गिरवा दिया। मीना को उम्मीद थी कि वो उसे बाँहों में भरकर खुशी से नाचेगा, पर उसके हाथों में तो खंजर था और मीना का शरीर खून से लथपथ। दोबारा फिर वही हादसा पेश आया। मीना की नाजुक पीठ पर कमाल के हंटरों की फटकार मीना को सपने में भी सुनाई देती थी।
‘साहब, बीवी और गुलाम’ की छोटी बहू आज भी लोगों के जेहन में जिंदा है। उसके अप्रतिम सौंदर्य का जादू और उसकी आवाज का रहस्य आज भी चकित करते हैं। छोटी बहू की यह भूमिका दरअसल मीना की असल जिंदगी के साथ एकाकार हो गई थी। ‘कोई दूर से आवाज दे चले आओ’ मीना की असल जिंदगी का राग था। वह लिखती थीं -
चाँद तन्हा है आसमाँ तन्हा दिल मिला है कहाँ-कहाँ तन्हा। बुझ गई आस छिप गया तारा थरथराता रहा धुआँ तन्हा। जलती-बुझती-सी रौशनी के परे सिमटा-सिमटा-सा एक मकाँ तन्हा।
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इसी तरह फड़फड़ाती मीना की जिंदगी की लौ एक दिन बुझ गई। गहरे अवसाद और बेतहाशा शराब पीने के कारण उनका लीवर पूरी तरह खराब हो चुका था। अपनी मृत्यु शैय्या पर पड़े-पड़े मीना ने अपने फूले हुए पेट पर हाथ फेरा और बोली, ‘आपा, शराब की सुराही बनने के बजाय ये पेट किसी बच्चे के जन्म का जरिया भी तो हो सकता था।’ और उसे वह दिन याद आया, जब कमाल उसे धोखे से उस डॉक्टर के क्लिनिक में ले गया था।
गहरी बीमारी की हालत में भी मीना ने कमाल अमरोही से किया वायदा निभाया और ‘पाकीजा’ पूरी की। फिल्म रिलीज हुई और फ्लॉप घोषित कर दी गई। यह बात है 4 फरवरी, 1972 की। मीना उस वक्त बहुत बीमार थी और अस्पताल में थी। 31 मार्च, 1972 को जलने की चाह में ताउम्र फड़फड़ाती रही वह शमा हमेशा के लिए बुझ गई। यह ‘पाकीजा’ और कमाल अमरोही, दोनों के लिए पुनर्जन्म की तरह था। उसके बाद ‘पाकीजा’ को जो बेशुमार सफलता मिली, वह एक इतिहास है। ‘पाकीजा’ आज भी हिंदी फिल्मों की क्लासिक में शुमार की जाती है।
गहरी चोटें खाकर और तमाम दर्द सहकर भी मीना ने हमेशा कमाल का साथ निभाया था। जब कमाल के पास ‘पाकीजा’ बनाने के लिए पैसे नहीं थे, तो मीना ने ही अपनी कमाई के सारे पैसे, लगभग 40 लाख रुपए बिना विचारे उसकी हथेली पर रख दिए थे। जाते-जाते भी मीना उसे देती ही गई। सबकुछ यहीं छूट गया, अपने संग वह ले गई तो बस दर्दो-गम के धागे में पिरोए कुछ आँसुओं के मोती, जिनकी इस बेगैरत दुनिया को वैसे भी कोई जरूरत नहीं थी।