मन्ना डे ने शास्त्रीय संगीत को फिल्म जगत में दिलाई विशिष्ट पहचान

WD Entertainment Desk

गुरुवार, 24 अक्टूबर 2024 (15:55 IST)
भारतीय सिनेमा जगत में मन्ना डे को एक ऐसे पार्श्वगायक के तौर पर याद किया जाता है जिन्होंने अपने लाजवाब पार्श्वगायन के जरिए शास्त्रीय संगीत को विशिष्ट पहचान दिलाई। प्रबोध चन्द्र डे उर्फ मन्ना डे का जन्म एक मई 1919 को कोलकाता में हुआ था। मन्ना डे के पिता उन्हें वकील बनाना चाहते थे लेकिन उनका रूझान संगीत की ओर था और वह इसी क्षेत्र में अपना करियर बनाना चाहते थे।
 
मन्ना डे ने संगीत की प्रारंभिक शिक्षा अपने चाचा के.सी. डे से हासिल की। मन्ना डे के बचपन के दिनों का एक दिलचस्प वाक्या है। उस्ताद बादल खान और मन्ना डे के चाचा एक बार साथ-साथ रियाज कर रहे थे। तभी बादल खान ने मन्ना डे की आवाज सुनी और उनके चाचा से पूछा यह कौन गा रहा है। जब मन्ना डे को बुलाया गया तो उन्होंने अपने उस्ताद से कहा बस ऐसे ही गा लेता हूं लेकिन बादल खान ने मन्ना डे की छिपी प्रतिभा को पहचान लिया। इसके बाद वह अपने चाचा से संगीत की शिक्षा लेने लगे।
 
मन्ना डे 40 के दशक में अपने चाचा के साथ संगीत के क्षेत्र में अपने सपनों को साकार करने के लिए मुंबई आ गए। वर्ष 1943 में फिल्म 'तमन्ना' में बतौर पार्श्वगायक उन्हें सुरैया के साथ गाने का मौका मिला। हालांकि इससे पहले वह फिल्म रामराज्य में कोरस के रूप में गा चुके थे। दिलचस्प बात है, यही एकमात्र फिल्म थी जिसे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने देखा था। शुरूआती दौर में मन्ना डे की प्रतिभा को पहचानने वालों में संगीतकार- शंकर जयकिशन का नाम खास तौर पर उल्लेखनीय है। इस जोड़ी ने मन्ना डे से अलग-अलग शैली में गीत गवाए। 
 
शंकर जयकिशन ने मन्ना डे से 'आजा सनम मधुर चांदनी में हम' जैसे रूमानी गीत और 'केतकी गुलाब जूही' जैसे शास्त्रीय राग पर आधारित गीत भी गवाए लेकिन दिलचस्प बात है कि शुरुआत में मन्ना डे ने यह गीत गाने से मना कर दिया था। संगीतकार शंकर जयकिशन ने जब मन्ना डे को 'केतकी गुलाब जूही' गीत गाने की पेशकश की तो पहले तो वह इस बात से घबरा गए कि भला वह महान शास्त्रीय संगीतकार भीमसेन जोशी के साथ कैसे गा पाएंगे। 
 
मन्ना डे ने सोचा कि कुछ दिनों के लिए मुंबई से दूर पुणे चला जाए। जब बात पुरानी हो जाएगी तो वह वापस मुंबई लौट आएंगे और उन्हें भीमसेन जोशी के साथ गीत नहीं गाना पड़ेगा लेकिन बाद में उन्होंने इसे चैंलेंज के रूप में लिया और 'केतकी गुलाब जूही' को अमर बना दिया। वर्ष 1950 में संगीतकार एस. डी. बर्मन की फिल्म मशाल में मन्ना डे को ‘ऊपर गगन’ विशाल गीत गाने का मौका मिला। फिल्म और गीत की सफलता के बाद बतौर पार्श्वगायक वह अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए। 
 
