हिन्दी सिनेमा में संवाद एवं पटकथा लेखन में लेखकों की हैसियत "सितारे" बराबर करने का श्रेय सलीम और जावेद के खाते में दर्ज है। इस जोड़ी के पहले फिल्मों में लेखक की गिनती मुंशी के रूप में की जाती थी। इसी हीनता के कारण हिन्दी के मूर्धन्य साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद, हरिकृष्ण प्रेमी, भगवतीचरण वर्मा, सेठ गोविंददास फिल्मों में कुछ समय रहने के बाद अपने ठीयों पर लौट गए थे।
मध्यप्रदेश की देन सलीम खान और जावेद अख्तर मध्यप्रदेश की देन हैं। यदि मध्यप्रदेश ने अशोक कुमार, किशोर कुमार, जॉनी वॉकर जैसे कलाकार बॉलीवुड को दिए, तो दो लेखक भी ऐसे दिए, जिन्होंने सत्तर के दशक में एक के बाद एक सुपरहिट फिल्में लिखीं। उनकी फिल्मों की चुस्त पटकथा और चुटीले संवाद इतने लोकप्रिय हुए कि ग्रामोफोन कंपनी को उनका साउंड ट्रेक जारी करना पड़ा।
यादों की बारात जावेद अख्तर का जन्म १९४५ में ग्वालियर में हुआ। साठ के दशक में उन्होंने संवाद लेखन से करियर की शुरुआत की। फिल्म थी एसएम सागर की "सरहदी लुटेरा"। इसमें सलीम हीरो के रोल में काम कर रहे थे। यहीं से दोनों की दोस्ती का सफर शुरू हुआ। सलीम खान का संबंध इंदौर से है। उनके पिता पुलिस अधिकारी थे। चंबल की बीहड़ों में और डाकुओं के बीच पिता की नौकरी के चलते सलीम खान का बचपन भी अपराधियों के इर्द-गिर्द गुजरा।
सलीम-जावेद का जोड़ी के रूप में करियर राजेश खन्ना की सुपरहिट फिल्म "हाथी मेरे साथी" (१९७१) की पटकथा से आरंभ हुआ। इन दोनों की दोस्ती "लेखक-जोड़ी" में बदल गई और नतीजे में दर्शकों को देखने को मिली "सीता और गीता" (१९७२)। इसके बाद दोनों ने मिलकर नासिर हुसैन की "यादों की बारात" (१९७३) लिखी। ये दोनों फिल्में बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट रहीं।
अमिताभ का सूर्योदय सत्तर का दशक हिन्दुस्तान के इतिहास में राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक नजरिए से निराशा, हताशा और अवाम के गुस्से का कालखंड रहा। इन दशाओं ने हिन्दी सिनेमा को एक नई दिशा दी। रजतपट पर एक ऐसे "हीरो" का उदय हुआ, जिसने आम जनता की व्यथा-कथा को अपने किरदार के माध्यम से अभिव्यक्ति दी। "एंग्री यंग मैन" का आगमन सामाजिक दशाओं की चरम परिणति था। सलीम-जावेद ने अपनी कलम के माध्यम से ऐसे किरदार को मुखर किया। इन्हीं दिनों अमिताभ बच्चन जैसे महानायक का परदे पर उदय हुआ। "एंग्री यंग मैन" की संज्ञा तथा विशेषण दोनों उनके नाम के साथ चस्पा कर दिए गए।
