रवीन्द्र जैन हिन्दी सिनेमा के ऐसे संगीतकार रहे जिन्होंने मन की आंखों से दुनियादारी को समझा। सरगम के सात सुरों के माध्यम से उन्होंने जितना समाज से पाया, उससे कई गुना अधिक अपने श्रोताओं को लौटाया। वह मधुर धुनों के सर्जक होने के साथ गायक भी रहे और अधिकांश गीतों की आशु रचना भी उन्होंने कर सबको चौंकाया। मन्ना डे के दृष्टिहीन अंकल कृष्णचन्द्र डे के बाद रवीन्द्र जैन दूसरे व्यक्ति रहे जिन्होंने दृश्य-श्रव्य माध्यम में केवल श्रव्य के सहारे ऐसा इतिहास रचा, जो युवा-पीढ़ी के लिए अनुकरणीय बन गया है।
पिता पण्डित इन्द्रमणी जैन तथा माता किरणदेवी जैन के घर 28 फरवरी 1944 को अलीगढ़ में रवीन्द्र जैन का जन्म हुआ। अपने सात भाइयों तथा एक बहन में उनका क्रम चौथा रहा। जन्म से उनकी आँखें बंद थीं, जिसे पिता के मित्र डॉ. मोहनलाल ने सर्जरी से खोला। साथ ही यह भी कहा कि बालक की आँखों में रोशनी है, जो धीरे-धीरे बढ़ सकती है, लेकिन इसे कोई काम ऐसा मत करने देना जिससे आँखों पर जोर पड़े।
एक भजन : एक रुपया
पिता ने डॉक्टर की नसीहत को ध्यान में रखकर संगीत की राह चुनी, जिसमें आँखों का कम उपयोग होता है। रवीन्द्र ने अपने पिता तथा भाई की आज्ञा शिरोधार्य कर मन की आँखों से सब कुछ जानने-समझने की सफल कोशिश की। बड़े भाई से आग्रह कर अनेक उपन्यास सुने। कविताओं के भावार्थ समझे। धार्मिक-ग्रंथों तथा इतिहास पुरुषों की जीवनियों से जीवन का मर्म समझा। बचपन से ही कुशाग्र कुशाग्र बुद्धि के रवीन्द्र एक बार सुनी गई बात को कंठस्थ कर लेते, जो हमेशा उन्हें याद रहती।
परिवार के धर्म, दर्शन और आध्यात्मिक माहौल में उनका बचपन बीता। प्रतिदिन मंदिर जाते और वहां एक भजन गाकर सुनाना उनकी दिनचर्या बना दिया था। बदले में पिताजी एक भजन गाने पर एक रुपया इनाम भी दिया करते थे। जैन समाज और अलीगढ़ इन दो शक्तियों के सहारे रवीन्द्र का अंधेरा जीवन आगे चलकर जगमग बन गया।
शरारत, शरारतें और शरारतें
रवीन्द्र भले ही दृष्टिहीन रहे हों, मगर उन्होंने दृष्टि वालों से ज्यादा शरारतें अपने बचपन में की। परिवार का नियम था कि सूरज ढलने से पहले घर में कदम रखो और भोजन करो। रवीन्द्र ने इस नियम का कभी पालन नहीं किया। हर दिन देर रात को घर आते। पिताजी के डण्डे से मां बचाती। उनके कमरे में पलंग के नीचे खाना छिपाकर रख देती, ताकि बालक भूखा न रहे। मां की ममता की उदारता रवीन्द्र के जीवन में आगे चलकर एक ऐसा सम्बल बनी, जिसके बल पर उन्होंने अपने साथियों का जीवन संवारा।
अपनी दोस्त मण्डली के साथ रवीन्द्र गाने-बजाने की टोली बनाकर अलीगढ़ रेलवे स्टेशन के आसपास मंडराया करते थे। उनके दोस्त के पास टिन का छोटा डिब्बा था, जिस पर थाप लगाकर वह गाते और हर आने-जाने वाले का मनोरंजन करते थे। एक दिन न जाने क्या सूझा कि डिब्बे को सीधा कर दिया। उसका खुला मुंह देख श्रोता उसमें पैसे डालने लगे। चिल्लर से डिब्बा भर गया। घर आकर मां के चरणों में उड़ेल दी। पिताजी ने यह देखा तो गुस्से से लाल-पीले हो गए और सारा पैसा देने वालों को लौटाने का आदेश दिया।
