अब परिस्थिति पूरी तरह बदल रही है। अमेरिका में बॉलीवुड की फिल्मों पर ब्लॉग लिखे जा रहे हैं, यह तो हुई पुरानी खबर। नई खबर यह है कि योरप के विश्वविद्यालयों में बॉलीवुड पर सेमिनार हो रहे हैं, कोर्स चलाए जा रहे हैं और रिसर्च हो रही है!
अच्छी हिन्दी सीखने के लिए बॉलीवुड सीन्स को पॉडकास्ट पर सुनना या फिर बॉलीवुड डांस देखना, बॉलीवुड स्टार्स को अपने यहाँ व्याख्यान के लिए बुलाना या फिर गैर-भारतीयों द्वारा बॉलीवुड पर ब्लॉग लिखना हो, कई तरह से पश्चिम में हिन्दी सिनेमा के प्रति रुझान बढ़ा है।
कुल मिलाकर पश्चिम में हमारे भावनात्मक और गीत-संगीत वाले "लाउड" सिनेमा के प्रति भी नजरिया बदला है। हाँ, पहले भी भारतीय फिल्मों की चर्चा यदा-कदा हो जाया करती थी, लेकिन वे सारी समानांतर या फिर ऑफ-बीट फिल्में हुआ करती थीं। सत्यजीत रे के साथ-साथ एनआरआई जगमोहन मूँदड़ा, दीपा मेहता और मीरा नायर की फिल्मों पर पश्चिम में कुछ ध्यान दिया जाता था। लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा के प्रति पश्चिम का रुझान हालिया बदलाव है।
ज्यादा समय नहीं हुआ बस पिछले ही साल की तो बात है, योरप की सबसे बड़ी और सबसे पुरानी विएना यूनिवर्सिटी (ऑस्ट्रिया) में पॉपुलर हिन्दी सिनेमा पर तीन-दिनी कांफ्रेंस हुई। इसमें "शाहरुख खान एंड ग्लोबल बॉलीवुड" विषय पर चर्चा हुई। एक तरह से यह इस पुराने विश्वविद्यालय के नए दौर के साथ कदमताल करने की कोशिश नजर आ रही है।
यूनिवर्सिटी ऑफ ऑकलैंड (न्यूजीलैंड) में न सिर्फ करन जौहर और यश चोपड़ा के क्रॉसओवर सिनेमा को कोर्स में शामिल किया गया है, बल्कि राज कपूर की "आवारा" से लेकर सत्यजीत रे की "पाथेर पांचाली" और दीपा मेहता की "फायर" से लेकर अनुशा रिज़वी की "पीपली लाइव" तक का अध्ययन किया जाएगा।
अमेरिकन ब्लॉगर जैनिफर हॉपफिंगर बताती हैं कि पश्चिम में दक्षिण एशिया के सिनेमा पर होने वाले ज्यादातर शोध हिन्दी फिल्मों पर किए जा रहे हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ केलिफोर्निया, डीपॉल यूनिवर्सिटी (शिकागो), फ्लोरिडा स्टेट यूनिवर्सिटी, न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी, यूनिवर्सिटी ऑफ सदर्न केलिफोर्निया, सायराक्यूस यूनिवर्सिटी (न्यूयॉर्क) और येल यूनिवर्सिटी में हिन्दी सिनेमा पर अलग-अलग कोर्स चलाए जा रहे हैं।
हरेक कोर्स का लक्ष्य अलग है और उसका सिलेबस भी अलग है। कुछ में हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री के इतिहास पर जोर दिया गया है तो कुछ में उसके विज्ञापन और बनने की प्रक्रिया पर। कुछ जगह तो हिन्दी फिल्मों में सौंदर्य और राजनीति पर भी शोध किए जा रहे हैं। साथ ही इन फिल्मों के माध्यम से भारतीय समाज में उपनिवेशवाद, पॉपुलर कल्चर, आधुनिकता, लैंगिक संवेदनशीलता, धर्म, राजनीति और जीवन जैसे गंभीर विषयों पर भी विचार किया जा रहा है।
कुल मिलाकर यह कि चाहे हमने अपने सिनेमा को कमतर देखा हो, लेकिन पश्चिम में हमारे सिनेमा के प्रति जागती रुचि ने हमें यह गर्व करने का मौका तो दिया ही है कि भले ही हम तकनीकी तौर पर और कल्पनाशीलता के स्तर पर कमतर हों लेकिन जीवन की सहज चीजों, रिश्तों, समाज, धर्म, सामाजिक परिवर्तन और मनोविज्ञान जैसे विषयों पर बड़े पर्दे पर मजेदार मनोरंजन रचते हैं और यह भी गोरों को भी यह मजा देने लगा है।