घोस्ट ‍: फिल्म समीक्षा

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निर्माता : भरत शाह
निर्देशक : पूजा जतिंदर बेदी
संगीत : शरीब सबरी - तोषी सबरी
कलाकार : शाइनी आहूजा, सयाली भगत, जूलिया ब्लिस, तेज सप्र
सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 1 घंटा 58 मिनट * 14 रील
रेटिंग : 0.5/5

फिल्म डायरेक्टर बनने के लिए कोई डिग्री या हुनर की जरूरत नहीं होती है। जेब में पैसा हो तो कोई भी फिल्म बना सकता है। शायद यही वजह है कि हर वर्ष ढेर सारी कचरा फिल्में बनती हैं। पूजा जतिंदर बेदी ने भी शायद अपना शौक पूरा करने के लिए ‘घोस्ट’ निर्देशित की है, लिखी भी है और संपादित भी की है।

पूजा का शौक तो पूरा हो गया, लेकिन उनका मजा दर्शकों के लिए सजा बन गया। वे इस फिल्म के जरिये क्या दिखाना चाहती है, समझ में ही नहीं आता। इससे अच्छी हॉरर फिल्में तो रामसे ब्रदर्स बनाते थे। ‘घोस्ट’ में न ढंग की कहानी है, न संवाद। ‘अगर मर्दानगी को अय्याशी कहते हैं तो मैं अय्याश हूं’, जैसे संवाद सुनने को मिलते हैं।

कहानी है सिटी अस्पताल की, जिसमें एक नर्स, डॉक्टर और वार्ड बॉय की क्रूरता पूर्वक हत्या की जाती है। इन लोगों का दिल निकाल लिया जाता है और चेहरा बिगाड़ दिया जाता है। सुहाना (सयाली भगत) इसी अस्पताल में डॉक्टर हैं। फिल्म में उन्हें डॉक्टर कहा गया है इसलिए यकीन करना पड़ता है वरना उनकी ड्रेसेस को देख तो यही लगता है कि वे मॉडल हैं।

 
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पुलिस निकम्मी है। फिल्म में कभी कुछ करती दिखाई नहीं देती। इसलिए मामले को एक प्राइवेट डिटेक्टिव को सौंपा जाता है। उसकी लाइफ स्टाइल को देख कुछ युवा जासूस बनने के लिए प्रेरित हो सकते हैं क्योंकि वह महंगी कारों में घूमता है। पहाड़ों पर जाकर फोटोग्राफी करता है। फाइव स्टार होटल में रूकता है और रात को पब में महंगी शराब पीता है। वह जासूसी करते हुए कभी नजर नहीं आता।

अचानक विजय और सुहाना पर फिल्माया एक रोमांटिक गाना टपक पड़ता है और पता चलता है कि सुहानी तो विजय पर मर मिटी है। विजय का अपने बाप से नाराजगी वाला ट्रेक भी है। दो-चार सीन फिल्म की लंबाई बढ़ाने के लिए इन बाप-बेटों पर भी फिल्मा दिए गए हैं। अमिताभ और दिलीप कुमार की शक्ति वाली स्टाइल में। आखिर में थोड़ी बहुत उठा-पटक के बाद रहस्य पर से परदा उठता है और दर्शक सिनेमाहॉल से ऐसे निकलते हैं जैसे जेल से छूटे हों।

पूजा ने जैसी बेसिर-पैर कहानी लिखी है वैसा ही उनका निर्देशन है। उनके दृश्य दोहराव के शिकार हैं। एक-दो दृश्य ऐसे हैं जहां उन्होंने डर पैदा किया है वरना ज्यादातर दृश्यों में तो पहले से ही पता चल जाता है कि अब डरावनी घटना घटने वाली है और दर्शक पहले से ही तैयार हो जाता है। डरावने चेहरे वाले मेकअप पुरानी सी-ग्रेड फिल्मों की याद दिलाते हैं। गानों को देख फास्ट फॉरवर्ड बटन की याद आती है।

 
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फिल्म के सारे कलाकारों का अभिनय घटिया है। शाइनी आहूजा और सयाली भगत बिलकुल प्रभावित नहीं करते। यही हाल जूलिया का है। तकनीकी रूप से फिल्म बेहद कमजोर है।

कहने को तो ‘घोस्ट’ हॉरर फिल्म है, लेकिन रात को भूत-प्रेत के डर से नहीं बल्कि इस बुरी फिल्म को देखने के अफसोस के कारण नींद नहीं आएगी।

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