मन्ना डे को अपने करियर के शुरुआती दौर में अधिक शोहरत नहीं मिली। इसकी मुख्य वजह यह रही कि उनकी सधी हुई आवाज किसी गायक पर फिट नहीं बैठती थी। यही कारण है कि एक जमाने में वह हास्य अभिनेता महमूद और चरित्र अभिनेता प्राण के लिए गीत गाने को मजबूर थे। वर्ष 1961 में संगीत निर्देशक सलिल चौधरी के संगीत निर्देशन मे फिल्म काबुली वाला की सफलता के बाद मन्ना डे शोहरत की बुंलदियो पर जा पहुंचे। फिल्म काबुली वाला में मन्ना डे की आवाज में प्रेम धवन रचितयह गीत ‘ए मेरे प्यारे वतन ऐ मेरे बिछड़े चमन’ आज भी श्रोताओं की आंखो को नम कर देता है।
 
प्राण के लिए उन्होंने फिल्म उपकार में ‘कस्मे वादे प्यार वफा’ और जंजीर में ‘यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिंदगी’ जैसे गीत गाए। उसी दौर में उन्होंने फिल्म पड़ोसन में हास्य अभिनेता महमूद के लिए ‘एक चतुर नार’ गीत गाया तो उन्हें महमूद की आवाज समझा जाने लगा। आमतौर पर पहले माना जाता था कि मन्ना डे केवल शास्त्रीय गीत ही गा सकते हैं लेकिन बाद में उन्होंने ‘ऐ मेरे प्यारे वतन’, ‘ओ मेरी जोहरा जबीं’, ‘ये रात भीगी-भीगी’, ‘ना तो कारवां की तलाश है’ और ‘ए भाई जरा देख के चलो’ जैसे गीत गाकर अपने आलोचकों का मुंह सदा के लिए बंद कर दिया।
 
प्रसिद्ध गीतकार प्रेम धवन ने मन्ना डे के बारे में कहा था मन्ना डे हर रेंज में गीत गाने में सक्षम है। जब वह उंचा सुर लगाते है तो ऐसा लगता है कि सारा आसमान उनके साथ गा रहा है जब वह नीचा सुर लगाते है तो लगता है उसमें पाताल जितनी गहराई है और यदि वह मध्यम सुर लगाते है तो लगता है उनके साथ सारी धरती झूम रही है। मन्ना डे के पार्श्वगायन के बारे में प्रसिद्ध संगीतकार अनिल विश्वास ने एक बार कहा था कि मन्ना डे हर वह गीत गा सकते हैं।
 
जो मोहम्मद रफी, किशोर कुमार या मुकेश ने गाए हो लेकिन इनमें कोई भी मन्ना डे के हर गीत को नही गा सकता है। इसी तरह आवाज की दुनिया के बेताज बादशाह मोहम्मद रफी ने एक बार कहा था आप लोग मेरे गीत को सुनते हैं लेकिन यदि मुझसे पूछा जाए तो मैं कहूंगा कि मैं मन्ना डे के गीतों को ही सुनता हूं।
 
मन्ना डे केवल शब्दों को ही नहीं गाते थे, अपने गायन से वह शब्द के पीछे छिपे भाव को भी खूबसूरती से सामने लाते थे। शायद यही कारण है कि प्रसिद्ध हिन्दी कवि हरिवंश राय बच्चन ने अपनी अमर कृति ‘मधुशाला’ को स्वर देने के लिए मन्ना डे का चयन किया। मन्ना डे को फिल्मों में उल्लेखनीय योगदान के लिए 1971 में पद्मश्री पुरस्कार और 2005 में पद्मभूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके अलावा वह 1969 में फिल्म मेरे हुजूर के लिए सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक बने।
 
1971 में बंगला फिल्म ‘निशि पदमा’ के लिए सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक और 1970 में प्रदर्शित फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ के लिए फिल्म फेयर के सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक पुरस्कार से सम्मानित किए गए। मन्ना डे के संगीत के सुरीले सफर में एक नया अध्याय जुड़ गया जब फिल्मों में उनके उल्लेखनीय योगदान को देखते हुए उन्हें वर्ष 2007 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। मन्ना डे ने अपने पांच दशक के करियर में लगभग 3500 गीत गाए। अपने लाजवाब पार्श्वगायन से श्रोताओं के दिलमें खास पहचान बनाने वाले मन्ना डे 24 अक्टूबर 2013 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।

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