अब परेशानी यह आई कि अजनबी लोगों को खोजकर पैसा कैसे वापस किया जाए? दोस्तों ने योजना बनाई कि चाट की दुकान पर जाकर चाट-पकौड़ी जमकर खाई जाए और मजा लिया जाए।
गांव की अंताक्षरी से सीखा
रवीन्द्र ने अपने दोस्तों के साथ मिल-बैठकर गांव की अंताक्षरी में खूब भाग लिया। अपने बचपन के सखा चिरंजी, लक्ष्मी, शेरा तथा चुन्ना उन्हें हमेशा याद रहे। चुन्ना के घर दूध-गुड़ और मठ्ठे का स्वाद हमेशा उनकी जुबान पर ताजा रहे। मुस्लिम दोस्तों की मदद से उर्दू-फारसी के शब्दों से ऐसा परिचय बढ़ा कि आगे चलकर शायरी का शौक लग गया। एक दोस्त रईसा गजलें खोजकर रवीन्द्र को सुनाती और वे याद कर लेते।
रवीन्द्र के बचपन के दोस्त अजीब थे। एक तरह से उनकी दूकानों पर बैठकर दुनियादारी के तमाम सबक उन्होंने वहीं सीखे हैं। मसलन विशम्भर नाई की दुकान पर बैठकर रसिया याद करते। शंकर दर्जी से ख्याल और झूलना समझते। महरी के बेटे के साथ सैर-सपाटा करते। कभी मेहतर के घर जाकर बांसुरी बजाते। इस तरह अलीगढ़ जैसे शहर जो मजबूत तालों के लिए मशहूर है, वह रवीन्द्र के जीवन में कोमलता को संचारित कर गया।
सपनों का नगर कलकत्ता
रवीन्द्र ने कलकत्ता तथा वहां के रवीन्द्र-संगीत के बारे में काफी सुन रखा था। ताऊजी के बेटे पद्म भाई ने वहां चलने का प्रस्ताव दिया, तो फौरन राजी हो गए। पिताजी ने पचहत्तर रुपये जेबखर्च के लिए दिए। मां ने कपड़े की पोटली में चावल-दाल बांध दिए। कानपुर स्टेशन पर भाई के साथ नीचे उतरे, तो ट्रेन चल पड़ी। पद्म भाई तो चढ़ गए। रवीन्द्र ने भागने की कोशिश की। डिब्बे से निकले एक हाथ ने उन्हें अंदर खींच लिया। उस अजनबी ने कहा कि जब तक भाई नहीं मिले, हमारे साथ रहना।
फिल्म निर्माता राधेश्याम झुनझुनवाला के जरिये रवीन्द्र को संगीत सिखाने की एक ट्यूशन मिली। मेहनताने में चाय के साथ नमकीन समोसा। पहली नौकरी बालिका विद्या भवन में चालीस रुपये महीने पर लगी। इसी शहर में उनकी मुलाकात पं. जसराज तथा पं. मणिरत्नम् से हुई। नई गायिका हेमलता से उनका परिचय हुआ। वह बांग्ला तथा अन्य भाषाओं में मिलकर धुनों की रचना करने लगे। हेमलता से नजदीकियों के चलते उन्हें ग्रामोफोन रिकॉर्डिंग कम्पनी से ऑफर मिलने लगे। एक पंजाबी फिल्म में हारमोनियम बजाने का मौका मिला। सार्वजनिक मंच पर प्रस्तुति के एक सौ इक्यावन रुपये तक मिलने लगे। इसी सिलसिले में वह हरिभाई जरीवाला (संजीव कुमार) के सम्पर्क में आए। कलकत्ता का यह पंछी उड़कर मुंबई आ गया।
सन् 1968 में राधेश्याम झुनझुनवाला के साथ मुंबई आए तो पहली मुलाकात पार्श्वगायक मुकेश से हुई। रामरिख मनहर ने कुछ महफिलों में गाने के अवसर जुटाए। नासिक के पास देवलाली में फिल्म पारस की शूटिंग चल रही थी। संजीव कुमार ने वहां बुलाकार निर्माता एनएन सिप्पी से मिलवाया। रवीन्द्र ने अपने खजाने से कई अनमोल गीत तथा धुनें एक के बाद एक सुनाईं। श्रोताओं में शत्रुघ्न सिन्हा, फरीदा जलाल और नारी सिप्पी थे। उनका पहला फिल्मी गीत 14 जनवरी 1972 को मोहम्मद रफी की आवाज में रिकॉर्ड हुआ।
संगीत के सौदागर
