फिल्म को निर्देशक का माध्यम कहा ही इसलिए जाता है कि इसमें अच्छे से अच्छे कलाकार को भी बुरा निर्देशक चौपट कर सकता है और बुरे अभिनेता से भी अच्छा अभिनय करवा कर कामयाब फिल्म बना सकता है। फिल्म "जुगाड़" में निर्देशक के पास मनोज वाजपेयी जैसा समर्थ अभिनेता था, विजय राज जैसा मंझा हुआ कलाकार था, रिशिता भट्ट जैसी हीरोइन थी, कुछ कलाकार ऑफिस-ऑफिस वाले भी थे, गोविंद नामदेव भी थे, फिर भी निर्देशक आर. आनंद कुमार कोई तीर नहीं मार सके। बहुत ही बचकाने आइडिए पर ये फिल्म बनी है। जुगाड़ शब्द के आस-पास फिल्म की कहानी रची गई है और निर्देशक को भी इस शब्द से विशेष प्यार है।
कहानी का आधार दिल्ली में पिछले दिनों हुई एक सरकारी कवायद है, जिसमें रहवासी इलाकों से ऑफिस हटाए गए थे। निर्माता संदीप कपूर शायद उस हादसे के भुक्त -भोगी हैं। तभी उन्हें यह मुगालता हुआ कि उनकी आपबीती पर फिल्म बने और उसे दुनिया देखेगी। फिराक गोरखपुरी का शेर है- सबको अपने-अपने दुःख हैं, सबको अपनी-अपनी पड़ी है/ ऐ दिले-गमगीं तेरी कहानी कौन सुनेगा, किसको सुनाएँ? फिल्म में मुख्य किरदार मनोज वाजपेयी निभा रहे हैं और उनका नाम भी संदीप कपूर ही है। इससे और भी लगता है कि ये निर्माता की रामकहानी है। मगर ऑफिस बंद होना इतना बड़ा दुःख शायद नहीं होता। ऑफिस बंद होने से बैंक खाते नहीं सील हो जाते। मनोज वाजपेयी यहाँ कुछ ज्यादा ट्रेजिक हो गए हैं।
खैर इस पर तो बहस हो सकती है कि ऑफिस सील हो जाने से आदमी कितना दुःखी होता है, पर इस पर कतई बहस नहीं हो सकती कि फिल्म का निर्देशन बेहद बुरा है। अगर मनोज वाजपेयी को ऐसे निर्देशक और ऐसी ढीली स्क्रिप्ट पर काम करना पड़ रहा है, तो समझा जा सकता है कि वे कितने बुरे दिन गुज़ार रहे हैं। "सत्या" की कामयाबी के बाद "वीर-ज़ारा" ही उनकी उल्लेखनीय फिल्म थी। इसके बाद मनोज वाजपेयी ने न जाने कैसे फैसले लिए कि दिखाई देना ही बंद हो गए और अब दिखे भी हैं तो इस बकवास-सी फिल्म में। आशुतोष राणा के साथ भी यही हुआ। ये दोनों ही बहुत प्रतिभाशाली होने के बावजूद सफल नहीं हैं और कारण है इनके फैसले। दोनों ने जमकर रोल ठुकराए हैं और हीरो का रोल माँगा है। दोनों को ही खलनायक के रोल मिल सकते थे। अन्य छोटे-मोटे रोल जब अजनबियों को मिल जाते हैं, तो इनको भी मिल जाते मगर गलत सलाहों के कारण दोनों डूब गए। जहाँ तक जुगाड़ का सवाल है इसे इस साल की सबसे कमज़ोर फिल्म बेहिचक कहा जा सकता है।