इस समय वास्तविक घटनाओं पर आधारित फिल्मों का चलन है, इसलिए निर्माता-निर्देशक संजय गुप्ता ने वर्तमान में बह रही हवा को ध्यान में रखते हुए हुसैन जैदी द्वारा लिखी गई किताब ‘डोंगरी टू दुबई’ के आधार पर ‘शूटआउट एट वडाला’ बनाई।
फिल्म देखने के बाद यह बात पूरी तरह से समझ में आ जाती है कि इस पुस्तक की केवल आड़ ली गई है और फिल्म पूरी तरह से संजय गुप्तामय है। इसमें बेवजह की हिंसा है, अपशब्दों की भरमार है, जगह भरने के लिए एक-दो नहीं बल्कि पूरे तीन आइटम सांग्स हैं।
मन्या सुर्वे की यह कहानी है कि किस तरह परीक्षा में नकल नहीं करने वाला सच्चा और सीधा-सादा मन्या अंडरवर्ल्ड में अपना दबदबा साबित करता है। निर्दोष मन्या को एक भ्रष्ट पुलिस वाला हत्या के मामले में फंसा कर जेल की हवा खिला देता है। उसे उम्रकैद हो जाती है। जेल से वह भाग निकलता है और अपनी गैंग बना लेता है।
उसकी अंडरवल्ड के दूसरे लोगों मकसूद, मस्तान और हकसर भाइयों से लड़ाइयां होती हैं। पुलिस के हाथ बंधे हुए हैं। आखिर में पुलिस मन्या का एनकाउंटर करती है जो मुंबई स्थित वडाला नामक स्थान पर होता है। फिल्म में बताया गया है कि यह पहला एनकाउंटर था, जिसमें पुलिस ने एक गुंडे पर गोली चलाकर उसे मार डाला।
इस वास्तविक घटना को बेहद ही नकली तरीके से पेश किया गया है। अच्छा तो ये होता कि बिना किसी संदर्भ के यह फिल्म बना दी जाती। स्क्रीनप्ले इस तरह से लिखा गया है ताकि ज्यादा से ज्यादा एक्शन सीन शामिल किया जा सके। लेखन में गहराई नहीं है जिसके कारण किरदारों और परदे पर चलने वाले घटनाक्रमों से दर्शक बिलकुल भी जुड़ाव नहीं महसूस करता।
निर्देशक संजय गुप्ता ये तय नहीं कर पाए कि वे अपने किरदारों को किस तरह से पेश करें। एक तरफ तो वे भारी-भरकम शब्दों में डायलॉगबाजी करते हैं तो दूसरी ओर बेवजह गालियां बकते रहते हैं। एक तरफ मन्या औरतों को सम्मान देने की बात करता है तो दूसरी ओर अपनी ही गर्लफ्रेंड को गाली बकता है।
कुछ फूहड़ प्रसंग भी डाल दिए गए हैं। उससे भी मन नहीं भरा तो तीन आइटम नंबर भी झेलना पड़ते हैं, जिनकी इन गानों में कोई सिचुएशन ही नहीं बनती। सनी लियोन का आइटम नंबर तो भी ठीक है, लेकिन प्रियंका चोपड़ा और सोफी चौधरी के आइटम सांग एकदम ठंडे हैं।
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संजय गुप्ता ने कहानी को कहने का जो तरीका चुना है वो भी विश्वसनीय नहीं है। एक इंसपेक्टर ढेर सारी गोली मारने के बाद मन्या को पुलिस वैन में अस्पताल ले जा रहा है और मन्या उसे अपनी कहानी सुनाता है। इस कारण कई जगह कन्फ्यूजन पैदा होता है। मन्या के किरदार को भी ठीक तरह से पेश नहीं किया गया है। संजय गुप्ता का सारा ध्यान फिल्म को स्टाइलिश लुक और एक्शन सीक्वेंसेस पर रहा और लेखन पक्ष की कमियों को वे अनदेखा कर गए।
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जॉन अब्राहम के अभिनय के स्तर को देखा जाए तो उनका अभिनय ठीक है, लेकिन मन्या के किरदार में वे वो आग और ऊर्जा नहीं फूंक सके जो कैरेक्टर की डिमांड थी। कंगना ने पूरी फिल्म में एक ही एक्सप्रेशन दिया है और जॉन के साथ उनके दो-तीन हॉट सीन हैं। तुषार कपूर ने लगातार फूहड़ संवाद और घटिया अभिनय से बोर किया है।
जॉन अब्राहम को इतना ज्यादा फुटेज दिया गया है कि दूसरे कलाकारों की भूमिका उनके आगे गौण हो गई है, जिनमें मनोज बाजपेयी जैसा अभिनेता भी शामिल है, जिसकी प्रतिभा का उपयोग ही नहीं हो पाया। सोनू सूद और अनिल कपूर का अभिनय जरूर ठीक है। महेश मांजरेकर और रोनित रॉय केवल भीड़ का हिस्सा नजर आए।
एक गैंगस्टर की कहानी और ढेर सारे एक्शन दृश्य भी किसी किस्म की गरमाहट पैदा नहीं कर पाए और यही शूटआउट वडाला की असफलता है।