रामरिख मनहर की मार्फत राजश्री प्रोडक्शन के ताराचंद बड़जात्या से मुलाकात रवीन्द्र के फिल्म करियर को संवार गई। अमिताभ बच्चन, नूतन अभिनीत फिल्म सौदागर में गानों की गुंजाइश नहीं थी। उसके बावजूद रवीन्द्र ने गुड़ बेचने वाले सौदागर के लिए मीठी धुनें बनाईं, जो यादगार हो गईं। यहीं से रवीन्द्र और राजश्री का सरगम का कारवां आगे बढ़ता गया। फिल्म तपस्या, चितचोर, सलाखें, फकीरा के गाने लोकप्रिय हुए और मुम्बइया संगीतकारों में रवीन्द्र का नाम स्थापित हो गया। फिल्म दीवानगी के समय सचिन देव बर्मन बीमार हो गए तो यह फिल्म उन्होंने रवीन्द्र को सौंप दी।
रवीन्द्र ने ब्रज की संस्कृति ब्रजभूमि फिल्म बनाने का विचार किया। दोस्त शिवकुमार ने निर्माता-निर्देशक-नायक तीनों की भूमिकाएं सम्हाली। रवीन्द्र ने भी इस फिल्म में हरिया का रोल कर अभिनेता बन गए। फिल्म नदिया के पार रवीन्द्र की सफलतम फिल्मों में से एक है। सारे उत्तर प्रदेश में इस फिल्म के गानों ने धूम मचा दी थी। एक महफिल में रवीन्द्र-हेमलता गा रहे थे। श्रोताओं में राज कपूर भी थे। इक मीरा इक राधा दोनों ने श्याम को चाहा- गीत सुनरकर राज कपूर झूम उठे, बोले- यह गीत किसी को दिया तो नहीं? पलटकर रवीन्द्र ने कहा- राज कपूर को दे दिया है। बस, यहीं से उनकी एंट्री राज कपूर के शिविर में होती है। आगे चलकर राम तेरी गंगा मैली का संगीत रवीन्द्र ने ही दिया और फिल्म तथा संगीत बेहद लोकप्रिय हुए।
नवें दशक से हिन्दी सिनेमा के गीत-संगीत का पतन प्रारंभ हुआ। नए गीतकार-संगीतकारों के समीकरण में काफी उलटफेर हुए। रवीन्द्र ने अपने को पीछे करते हुए संगीत सिखाने की अकादमी के प्रयत्न शुरू किए। वह मध्य प्रदेश शासन के सहयोग से यह अकादमी कायम करना चाहते थे।
कुछ दिलचस्प बातें
* एक बंगाली महाशय ने रवीन्द्र को भजन के लिए घर बुलाया। आधी रात के बाद उन्हें भूख लगी। भोजन मांगा। जवाब मिला- हमने तो भोजान (भजन) के लिए बुलाया था, भोजन के लिए नहीं।
* फिल्म रामभरोसे का गीत- चल चल रे काठमांडू, पीयेंगे वहीं चंडू सेंसर की चपेट में आ गया। मुखड़े को बदला गया- चल चल रे काठमांडू मिलेंगे वहां शभू- तब फिल्म पास की गई।
* रवीन्द्र के जीवन में हिन्दी के 'र' अक्षर का महत्व है। कलकत्ता में राधेश्याम के घर रहे। मुंबई में रामरिख मनहर ने राजश्री वालों से मिलवाया। रफी ने पहला गीत गया। रामानंद सागर की रामायण ने नैया पार लगा दी। राज कपूर से परिचय हुआ तो राम तेरी गंगा मैली ने अपार सफलता प्राप्त की।
* वर्ष 2002-03 में मध्यप्रदेश शासन के संस्कृति विभाग ने लता मंगेशकर अलंकरण से सम्मानित किया।
* रवीन्द्र जैन के अनुसार - रीमिक्स सिर्फ गिमिक्स है। फ्यूजन- एक कंफ्यूजन है। रिद्म में कोई दम नहीं, तो बेदम है। कॉपी राइट का मतलब है- कॉपी करने का राइट।
लोकप्रिय गीत
* गीत गाता चल, ओ साथी गुनगुनाता चल (गीत गाता चल - 1975)
* जब दीप जले आना (चितचोर - 1976)
* ले जाएंगे, ले जाएंगे, दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे (चोर मचाए शोर - 1973)
* ले तो आए हो हमें सपनों के गांव में (दुल्हन वहीं जो पिया मन भाए - 1977)
* ठंडे ठडे पानी से नहाना चाहिए (पति पत्नी और वो - 1978)
* इक राधा इक मीरा दोनों (राम तेरी गंगा मैली - 1985)
* अंखियों के झरोखे से, मैंने जो देखा सांवरे (अंखियों के झरोखे से - 1978)