दर्शकों ने "जंजीर" (१९७३), "दीवार" एवं "शोले" (१९७५) और "त्रिशूल" (१९७८) में अपने महानायक को देखा और यह मान लिया कि उनकी लड़ाई लड़ने वाला "योद्धा" मैदान में आ गया है। सलीम-जावेद की लेखनी की यह सबसे बड़ी प्रामाणिक विशेषता है कि फिल्म दर्शक अमिताभ की छवि में अपनी छवि देखने लगे थे। अमिताभ बच्चन की लोकप्रियता जैसे-जैसे सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ती गईं, वैसे-वैसे सलीम-जावेद भी उनके पीछे सफलता प्राप्त करते चले गए। सितारे का पारिश्रमिक और लेखक का पारिश्रमिक तराजू के पलड़ों पर बराबर-बराबर तौलना पड़ा।
बिछड़ गया दो हंसों का जोड़ा सफलता को पचाना या लंबे समय तक बनाए रखना कठिन होता है। खुशफहमियाँ, गलतफहमियों में बदलीं और सलीम-जावेद का दो हंसों का जोड़ा १९८० में अलग हो गया। इसके बाद जावेद अख्तर ने स्वतंत्र रूप से कई सुपरहिट फिल्में लिखीं, जिनमें "बेताब" (१९८३) उल्लेखनीय है। इसके बाद डाउनफाल शुरू हुआ जो "रूप की रानी चोरों का राजा" और "प्रेम" जैसी फिल्मों में देखने को मिला।
बेटा, बाप से आगे सलीम खान अपने अलग रास्ते पर चल पड़े। उन्होंने सबसे अधिक पैसे लेकर शशिलाल नायर की फिल्म "फलक" लिखी, जो असफल रही। हालाँकि उनकी लिखी "नाम" (१९८६) सफल रही, लेकिन जब डबल-माइंड सिंगल हो गया तो फिल्मों के फ्लॉप होने का सिलसिला चल पड़ा। सलीम खान ने फिल्में लिखना बंद कर दिया। उनका बेटा सलमान खान वयस्क हो गया तो उसे राजश्री प्रोडक्शन के सूरज बड़जात्या ने "मैंने प्यार किया" से बतौर हीरो लांच किया। आज सलमान बॉलीवुड के "दबंग स्टार" हैं।
एक लड़की को देखा तो... जावेद अख्तर ने अपना रास्ता बदल लिया। वे गद्य लेखन से पद्य लेखन की विधा में चले गए। "सिलसिला" और "साथ-साथ" के गीत लिखे। साहित्यिक स्पर्श के साथ पॉपुलर अपील के फिल्मी गीत उन्होंने रचे और वे एक श्रेष्ठ गीतकार के रूप में गुलजार के सामने डट गए। उनके कुछ गीतों के मुखड़े हैं : "यूँ जिंदगी की राह में मजबूर हो गए" (साथ-साथ), "क्या तुमने ये कह दिया" (साज), "हवा हवाई" (मि. इंडिया) और "१९४२ : ए लव स्टोरी" में "एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा"। जावेद अख्तर को १० फिल्म फेयर अवॉर्ड मिल चुके हैं। उन्होंने शबाना आजमी से निकाह किया। उनकी पहली पत्नी हनी ईरानी के बेटे फरहान तथा बेटी जोया भी फिल्म निर्माण-निर्देशन-अभिनय के क्षेत्र में हैं।
'मेरे पास माँ है!' सलीम-जावेद की जोड़ी के हिन्दी सिनेमा को कई अनोखे योगदान हैं, जो सिर्फ उन्हीं के खाते में दर्ज हैं। जैसे, उनकी फिल्मों "दीवार" एवं "त्रिशूल" में माँ के किरदार को अहम रखा गया। "दीवार" का शशि कपूर द्वारा बोला गया यह संवाद अजर-अमर है : "मेरे पास माँ है।" माँ के प्रति उनके इस लगाव का सबसे बड़ा कारण यह है कि दोनों की माँ का निधन उनकी किशोर अवस्था में ही हो गया था। इस जोड़ी ने अपनी पटकथा से लार्जर देन लाइफ किरदार खड़े किए। उदाहरण के लिए "शोले" में गब्बरसिंह, "मि. इंडिया" में मोगाम्बो, "शान" में शाकाल। दर्शकों के जेहन में गब्बर-मोगाम्बो हमेशा के लिए दर्ज हो गए हैं।